लखनऊ : कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने यूपी के चुनाव की कमान संभाल ली। प्रियंका की जिम्मेदारी का अंदाजा इससे लगा सकते हैं कि राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने अभी तक यूपी में एक भी जनसभा नहीं की है। वहीं, प्रियंका लोकसभा क्षेत्रवार कार्यकर्ताओं से मिलने के साथ ही कई स्थानों पर रोड शो कर चुकी हैं। इतना ही नहीं प्रयागराज से वाराणसी तक 140 किलोमीटर लंबी गंगा यात्रा भी कर चुकी हैं। कांग्रेस के परंपरागत वोट बैंक रहे अनुसूचित जाति के मतदाताओं को लुभाने में भी वे कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रही हैं। लेकिन, पूर्वी यूपी में उनके लिए चुनौतियां कम नहीं हैं। यूपी में कांग्रेस हाईकमान ने पूर्वी यूपी में सियासी जमीन मजबूत करने की जिम्मेदारी प्रियंका को सौंपी है। उनके जिम्मे पूर्वी यूपी व अवध की 41 लोकसभा सीटें हैं। प्रियंका को यहां जातीय समीकरण को साधने के साथ-साथ खुले तौर पर बीजेपी के दिग्गज नेताओं के अलावा अघोषित तौर पर सपा-बसपा अध्यक्षों से मिल रही चुनौतियों से भी दो-दो हाथ करने होंगे।
बेजान संगठन : कांग्रेस से हमदर्दी रखने वाले बुद्धिजीवी भी मान रहे हैं कि प्रियंका को एकदम बेजान संगठन मिला है, खासकर पूर्वी यूपी में तो यह और भी कमजोर है। 90 के दशक में प्रदेश की सत्ता हाथ से जाने के बाद और क्षेत्रीय दलों के उभार के चलते कांग्रेस का संगठन लगातार कमजोर होता चला गया। स्थिति यह हो गई उसके जनप्रतिनिधियों ने भी संगठन को स्वतंत्र रूप से खड़ा करने के प्रयास करने के बजाय क्षेत्रीय दलों के साथ गोटियां बिछाना ज्यादा मुफीद समझा। हालांकि, प्रियंका हर स्तर पर संवाद बढ़ाकर संगठन को मजबूत बनाने का प्रयास कर रही हैं। मतदाताओं से भी अधिकाधिक संपर्क स्थापित कर रही हैं।
मोदी-योगी की चुनौती भी कम बड़ी नहीं : प्रियंका को जिन 41 सीटों की जिम्मेदारी दी गई है उनमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के प्रतिनिधित्व वाले इलाके भी शामिल हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी ने वाराणसी से उतरकर पूर्वांचल में विपक्षी दलों को धूल चटा दी थी। सिर्फ आजमगढ़ ही एक ऐसी सीट थी, जहां मुलायम सिंह यादव जीत पाए थे। इस बार अखिलेश यादव और मायावती एक साथ हैं। अखिलेश आजमगढ़ सीट से उतकर पूर्वांचल के समीकरण साधने का पूरा प्रयास कर रहे हैं। इसलिए इस लिहाज से भी चुनौतियां कम नहीं हैं।
स्थानीय बड़े चेहरे की कमी : पूर्वांचल में कांग्रेस के पास स्थानीय बड़े चेहरों का सख्त अभाव है। नए दौर में कांग्रेस के कद्दावर नेताओं ने बीजेपी या फिर सपा-बसपा में ठौर तलाश लिया है। आरपीएन सिंह को छोड़कर पूर्वांचल में कांग्रेस के पास कोई बड़ा चेहरा नहीं है, जबकि कांग्रेस के उभार के दौर में कमलापति त्रिपाठी, वीर बहादुर सिंह, कल्पनाथ राय, सुचेता कृपलानी और राजा दिनेश सिंह जैसे दिग्गज नेता थे। वहीं प्रियंका के सामने सबसे बड़ी चुनौती मजबूत प्रत्याशियों की तलाश है। हालांकि, दूसरे दलों के पूर्व सांसदों व विधायकों को लेकर कांग्रेस इस चुनौती पर विजय पाने की कोशिश कर रही है। लेकिन, कितना सफल होती है, यह आने वाला समय ही बता पाएगा।
साधने होंगे जातीय समीकरण : प्रियंका को जातिगत समीकरण साधना के लिए भी भागीरथ प्रयास करने होंगे। तीन दशकों से सत्ता से बाहर रहने के कारण कांग्रेस के परंपरागत माने जाने वाले वोट बैंक दलित, मुस्लिम और ब्राह्मण उससे खिसक चुके हैं। हालांकि 2009 के चुनाव में उसकी स्थिति सुधरी थी, पर अगले ही चुनाव में यह फिर सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई। कांग्रेस के रणनीतिकारों को भरोसा है कि इस बार की चुनावी घोषणाओं के सहारे वे सभी वर्गों व जातियों के गरीबों का समर्थन हासिल करने में सफल होंगे।
सिर्फ लोकप्रियता के दम पर नहीं मिलते वोट : प्रियंका गांधी वाड्रा के लिए यूपी में मुख्य चुनौती है कि वे यहां के जातिगत समीकरणों की व्यूह रचना को भेद पाती हैं या नहीं। इसी से यह तय होगा कि उनके रोड शो या सभाओं में जुट रही भीड़ वोट में बदलती है या नहीं। जमीनी स्तर पर कांग्रेस का संगठन शून्य है। कार्यकर्ता और संगठन के दम पर ही भीड़ वोट में तब्दील होती है। यह सही है कि प्रियंका लोकप्रिय हैं, लेकिन इतने भर से वोट नहीं मिलते। यहां जहां भी कांग्रेस के नेता लड़ाई में दिख रहे हैं, यह उनके खुद के कद और सक्रियता का नतीजा है। चुनाव के कुछ समय पहले ही प्रियंका को यहां की जिम्मेदारी दी गई। इतने कम समय में प्रत्येक जिले में जाना मुमकिन नहीं था। लेकिन, प्रियंका ने पूर्वी यूपी के अधिकांश जिलों के कार्यकर्ताओं व नेताओं से लखनऊ में मुलाकात की। कई जिलों की यात्राएं कीं। जाति-धर्म और जाति के समीकरणों के बजाय गरीबी हटाने के लिए 72 हजार रुपये साल, रोजगार देने, महिला आरक्षण और किसानों के लिए कर्जमाफी जैसे मुद्दे मतदाताओं पर प्रभाव छोड़ रहे हैं।