बहुत याद आएंगे कथा साहित्य के पुरोधा राजेंद्र (श्रद्धांजलि)
नई दिल्ली । समकालीन हिंदी कथा साहित्य के त्रिमूर्ति-मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव। इनमें से एक मूर्ति का विसर्जन अत्यंत दुखद है। राजेंद्र यादव का महाप्रयाण एक युग का अवसान है। वह युग जिसमें कहानी विधा ‘किशोरी’ से ‘युवती’ हुई। नए-नए प्रयोग हुए और नई कहानी ने एक आंदोलन का रूप लिया। राजेंद्र मात्र साहित्यकार ही नहीं हिंदी साहित्य के ‘राजनीतिज्ञ’ भी थे। कुछ लोग उन्हें साहित्य के महंत कहने से भी नहीं चूकते थे। साहित्य जगत के ‘इंद्र’ माने जाने वाले राजेंद्र यादव का 28 अक्टूबर की देर रात निधन हो गया। वह 84 साल के थे और लंबे समय से अस्वस्थ थे। राजेंद्र यादव का जन्म 28 अगस्त 1929 को उत्तर प्रदेश के आगरा में हुआ था। जीवन के आरंभिक वर्षों में राजेंद्र पिता के साथ मेरठ में रहे। उनके पिता चिकित्सक थे। प्राथमिक स्तर की शिक्षा पूरी करने के बाद राजेंद्र मेरठ में ही अपने चाचा के साथ मवाना में रहने लगे। इस दौरान उन्होंने उर्दू की कहानियां और उपन्यास पढ़ना शुरू किया। चाचा का तबादला झांसी हो जाने के कारण वह उनके साथ ही झांसी आ गए और दसवीं तक की शिक्षा यहीं रहकर पूरी की। आगे की पढ़ाई के लिए वह आगरा आ गए और हिंदी साहित्य में बी.ए. (1949) तथा एम.ए. (1951) उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से किया। इसके बाद राजेंद्र कुछ समय तक कोलकाता में रहे और साहित्यिक पत्रिका ‘ज्ञानोदय’ से जुड़े रहे। वर्ष 1964 में राजेंद्र दिल्ली आ गए और यहां उन्होंने ‘अक्षर प्रकाशन’ की नींव रखी। 1986 में वह मुंशी प्रेमचंद द्वारा स्थापित साहित्यिक मासिक पत्रिका ‘हंस’ के संपादक बने और तब से आज तक ‘हंस’ का सफल संचालन करते आ रहे थे। राजेंद्र यादव की गिनती नई कहानी आंदोलन के महत्वपूर्ण अग्रणी कथाकारों में की जाती है। उनकी पहली कहानी ‘प्रतिहिंसा’ (1947) मासिक पत्रिका ‘कर्मयोगी’ में प्रकाशित हुई थी और उनके पहले उपन्यास ‘सारा आकाश’ (1959) ने उन्हें अपने दौर के अगुआ कथाकारों और साहित्यकारों में स्थापित कर दिया। यह उपन्यास हिंदी के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासों में से एक है। इसकी कहानी एक रूढ़िवादी निम्नवर्गीय परिवार की कहानी है जिसका नायक एक अव्यावहारिक आदर्शवादी है। इस उपन्यास की लगभग आठ लाख प्रतियां बिक चुकी हैं। फिल्मकार बासु चटर्जी ने बाद में ‘सारा आकाश’ पर फिल्म भी बनाई। राजेंद्र यादव की ‘एक कमजोर लड़की की कहानी’ ‘जहां लक्ष्मी कैद है’ ‘अभिमन्यु की आत्महत्या’ ‘छोटे छोटे ताजमहल’ ‘किनारे से किनारे तक’ व ‘देवताओं की मूर्तियां’ विश्व साहित्य की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में गिनी जाती हैं। उनकी तमाम कहानियां और रचनाएं ‘पड़ाव-1’ ‘पड़ाव-2’ और ‘यहां तक’ शीर्षक के तहत संकलित हैं। इसके अलावा राजेंद्र के लिखे उपन्यासों में ‘उखड़े हुए लोग’ ‘शह और मात’ ‘कुलटा’ ‘अनदेखे अनजाने पुल’ ‘मंत्रबिद्ध’ और लेखिका पत्नी मन्नू भंडारी के साथ लिखा उपन्यास ‘इक इंच मुस्कान’ प्रमुख हैं। 196० में ‘आवाज तेरी है’ नाम से राजेंद्र की कविताओं का संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है। अपने समय की प्रतिष्ठित और महत्वपूर्ण मासिक पत्रिका ‘हंस’ को नया आयाम देने और लंबे समय तक इसके सफल संचालन का श्रेय राजेंद्र यादव को ही जाता है। मुंशी पे्रमचंद के निधन के बाद उनके पुत्र प्रसिद्ध कथाकार अमृतराय ‘हंस’ के संपादक बने। उसके बाद कई वर्षों तक ‘हंस’ का प्रकाशन बंद रहा। 31 जुलाई 1986 में अक्षर प्रकाशन के प्रतिष्ठित कथाकार राजेंद्र यादव ने ‘हंस’ के संपादन का जिम्मा संभाला और एक कथा मासिक के रूप में इसका पुनप्र्रकाशन आरंभ किया। हिंदी साहित्य जगत में ‘हंस’ का सबसे बड़ा योगदान माना जा सकता है कि जिस दौर में बड़े-बड़े प्रकाशन संस्थाओं से निकलने वाली ‘धर्मयुग’ व ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ जैसी पत्रिकाएं ढेर हो रही थीं उस दौर में एक लेखक के व्यक्तिगत प्रयास से निकलने वाली पत्रिका ने लोगों को साहित्य से जोड़े रखा। राजेंद्र ने ‘हंस’ के माध्यम से कई नवोदित कथाकारों को पहचान और प्रतिष्ठा दिलाई। वर्ष 2००3 में लिटरेट वल्र्ड द्वारा 81 साहित्यकारों के माध्यम से कराए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक ‘हंस’ हिंदी साहित्य की सर्वाधिक महत्वपूर्ण और लोकप्रिय पत्रिका है। सामाजिक रूप से इतने प्रतिष्ठित लेखक की निजी जिंदगी हालांकि उथल-पुथल और उतार-चढ़ावों से भरी रही। समय-समय पर उन पर कई तरह के आरोप भी लगे। राजेंद्र ने घर-बार छोड़ा पत्नी और बेटी का साथ छोड़ा लेकिन साहित्य से उनका साथ मरते दम तक नहीं छूट पाया। ‘हंस’ के संपादक के रूप में राजेंद्र आजीवन रचनाकर्म से जुड़े रहे। नए विचारों के आग्रही और सांप्रदायिकता के शत्रु राजेंद्र यादव भुलाए नहीं भूलेंगे। हिंदी साहित्य में स्त्री-विमर्श व दलित-विमर्श के लिए भी राजेंद्र याद किए जाएंगे।