सौन्दर्यबोध से भरेपूरे हैं वैदिक पूर्वज
हृदयनारायण दीक्षित : संसार धर्म क्षेत्र है। यह कथन शास्त्रीय है। संसार कर्मक्षेत्र है। पुरूषार्थ जरूरी है। यह निष्कर्ष वैदिक है। संसार आनंद क्षेत्र है, परम चरम मधुरसा है। वह रसपूर्ण है। तैत्तिरीय उपनिषद् में ‘संपूर्णतारस है।’ छान्दोग्य उपनिषद् में ओम्-उद्गीथ रस है। बताते हैं, “प्राणियों का रस पृथ्वी है। पृथ्वी का रस जल। जल का रस वनस्पतियां। वनस्पतियों का रस पुरूष। पुरूष का रस वाक्-वाणी। वाणी का रस ऋक् है और ऋक का रस साम। साम का ओम्। संसार दुखमय है। दुख के कारण है। इनका निवारण भी संभव है। यह निष्कर्ष मुख्यतया बुद्ध दर्शन का है। प्रत्यक्ष लोक के अलावा अन्य अदृश्य लोक बताए गए हैं। अन्य लोक हो भी सकते हैं और नहीं भी। यह संशय हमारा और हम जैसे अनेक जिज्ञासुओं का भी है। स्वर्ग नरक भी हो सकते हैं लेकिन सबके सम्यक बोध की जगह यह हमारा पृथ्वी लोक है। इसलिए संसार को अनुभूत कर जीवन का मर्म जाना सकता है। संसार विषय है और हम विषयी।
मैंने तमाम ग्रंथ पढ़े। अज्ञानबोध बढ़ा। सुख भोगे। दुख भोगे। बहुत सोचा। निद्रा भी गई जब कब। सोचने की लत पर भी बहुत कुछ सोचा। निष्कर्ष शून्य रहा। मैंने उपलब्ध जानकारियों से मुठभेड़ की। मैंने तर्क प्रतितर्क किये स्वयं से भी। स्वयं वादी बना और स्वयं ही प्रतिवादी। न्यायाधीश भी मैं ही था। इस वाद विवाद में भी कोई निष्कर्ष नहीं निकला। सोचता रहा हूँ कि अनुभव और पकें, तब बात चले। देखता रहता हूं आकाश की ओर कि कोई ऋचा मंत्र आए और हमारा मार्गदर्शन करे। संसार की हरेक गतिविधि को भी ध्यान से देखता हूं। स्वयं का जयघोष भी यों नहीं सुनता। अपना माल्यार्पण भी विवेचन का विषय बनाता हूं। बहुधा अपने भीतर झांकता हूं लेकिन संतोषजनक उत्तर नहीं मिलते। प्रश्नों की संख्या बढ़ती ही दिखाई पड़ती है।
अनुभव ज्ञान का श्रेष्ठ उपकरण है। मैं अनुभव के गर्भ में जाता हूं प्रतिदिन। अनुभव गर्भ के प्रश्न रोचक हैं। क्या संसार को दुखमय मान लूं? मैंने अभी दुखों का चरम भोगा ही नहीं। टुटपुंजिया दुखों से गहन दुखानुभूति कैसे हो सकती है? कोई ठीक ठाक भारी दुख आया होता तो दुख की भूमिका समझ में आती। गहन समझ के लिए अनुभव जरूरी हैं और मुझे उच्चतम दुख का अनुभव नहीं है। संसार की दुखमयता का सिद्धांत अनुभव से ही आया होगा। वैदिक अनुभूतियां भिन्न भिन्न हैं। ऋग्वैदिक समाज आनंदित जान पड़ता है। उपनिषद् के ऋषि परम आनंद के सूत्र बताते हैं। वैदिक पूर्वज सौन्दर्यबोध से भरेपूरे हैं। हमारी अनुभवहीनता यहां भी बाधक है। जैसे उच्च्तम दुख का अनुभव नहीं मिला, वैसे ही परम आनंद का भी कोई अनुभव नहीं। संवेदनशील होने के कारण अभावग्रस्त लोगों का दुख अनुभव होता है लेकिन यही संवेदनशीलता व्यापक प्रभाव वाले संपन्नों के सुख का अनुभव नहीं कराती। सुनता हूं कि गीत काव्य आनंद देते हैं। यह भी कि गीत काव्य के सृजन आनंद से भर देते हैं। मुझे इसका भी प्रत्यक्ष अनुभव नहीं है। हमारे प्राणों से होकर कभी कोई कविता झंकृत करते नहीं बनी।
शरद् की पूर्णिमा भी आई जीवन में 72 बार। मैं आकाश की ओर मुंह बाए खड़ा रहा। लेकिन अमृतरस टपका नहीं। कोई उर्वसी अप्सरा सामने से नहीं निकली। न यथार्थ में और न ही कल्पना में। सौन्दर्यबोध का अनुभव नहीं। हमारे मन बिना पंख लगाए ही उड़ा है परम व्योम आकाश में बहुधा। लेकिन परम व्योम में रहने वाली कोई ऋचा हमारे सामने प्राणवान गीत गाते नहीं निकली। तीर्थ गया हूं। देव मंदिरों में माथा भी टेका है। थोड़ा कुछ मंत्र भी दोहराए हैं। सुना है कि तप से इन्द्र का आसन डोलता है। वे तपभंग के लिए सुंदर अप्सराएं भेजते हैं। वे तप भंग कराते हैं। हम