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MUDRA के चार साल पूरे, कुछ ऐसे मकसद से चूकी मोदी सरकार की योजना?

माइक्रो यूनिट्स डेवलपमेंट एंड रिफाइनेंस एजेंसी (MUDRA)को 2015 में लॉन्च किया गया तो इसे ऐसी अभिनव योजना के तौर पर पेश किया गया जो छोटे या नए कारोबारियों को आसान शर्तों पर कर्ज दिलाने में मददगार साबित होगी, लेकिन चार साल बीतने के बाद यह योजना अपने मूल मकसद से चूकी नजर आती है.

मुद्रा का रियलिटी चेक किया तो पाया कि जमानत की शर्त से मुक्त ऐसे कर्ज की योजना से भी छोटे कारोबारियों को अपने रास्ते की पेचीदा दिक्कतों से निजात नहीं मिल पाई.

खस्ताहाल बाजार, लीक से हट नए प्रयोगों का अभाव

अनेक कर्जदार खस्ता हाल बाजार, नई तकनीकों के अभाव और भारी कागजी कार्रवाई की वजह से अब भी मुश्किलों का सामना कर रहे हैं. मध्य प्रदेश के रायसेन जिले के उदयपुरा में गिफ्ट की छोटी दुकान चलाने वाले गजेंद्र राजपूत ने 2016 में मुद्रा के तहत 50,000 रुपये का कर्ज लिया. गजेंद्र को उम्मीद थी कि इससे कारोबार बढ़ेगा, लेकिन बीते दो साल में ऐसा कुछ नहीं हुआ. 50,000 रुपये के छोटे कर्ज से कारोबार में मामूली निवेश लेकिन अन्य खर्चों की भारी लागत से गजेंद्र की हालत जस की तस रही.

गजेंद्र ने बताया, ‘1300 रुपये की किश्त जाती है. आवश्यकता के लिए कर्ज लिया था. हम लोगों के पास पैसा तो होता नहीं, कर्ज लेकर दुकान की पूर्ति (सामान भरना) करते हैं, उसी से अपना खर्च चलाते हैं. ये छोटी जगह (शहर) है, किराया भी नहीं निकाल पाते. बस इसी संघर्ष में लगे हुए हैं.’ गजेंद्र की दुकान पर ग्राहकों का टोटा है. दुकान की शेल्फों में रखे सामान पर धूल जमी नजर आती है.

गजेंद्र कहते हैं- ‘महीने का छह से सात हजार रुपये निकल पाता है, लेकिन तीन हजार किराया देना पड़ता है. 1200 रुपये बिजली का बिल भी आता है. अब जो साढ़े तीन या चार हजार बचे उसी से व्यापारियों (जिनसे सामान लेते हैं) को मेंटेन करना पड़ता है और परिवार की भी आवश्यकता है. हम छह लोग हैं और कमाने वाला मैं अकेला.’

एक मंत्र जो नाकाम रहा

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 8 अप्रैल 2015 को मुद्रा योजना को लॉन्च करते हुए इसका मंत्र ‘जिसके पास फंड नहीं उसे फंड मुहैया कराना’ बताया.

बीते साल मई में प्रधानमंत्री ने प्रोजेक्ट की तारीफ करते हुए कहा कि इससे बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन में मदद मिली है. उन्होंने अपने ट्वीट में इसे समाज के सभी वर्गों के बीच ‘आत्मनिर्भरता की भावना’ ले जाने वाला बताया था, लेकिन इससे उलट जमीनी हकीकत अधिक उत्साह नहीं जगाती. बता दें कि योजना में विभिन्न वित्त संगठनों से दस लाख रुपये तक का कर्ज दिलाने का वादा किया गया था.

मुद्रा के तहत दिए जाने वाले कर्ज को तीन किस्मों में बांटा गया.

शिशु मुद्रा कर्ज-  50,000 रुपये तक कर्ज

किशोर मुद्रा कर्ज- पांच लाख रुपये तक का कर्ज

तरुण मुर्दा कर्ज- पांच लाख से दस लाख रुपये तक का कर्ज

मौजूदा वक्त में प्रोजेक्ट की अधिकृत पूंजी 1,000 करोड़ रुपये है, इसमें चुकता हिस्सेदारी 750 करोड़ रुपये है जो  SIDBI  (स्माल इंडस्ट्रीज डवलपमेंट बैंक ऑफ इंडिया) से स्वीकृत है.

मुद्रा से NPA बढ़ने की आशंका

मुद्रा की किशोर और तरुण, दोनों कर्जों की किस्मों के तहत कर्ज लेने वाले जिन कर्जदारों से हमने बात की, उनकी कहानी समान रूप से निराश करने वाली निकली.

पहले बात मुद्रा की किशोर किस्म के तहत कर्ज लेने वाले लोकेंद्र पैजवार की. मध्यप्रदेश के रायसेन जिले में रहने वाले लोकेंद्र ने बीते साल कपड़े के कारोबार के लिए एक लाख रुपये का कर्ज लिया. मौजूदा वक्त की बात की जाए तो लोकेंद्र घर खर्च के लिए 3 हजार रुपये महीना ही बचा पाते हैं. बाकी मासिक किश्तों और कारोबार से जुड़े अन्य खर्चों में निकल जाता है.

