राजनीति के पालने में राज्यपाल
प्रसंगवस : ज्ञानेन्द्र शर्मा
सत्ता में चाहे कोई हो, सत्ता-जनित निहितार्थ राजनीति करने से कोई बाज नहीं आता। अनगिनत मामले ऐसे हैं जिनमें सत्ता में आई सरकारें एक समान आचरण करती हैं, भले ही वे किसी भी दल या दलों के समूहों की हों। किसी विद्वान ने कभी कहा था कि मौत सब कुछ बराबर कर देती है। ‘डैथ इज दि बिगैस्ट लेवलर’। पर यह तो मौत की बात है लेकिन जहॉ तक हमारे देश के राजनीतिक तंत्र का सवाल है यहॉ तो सब कुछ इसी जीवन में हो जाता है, बस कुछ अन्तराल का अंतर होता है, सत्ता-पलट हुआ नहीं कि ‘पार्टी पालिटिक्स विकम्स दि लैवलर’। यानी विपक्ष में बैठने वाले जैसे ही सत्तान्मुख होते हैं, पिछला सारा इतिहास वे भूल जाते हैं, अपने वादे-इरादे वे भूल जाते हैं।भारतीय जनता पार्टी हमेशा इस बात के खिलाफ रही है कि राजनीतिक लोगों को राज्यपाल के पद पर बिठाया जाय। 1991 के लोकसभा चुनाव के समय अपने चुनाव घोषणा पत्र में उसने देश की जनता से वादा किया था: ‘हम राजभवन को सत्तारूढ़ दल का विस्तारित पटल (एक्सटेंशन काउंटर) नहीं बनने देंगे’। उसके पहले और बाद भी वह अपने घोषणा पत्रों में ऐसे ही इरादे जताते हुए वादे करती रही है। 1996 के लोकसभा चुनाव के समय उसने जो घोषणा पत्र जारी किया था, उस पर नजर डालिए। उसने वादा किया था कि ‘राज्यपालों की नियुक्ति से पहले इस सम्बंध में राज्य सरकारों से परामर्श किया जाएगा’। लेकिन सत्ता मिलते ही अपने सारे पुराने वादे-इरादे भुला दिए। भाजपा ने पिछले साल सत्ता में आते ही अपने वयोवृद्ध नेताओं को राजभवनों में स्थापित करना शुरू कर दिया। जिन नेताओं को और कहीं ठौर नहीं मिल पा रही थी, उन्हें राज्यपाल बना दिया गया। प्रारम्भिक दौर में राम नाइक, कल्याण सिंह, केशरीनाथ त्रिपाठी इनमें प्रमुख थे। अब जो नए राज्यपाल नियुक्त किए गए हैं, वे न केवल भाजपा और संघ से जुड़े हुए हैं बल्कि उनकी नियुक्ति इस स्वार्थ से की गई है कि सम्बंधित राज्यों की चुनावी राजनीति में भाजपा को फायदा मिले। बिहार में, जहॉ कुछ ही महीनों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं, कानपुर के पुराने भाजपा नेता व पूर्व सांसद राम नाथ कोविद को राज्यपाल बनाया गया है। वे महादलित की श्रेणी में आते हैं और भाजपा को लगता है कि एक तरफ हाल ही में उसके पाले में आए बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री मांझी, जो दलित हैं तो दूसरी तरफ महादलित कोविद उसे चुनावी लाभ देंगे- कुछ प्रत्यक्ष रूप से तो कुछ अप्रत्यक्ष रूप से। मतलब साफ है-जो भाजपा राजभवन को सत्तारूढ़ का विस्तारित पटल नहीं बनने देने का खुला वादा जनता से करती रही है, उसने शुद्ध राजनीतिक स्वार्थ से कोविद को बिहार का राज्यपाल बना दिया।