तपभंग की प्रतीक्षा में थे लेकिन यह अवसर भी हाथ नहीं आया। जानने की इच्छा में तमाम पोथियां बांच गया। ज्ञान मिला नहीं। अज्ञान से परिचय बढ़ता रहा। उपनिषद् की गहराइयों में जिज्ञासा मिली। तर्क बढ़े। मैंने प्रमाण खोजे लेकिन प्रमाण अपर्याप्त हैं। गीता हाथ लगी। गीता का अर्जुन हमारे मन के प्रश्न पूछ रहा था। श्रीकृष्ण उसके उत्तर दे रहे थे। सो गीता से प्यार बढ़ा। लेकिन गीता ने भी प्रशांत नहीं किया। जिज्ञासा और प्रश्न और भी बढ़े। बावजूद इसके गीता से बढ़ी प्रीति और भी बढ़ी।
गीता में निष्काम कर्म का प्रतिपादन है। कर्म प्रत्यक्ष है। निष्काम होना भाव है। कर्म में हमारा विश्वास है। ‘भाव’ लाने वाला कर्म गीता में बताया नहीं गया। सुख-दुख, जय-पराजय में समान चित्त का उपदेश आदर्श है। लेकिन ऐसी मनोदशा प्राप्त करने का कोई उपाय नहीं। सोचता हूं कि क्या गीता का प्रश्नकर्ता अर्जुन तमाम ज्ञान प्राप्ति के बाद भी निष्काम हो पाया था? क्या श्रीकृष्ण उसे निष्काम भाव से ही प्रबोधन दे रहे थे? वे अर्जुन को युद्ध प्रवृत करने के लिए तमाम युक्ति और तर्क अपना रहे थे। क्या वे अपने प्रबोधन कर्म का फल नहीं चाहते हैं। अर्जुन को यह प्रश्न प्रबोधन के अंत में श्रीकृष्ण से पूछना ही चाहिए था। बेशक श्रीकृष्ण ने स्वयं के कर्मफल आशा से रहित होकर कर्मरत रहने की बात कही है लेकिन गीता प्रबोधन का उद्देश्य सुस्पष्ट है कि अर्जुन युद्ध करे।
गीता इसीलिए और भी प्यारी है। यहां प्रयोजन रहित प्रयोजन की उपस्थिति है। अंग्रेजी में कहें तो परपजलेस परपज। प्रयोजन बुद्धि युक्ति से तैयार अभिलाषा आशा है। आशा अपने आप में पूर्ण प्रयोजन है। यहां भविष्य में कुछ पाने की प्राकृतिक संभावना है। कर्मफल की आशा भी भविष्य की ही संभावना है। सारे कर्म वर्तमान में होते हैं और उनके कर्मफल भविष्य में मिलते हैं। भविष्य का अस्तित्व नहीं होता। यह हमारी भावना, आशा और योजना की कल्पित धारणा है। गीता संभवतः इसीलिए कर्मफल की इच्छा की समाप्ति पर जोर देती है। अनिश्चित भविष्य में सुनिश्चित घटना की योजना पूरी होने की कोई गारंटी नहीं हो सकती। तब कर्मफल की गारंटी ले कौन? गीता के श्रीकृष्ण अनेक अवसरों पर ईश्वर होकर बोलते हैं। वे तमाम अन्य गारंटी लेते हैं। अपना लोक देने की गारंटी है ही। योग सिद्धि की स्थिति से आनंद प्राप्ति की भी गारंटी है लेकिन सभी कर्मों के फल की कोई प्रतिभूति नहीं है।
दर्शन अध्यात्म के गूढ़ विषयों पर गीता के प्रश्नोत्तर मोहित करने वाले हैं। दर्शन का शिखर है गीता में। लेकिन युद्ध प्रेरित करने वाले श्रीकृष्ण युद्ध में विजय की गारंटी नहीं देते। वे केवल युद्ध के पहलू बताते हैं “लड़े तो यश मिलेगा। न लड़े तो अपयश मिलेगा। और अपयश मृत्यु से भी बड़ा दुख है। लड़े और मारे गए तो स्वर्ग और जीते तो राज्य मिलेगा।” यहां ढेर सारे कर्म विकल्प हैं और सभी विकल्पों के वैकल्पिक फल। अर्जुन अपयश चुन सकता है न लड़कर। वह मारा जाकर स्वर्ग ले सकता है अथवा जीतकर राज्य। लेकिन इच्छित कर्मफल की कोई गारंटी नहीं है। सही बात है। कर्मफल केवल कर्ता के कर्म का ही परिणाम नहीं होता। कर्मफलदाता की जांच पड़ताल में माथापच्ची बेकार है। सीधी बात है “मा फलेषु कदाचन” फल के बारे में सोचे ही मत। ऐसा संभव हो तो जीवन श्रेष्ठ है। न भी संभव हो, कर्मफल की आशा जस तस ही बनी रहे तो भी कर्म ही श्रेयस्कर है। कर्म श्रेय हैं। कर्मफल आशा लेकर या निष्काम भाव लेकर।
(रविवार पर विशेष)
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तम्भकार हैं, वर्तमान में विधानसभा अध्यक्ष हैं)
आखिर रूप, रस, गंध, स्पर्श और स्वाद के आनंद का केन्द्र क्या है?