हर किसी में छिपा होता है तारकासुर, भगवान शिव ने बताया है इसपर जीत का मंत्र
शिव महात्म्य (Shiv Mahapuran) में जिस तारकासुर का उल्लेख आता है, वह अकेला नहीं है। भगवान शंकर को उसका संहार करने के लिए विवाह करना पड़ा। यह तारकासुर के तप का प्रताप है। बुरे लोग भी नाना प्रकार से कार्य करते हैं। वह तप भी करते हैं, जप भी करते हैं और अजेय होने के लिए वह किसी भी हद तक जा सकते हैं। तारकासुर अकेला नहीं है। तारकासुर हम सब भी हैं।
तारक यानी नेत्र। जिसके नेत्र सुधर गए, उसका सब कुछ सुधर गया। जिसके नेत्र बिगड़ गए, उसका आदि और अंत बुरा हो गया। इसलिए, भगवान शंकर सबसे नेत्रों को सुधारने को कहते हैं। वह त्रिनेत्र हैं क्यों कि एक नेत्र जग की है। यही नेत्र असंगति और बुराइयों की है। इसलिए, भोले नाथ ने तीसरा नेत्र लगा लिया, ताकि लोग सबसे पहले बुराइयों के प्रवेश द्वार को सही करें।
शिव पुराण (Shiv Mahapuran) का प्रारम्भ ही कलियुग से होता है। कलियुग कैसा होगा, क्या होगा, क्या-क्या नहीं होगा। इसका विस्तार से वर्णन शिव महापुराण में मिलता है। एक बार महर्षि वेदव्यास के शिष्य और पुराणविद् सूतजी नदी के तट पर थे। तभी महर्षि शौनकजी ऋषियों के साथ वहां आए। ऋषियों ने सूत जी को प्रणाम करते हुए कहा कि कलियुग आने वाला है। कोई ऐसा उपाय बताओ, जिससे कलियुग के पापों से मुक्ति मिल सके। कलियुग घोर संकट का समय है।
ऐसा जान पड़ता है कि कलियुग में अनाचार, व्यभिचार, भ्रष्टाचार, वर्ण भेद और वर्ग भेद सभी बढ़ जाएंगे। बड़े-छोटे की दूरी मिट जाएगी। सब पापों में लिप्ट हो जाएंगे। महिलाओं का मान सम्मान नहीं होगा। लोग अपने कर्मों को छोड़कर पाखंड में लग जाएंगे। नियम-संयम खत्म हो जाएगा।
सारी व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी। काम, क्रोध, लोभ और अहंकार का बोलबाला होगा। घर में माता-पिता का निरादर होगा। कलिकाल में कौन सा ऐसा उपाय है, जिसके करने से कलिकाल के पापों से मुक्ति मिल सकती है।
ऋषियों ने यह भी प्रश्न किया कि शिव जी निर्णुण स्वरूप कैसै हैं। शिवजी के कौन से अवतार हैं। ऋषियों के अनेक प्रश्न सुनकर सूतजी बोले, इस कलिकाल में शंकर जी के ध्यान से ही समस्त विकारों और पापों से मुक्ति मिल सकती है। इस छोटी सी कथा का संदेश है कि ज्ञान किसी से भी लिया जा सकता है। ज्ञान की कोई सीमा नहीं होती। शौनकादि ऋषि भी परम ज्ञानी हैं लेकिन वह सूत जी से समस्त वर्णन सुनना चाहते हैं। भगवान शंकर कल्याण के देव हैं। उनकी कृपा से क्या नहीं हो सकता। कलिकाल के दोष उनकी आराधना मात्र से दूर हो जाते हैं। इसलिए, तारकासुर की कथा से ही शंकरजी कहते हैं, नेत्र सुधारो। नेत्र ही सारे पापों के जनक हैं।