एक सांदर्भिक बात यह है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने यह कहते हुए कि उनसे नए राज्यपाल की नियुक्ति पर केन्द्र से कोई परामर्श तक नहीं किया, उसकी आलोचना की है। बिहार के मुख्यमंत्री के इस खुले आरोप का कि उनसे नए राज्यपाल की नियुक्ति पर कोई परामर्श नहीं किया गया, भाजपा के किसी नेता या केन्द्रीय सरकार के कोई प्रतिवाद नहीं किया है। जाहिर है कि नीतीश कुमार का आरोप सही है। यानी श्री कोविद को नियुक्त करने से पूर्व बिहार की सरकार से केन्द्रीय सरकार ने कोई परामर्श नहीं किया। यह खुद भाजपा के जनता से किए जाते रहे वादे का खुला उल्लंघन है क्योंकि उसने साफ शब्दों में जनता से यह वादा किया था कि वह केन्द्र में सत्ता में आई तो ऐसी व्यवस्था लागू की जाएगी कि जिसके तहत राज्यपालों की नियुक्ति से पहले राज्य सरकारों से परामर्श किया जाएगा। भाजपा ने यह वादा सरकारिया कमीशन की रिपोर्ट में की गई सिफारिश को स्वीकार करते हुए किया था।
यह बात कम उल्लेखनीय नहीं है कि भाजपा ने पिछले साल केन्द्र की बागडोर संभालने के बाद कई राज्यपालों को उनके पदोें से हटाया था। सबसे पहले गुजरात की राज्यपाल कमला बेनीवाल को बर्खास्त कर दिया गया। उनसे नरेन्द्र मोदी की उस समय से खुन्दक थी जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे। मिजोरम के राज्यपाल अजीज कुरैषी को भी बर्खास्त कर दिया गया। वीरेन्द्र कटारिया को पोंडीचेरी के राज्यपाल पद से हटा दिया गया। प0 बंगाल के एम0के0 नारायणन, नगालैंड के अश्विनी कुमार, उत्तर प्रदेश के बी0एल0 जोशी, छत्तीसगढ़ के शेखर दत्त, गोवा के वांचू, मणिपुर के बी0के0 दुग्गल को केन्द्रीय गृह सचिव ने लाल झण्डी दिखा दी जिसके बाद उन्होंने अपने अपने इस्तीफे दे दिए। जाहिर है कि केन्द्र में सत्ता में आई भाजपा को यह लगा कि जब तक विभिन्न राज्यों में भाजपा के लोग राज्यपाल नियुक्त नहीं होंगे, तब तक वहॉ के राजभवनों को सत्तारूढ़ दल का ‘विस्तारित पटल’ बनाने में दिक्कत आएगी।
अपने उत्तर प्रदेश में भी राज्यपाल का पद चर्चा में बना हुआ है। बी0एल0 जोशी को हटाए जाने के बाद महाराष्ट्र के भाजपा नेता और पूर्व केन्द्रीय मंत्री राम नाइक उत्तर प्रदेश के राज्यपाल के रूप में लखनऊ आए तो उनकी और राज्य सरकार की तलवारबाजी आम बात हो गई। जब नाइक ने जातिगत आधार पर नियुक्तियां किए जाने से जुड़ी हुई एक टिप्पणी की तो यह तलवारबाजी खुले रण में परिवर्तित हो गई और सपा के वरिष्ठ नेता राम गोपाल यादव ने एक ऐसा बयान दे डाला , जिसमें कई आरोप राज्यपाल पर मढ़ दिए गए। उनके बयान में कई टिप्पणियॉ ऐसी थीे जो पहले कभी प्रदेश में नहीं सुनी गई थीं। मसलन रामगोपाल यादव ने राज्यपाल को भाजपा के एजेंट के रूप में काम करने के आरोप लगाते हुए यह कह दिया कि यदि कोई सपाई उनके खिलाफ अनुचित शब्द बोलता है तो हम जिम्मेदार नहीं होंगे। इसके तुरंत बाद एक केबिनेट मंत्री व सपा के वरिष्ठ नेता अम्बिका चौधरी ने कह दिया कि ‘नाइक को उसी भाषा में जवाब दिया जाएगा जो वे समझते हैं’। राम गोपाल यादव ने राज्यपाल की हैलीकाप्टर यात्राओं का जिक्र करते हुए कहा कि वे इन यात्राओं में संघ और भाजपा का प्रचार करते हैं। उनका यह भी कहना था कि हैलीकाप्टर की जितनी यात्राएं मुख्यमंत्री नहीं करते, उतनी राज्यपाल कर रहे हैं। इसके कुछ समय बाद ही एक और केबिनेट मंत्री मोहम्मद आजम खान ने यह कह दिया कि राजभवन को राजनीतिक भवन बना दिया गया है।
लाख दुखों की एक दवा- सीबीआई