लोकेंद्र ने बताया, ‘आमदनी काफी तो नहीं है क्योंकि बैंक का लोन भी भरना होता है. घर के खर्चे के लिए 2-3 हजार रुपये ही निकल पाते हैं. घर में चार लोग हैं. कमाने वाले दो ही हैं- मैं और मेरा भाई. वो मजदूरी करते हैं. इतने के लिए काफी तो नहीं है.’

इसी तरह की कहानी जयपुर में स्टील फैब्रिकेशन यूनिट चलाने वाले सुमीत कुमार की है. उन्होंने मुद्रा की तरुण कैटेगरी के तहत 6 लाख का कर्ज लिया. सुमीत कुमार ने इंडिया टुडे को बताया- ‘पहले मुझे मुद्रा लोन के लिए मना कर दिया गया था. काफी मशक्कत के बाद वो इस शर्त पर कर्ज देने के लिए तैयार हुए कि पहले अपने माल का स्टॉक उन्हें दिखाऊं. उन्होंने जोर दिया कि पहले मैं माल खरीदूं, बिल दिखाऊं उसके बाद ही वो सप्लायर्स को सीधे पैसे देंगे.’

अब कर्ज को लौटाना या ब्याज का भुगतान सुमीत को भारी लग रहा है. सुमीत ने शिकायत के लहजे में कहा, ‘बैंक ने उसकी ब्याज दर भी 9.25 फीसदी रखी जिसके लिए उन्हें हर महीने 4,700 रुपये देना पड़ रहा है.’

छोटे कर्ज साफ कर रहे बड़ी रकम  

मोदी सरकार को बीते महीने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के कर्मचारियों की नाराजगी का सामना करना पड़ा जब उन्होंने दिल्ली के जंतर-मंतर पर विरोध प्रदर्शन किया. इन कर्मचारियों का आरोप था कि मुद्रा योजना से उनके संस्थान छलनी हो रहे हैं. प्रदर्शनकारी बैंक कर्मचारियों का ये भी आरोप था कि सरकार उन पर कर्ज बांटने के लिए दबाव दे रही है.

बैंक ऑफ इंडिया में अधिकारी के तौर पर कार्यरत पंकज कपूर ने दावा किया, ‘हम आंकड़ें दिखाने के लिए मंत्रालय से भारी दबाव में हैं. हमें बांटे गए मुद्रा लोन के आंकड़ों के साथ दैनिक रिपोर्ट देने के लिए कहा जाता है. हताशा में अधिकारियों को बाहर जाना पड़ता है और ग्राहकों से लोन लेने के लिए कहना पड़ता है. ना लोन प्रस्ताव होता है ना ही भुगतान का प्लान.’

राणा ने कहा, ‘कर्ज लेने वाले सोचते हैं कि ये उनके लिए सरकार की ओर से किसी तोहफे का हिस्सा है और उन्हें इसे वापस नहीं चुकाना है, सरकार लक्ष्य तय कर देती है जो कि नहीं होना चाहिए.’ राणा के मुताबिक, ‘मुद्रा में नीतिगत खामी है. इसलिए लोग इसका दुरुपयोग करते हैं और जब वो डिफॉल्टर हो जाते हैं तो बैंकर्स को पकड़ा जाता है और दंडित किया जाता है.’

कुछ विशेषज्ञों की राय में मुद्रा रोजगार सृजन को बड़ा पुश देने की जगह सिर्फ खातों से संबंधित एक कवायद है. अग्रणी अर्थशास्त्री वीके जैन कहते हैं, ‘लोकलुभावन योजनाओं के लिए बैंकों का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए. उन्हें पहले से ही बड़े NPA का सामना है और इस तरह की योजनाओं का हश्र भी किसानों को दिए जाने वाले कर्ज जैसा होगा.’ जैन ने चेताने के लहजे में कहा, ‘मुझे यकीन है कि कोई सरकार आगे आएगी और कहेगी कि हम मुद्रा लोन माफ करते हैं.’

नीतिनिर्धारकों ने किया मुद्रा का बचाव

हालांकि अधिकारी मुद्रा प्रोजेक्ट का बचाव करते आए. नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार इस बात से असहमति जताते हैं कि मुद्रा अपेक्षाओं को पूरा करने में नाकामयाब रही है. कुमार कहते हैं, ‘मुद्रा योजना विशेष तौर पर छोटे कारोबारों और बिजनेस स्टार्ट अप्स के लिए लाई गई है. ये छोटे कारोबार बड़े स्तर पर रोजगार पैदा करते हैं.’

कुमार ने कहा, ‘यह कहना गलत है कि कोई बजटीय प्रावधान नहीं है क्योंकि मुद्रा को SIDBI की बैंकिंग है जिसका निश्चित तौर पर बजट है.’

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