सजा देते समय अदालतों को समाज की आवाज सुननी चाहिए: न्यायालय
नयी दिल्ली। उच्चतम न्यायालय ने आत्महत्या के लिये उकसाने के मामले में तीन व्यक्तियों की सजा को जेल में बिताई गयी अवधि तक सीमित करने का उच्च न्यायालय का निर्णय निरस्त करते हुये कहा है कि सजा देते समय अदालतों को समाज की सामूहिक चिंता को ध्यान में रखना चाहिए क्योंकि जनता बहुत संयम से देखती है कि न्याय किया गया है।
शीर्ष अदालत ने तीन दोषियों की तीन साल की कैद की सजा घटाकर जेल में बिताई गयी चार महीने बीस दिन तक सीमित करने के उच्च न्यायालय के आदेश को लापरवाही से किया गया करार दिया।
न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा और न्यायमूर्ति पी सी पंत की पीठ ने कहा कि सजा देते समय अदालत का यह कर्तव्य है कि वह समाज की सामूहिक चिंता पर प्रतिक्रिया व्यक्त करे। विधायिका ने अदालत को विवेकाधिकार दिया है लेकिन ऐसी परिस्थितियों में अदालत का यह कर्तव्य और अधिक कठिन और जटिल हो जाता है। अदालत को ऐसी स्थिति में अपने विवेकाधिकार का इस्तेमाल तर्कसंगत तरीके से करना चाहिए।
यह फैसला इसलिए महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि यह उस निर्णय के एक दिन बाद सुनाया गया है जिसमे एक अन्य पीठ ने 1997 के उपहार सिनेमा अग्निकांड में रियल इस्टेट के कारोबारी सुशील और गोपाल अंसल को 60 करोड रूपए का जुर्माना अदा करने पर उनकी सजा को जेल में बिताई गयी अवधि तक सीमित कर दिया था। न्यायालय के इस निर्णय ने अपराध की गंभीरता के अनुपात में सजा को लेकर एक बहस छेड़ दी है।
उच्च न्यायालय के निर्णय को त्रुटिपूर्ण पाते हुये शीर्ष अदालत ने कहा कि उच्च न्यायालय ने टिप्पणी की है कि आरोपियों को सजा की शेष अवधि के लिये जेल भेजने से कोई तर्कसंगत मकसद पूरा नहीं होगा। न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय ने यह दर्ज किया है कि अपीलकर्ता चार महीने 20 दिन ही हिरासत में रहे थे।