एक सिलसिला अनवरत रूप से चल रहा है। चाहे कोई घटना हो, दुर्घटना हो आम लोगों का आक्रोश पुलिस और प्रशासन पर भड़क उठता है। वे जगह जगह रास्ता जाम कर देते हैं, रेलें जाम कर देते हैं, तोड़फोड़ मचा देते हैं। यहॉ तक कि पुलिस थानों में उत्पाद मचा देते हैं, पुलिस वालों की पिटाई कर देते हैं। तमाम घटनाएं-दुर्घटनाएं साक्षी है कि किस तरह लोग कानून हाथ में लेकर हिंसा पर उतारू हो जाते हैं। अनगिनत वारदातें ऐसी हैं जिनमें सड़क दुर्घटना, बलात्कार, हिरासत में मौत, पुलिस की कार्रवाई, साम्प्रदायिक तनाव, जातीय संघर्ष पर लोग हिंसक हो जाते हैं, उनका आक्रोश मिनटों में चरम पर पहुॅच जाता है। गाड़ियों में वे आग लगा देते हैं, ट्रकें, बसें, कारें, बाइक फूॅक डालते हैं। शव लेकर सड़क पर धरना लगा लेते हैं और मॉग करते हें कि जब तक दोषी लोग पकड़े नहीं जाएंगे, अंतिम संस्कार नहीं किया जाएगा। इसे निपटाने में प्रशासन के पसीने छूट जाते हैं।
वजह एक ही है। लोगों को पुलिस पर, प्रशासन पर , सरकार पर जरा भी भरोसा नहीं रहा। उन्हें लगता है कि वे जब तक आंदोलित नहीं होंगे, अशंति नहीं फैलाएंगे, बल-प्रयोग नहीं करेंगे, तब तक अपराधी पकड़े नहीं जाएंगे, तब तक प्रशासन उनकी मदद को नहीं आएगा। उन्हें लगता है ऊपर बैठे अफसरों तक अपनी बात पहुॅचानी हो, अपनी बात मनवानी हो, न्याय मांगना हो, अत्याचार के खिलाफ आवाज उठानी हो तो एक ही तरीका है, आंदोलन करो और फिर चाहे वो हिंसक आंदोलन ही क्यों न हो। वे जानते हैं कि चुप रहे तो शासन-प्रशासन, पुलिस कुछ नहीं करेगी। ऐसा इसलिए कि प्रशासन निश्पक्ष होकर त्वरित गति से काईवाई नहीं करता, अपनी सामान्य ड्यूटी वह तभी करता है, अपने सामान्य कर्तव्य तभी निभाता है जब उसके सिर पर कोई सवार नहीं होता।
इसका एक बड़ा रूप यह है कि जब ऐसी घटना-दुर्घटना होती है तो स्थानीय से लेकर राज्य स्तर तक की पुलिस पर लोग भरोसा नहीं जताते और सीधे केन्द्रीय जॉच ब्यूरो यानी सी0बी0आई0 की जॉच की मांग उठाते हैं। सी0बी0आई0 हर मर्ज की दवा है। मजे की बात यह है कि विपक्ष में जो भी दल होता है, वह सी0बी0आई0 की जॉच की मांग करता है– वही विपक्ष जो कहता रहता है कि सी0बी0आई0 तो केन्द्रीय सरकार की कठपुतली है, पिंजरे में बंद तोता है, वह भी यह मांग उठाता है। ऐसा करके वह एक तो राज्य सरकार की मशीनरी के सामने प्रश्नचिन्ह खड़ा कर देता है, उसकी विश्वासनीयता, निष्पक्षता, ईमानदारी, असंदिग्ध क्षमता को सीधे से चुनौती देता है और फिर केन्द्रीय जॉच ब्यूरो के हस्तक्षेप की मॉग करता है। सी0बी0आई0 जॉच तभी संभव हो सकती है जब राज्य सरकार इसकी सिफारिश करे। लेकिन राज्य सरकारें उसी जॉच की मॉग मानती हैं, जो उन्हें सुविधाजनक लगती है। यह सिलसिला बिना रुके चलता है। जो सक्षम हैं, वे हाई कोर्ट की शरण लेते हैं और जब हाई कोर्ट सरकार के खिलाफ कोई फैसला दे देता है तो सरकार सुप्रीम कोर्ट की तरफ दौड़ लगा देती है।
