SC में वर्मा की दलील, दो साल तक नहीं हो सकता है नियुक्ति में कोई बदलाव
उच्चतम न्यायालय ने सीबीआई निदेशक आलोक कुमार वर्मा की याचिका पर गुरुवार को सुनवाई शुरू की। इस याचिका में वर्मा ने जांच एजेंसी के निदेशक के रूप में उनके अधिकार छीनने और उन्हें अवकाश पर भेजने के सरकार के फैसले को चुनौती दी है। प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति केएम जोसफ की पीठ के समक्ष वरिष्ठ अधिवक्ता फली एस नरीमन वर्मा की ओर से दलीलें पेश की। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में अगली सुनवाई अब 5 दिसंबर को होगी।
बहस शुरू करते हुये नरीमन ने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 19 सर्वोपरी है, ऐसी स्थिति में अदालत याचिका की सामग्री के प्रकाशन पर रोक नहीं लगा सकती है। इसके साथ ही उन्होंने कहा, ‘अगर मैं कल रजिस्ट्री में कुछ पेश करता हूं तो इसका प्रकाशन किया जा सकता है।’ इस संबंध में उन्होंने इसी मुद्दे पर शीर्ष अदालत के 2012 के फैसले का भी हवाला दिया।
अधिकारों से वंचित करके अवकाश पर भेजे गये केन्द्रीय जांच ब्यूरो के निदेशक आलोक कुमार वर्मा ने गुरुवार को उच्चतम न्यायालय में दलील दी कि उनकी नियुक्ति दो साल के लिये की गयी थी और इसमें बदलाव नहीं किया जा सकता। यहां तक कि उनका तबादला भी नहीं किया जा सकता।
प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति के एम जोसफ की पीठ के समक्ष वर्मा की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता फली नरीमन ने कहा कि उनकी नियुक्ति एक फरवरी, 2017 को हुयी थी और ‘‘कानून के अनुसार दो साल का निश्चित कार्यकाल होगा और इस भद्रपुरूष का तबादला तक नहीं किया जा सकता।’’
उन्होंने कहा कि केन्द्रीय सतर्कता आयोग के पास आलोक वर्मा को अवकाश पर भेजने की सिफारिश करने का आदेश देने का कोई आधार नहीं था। नरीमन ने कहा, ‘विनीत नारायण फैसले की सख्ती से व्याख्या करनी होगी। यह तबादला नहीं है और वर्मा को उनके अधिकारों तथा कर्तव्यों से वंचित किया गया है।’
उच्चतम न्यायालय ने देश में उच्चस्तरीय लोक सेवकों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच से संबंधित मामले में 1997 में यह फैसला सुनाया था। यह फैसला आने से पहले जांच ब्यूरो के निदेशक का कार्यकाल निर्धारित नहीं था और उन्हें सरकार किसी भी तरह से पद से हटा सकती थी। परंतु विनीत नारायण प्रकरण में शीर्ष अदालत ने जांच एजेन्सी के निदेशक का न्यूनतम कार्यकाल दो साल निर्धारित किया ताकि वह स्वतंत्र रूप से काम कर सकें।
नरीमन ने जांच ब्यूरो के निदेशक की नियुक्ति और पद से हटाने की सेवा शर्तों और दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिष्ठान कानून 1946 के संबंधित प्रावधानों का जिक किया। इससे पहले, सुनवाई शुरू होते ही नरीमन ने कहा कि न्यायालय किसी भी याचिका के विवरण के प्रकाशन पर प्रतिबंध नहीं लगा सकता क्योंकि संविधान का अनुच्छेद इस संबंध में सर्वोपरि है। उन्होंने इस संबंध में शीर्ष अदालत के 2012 के फैसले का भी हवाला दिया।
पीठ ने सीवीसी के निष्कर्षो पर आलोक वर्मा का जवाब कथित रूप से मीडिया में लीक होने पर 20 नवंबर को गहरी नाराजगी व्यक्त की थी। यही नहीं, न्यायालय ने जांच ब्यूरो के उपमहानिरीक्षक मनीष कुमार सिन्हा के अलग से दायर आवेदन का विवरण भी प्रकाशित होने पर अप्रसन्नता व्यक्त की थी।
नरीमन ने कहा, ‘यदि मैं कल रजिस्ट्री में कुछ दाखिल करता हूं तो इसे प्रकाशित किया जा सकता है।’ उन्होंने कहा कि यदि शीर्ष अदालत बाद में प्रतिबंध लगाती है तो ऐसी सामग्री का प्रकाशन नहीं किया जा सकता।
नरीमन ने जब सनसनीखेज आरोपों वाले कुछ मामलों की मीडिया रिपोर्टिंग स्थगित करने के लिये नियमों में बदलाव का सुझाव दिया तो जांच एजेन्सी के उपाधीक्षक ए के बस्सी की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन ने कहा कि उन्हें इस पर गहरी आपत्ति है।
बस्सी ही जांच ब्यूरो के विशेष निदेशक राकेश अस्थाना के खिलाफ रिश्वत के मामले की जांच कर रहे थे परंतु बाद में उनका तबादला कर दिया गया था। प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि न्यायालय का इस तरह का कोई आदेश देने की मंशा नहीं है। धवन ने कहा, ‘यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि पिछली तारीख पर आपने कहा कि हमारे में से कोई भी सुनवाई के योग्य नहीं है।’ प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ‘यह दुर्भाग्यपूर्ण हो सकता है परंतु हम आज आपको सुनेंगे।’
सीबीआई मामले में मल्लिकार्जुन खड़गे की तरफ से पेश होते हुए कपिल सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट में कहा, ‘सीवीसी की शक्तियों का दायरा सीमित है। वे सीबीआई निदेशक को हटाने या कार्यालय को सील करने के लिए इसका इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं।
वहीं अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति के लिए कमिटी कुछ चुनिंदा लोगों को चुनती है और सरकार के सामने रखती है, उसके बाद सरकार उन चुनिंदा लोगो में से सबसे बेहतरीन उम्मीदवार का चुनाव करती है।