सीबीआई और आकाशवाणी दरअसल दो ऐसे सरकार तंत्र हैं, जो हर सत्तारूढ़ दल को प्यारे होते हैं लेकिन केवल तब तक जब तक कि वह सत्ता में रहता है। जैसे ही वह विपक्ष में गया, उस पर दूसरे सत्तारूढ़ हुए दल का पक्षधर होने का आरोप मढ़ने लगता है। इनके दुरुपयोग का आरोप हर विपक्षी दल करता है। इतिहास इस बात का साक्षी भी है कि इन दोनों ही तंत्रों का जमकर दुरुपयोग होता है। सीबीआई की जॉच की मांग देश के हर कोने से लगभग हर समय ही उठती रहती है। पहले एक जमाना था जब तमाम मामलों की न्यायिक जॉचों की मांगें ज्यादा उठती थी थी लेकिन जिस तरह तमाम न्यायिक आयोगों ने अपनी जॉच पूरी करने में सालों का समय लेना शुरू किया और आम तौर पर वे सत्तारूढ़ पार्टी के हितैशी बनने लगे, यह सिलसिला बंद होने लग गया। सीबीआई की जॉच भी वैसे तो पुलिस के अफसर ही करते हैं लेकिन आम तौर पर चूॅकि वे राज्य सरकारों के सीधे नियंत्रण में नहीं होते इसलिए उनकी निष्पक्षता की संभावना कहीं ज्यादा होती है।
नतीजा यह है कि सीबीआई के पास जॉचों का अम्बार लगा हुआ है और उसे जॉच पड़ताल के लिए अफसरों की कमी पड़ने लग गई है।। अभी हाल में सर्वोच्च न्यायालय में सीबीआई ने साफ शब्दों में कहा कि उसके पास इतने संसाधन खासकर मानव संसाधन नहीं है कि वह मध्यप्रदेश के व्यापम घोटाले के साथ ही डेन्टल मेडिकल एडमीशन टैस्ट में हुए घोटाले की भी जॉच कर ले। उसने जो जानकारी सर्वोच्च न्यायालय को दी, वह इस प्रकार थी: इंसपैक्टर से लेकर अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक तक की उसकी कुल स्ट्ैन्थ 1264 अफसरों की है। इसमें से इस समय कुल 348 पद रिक्त हैं। इनमें 23 अतिरिक्त एसपी, 42 डिप्टी एसपी और 283 इंसपैक्टर शामिल हैं। वह इस समय 846 मामलों की जॉच कर रही है। इसके अलावा कई राज्यों में चिट फंड घोटालों के 1000 से ज्यादा मामलों की जॉच वह कर रही है।
जाहिर है कि सीबीआई के पास जॉच के लिए प्रस्तुत मामलों की भीड़ लगी हुई है और उसके पास उतने भी संसाधन नहीं हैं जो उसके लिए सरकार के अनुमन्य कर रखे हैं। तो ऐसे में पिंजरे में बंद तोता कितनी बार आखिर बोले!
उत्तर प्रदेश का व्यापम
उनके ऊपर हत्या का मुकदमा दर्ज होने के साथ गुंडा एक्ट के तहत कार्रवाई हो चुकी है। उन्हें आगरा से 6 महीने के लिए जिला बदर भी किया जा चुका है। साक्ष्यों के अभाव में आषंकाओं का लाभ देते हुए बरी कर दिया गया था। लेकिन आर0 टी0 आई0 में जब इस बारे में सूचना मांगी गई तो गलत जानकारी दी गई। यही नहीं, मैनपुरी के डी0एम0 ने उन्हें चरित्र प्रमाणपत्र दिया था। उनकी शैक्षिक योग्यता और डिग्रियों पर संदेह खड़े किए जा रहे हैं और जाति विशेष को फायदा पहुॅचाने के लिए काम करने का आरोप लग रहा है।
इस सबके बावजूद डा0 अनिल यादव उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष हैं और दो दाल से कई तरह के विवाद , आंदोलन और कोर्ट में मुकदमे उन्हें उनकी कुर्सी से डिगा नहीं पाए हैं। उनकी नियुक्ति के बाद पिछले दो साल से तमाम तरह के गंभीर किस्म के आरोप उन पर लग चुके हैं। ज्यादातर आरोप सरकारी सेवाओं में भरतियों पर लग चुके हैं। अखिलेश यादव की सरकार उन्हें न हटाने की जिद पर अड़ी हुई है इसलिए कि वे मुख्यमंत्री के चाचा, पार्टी के राष्ट्रीय प्रमुख सचिव और पुराने राज्यसभा सदस्य रामगोपाल यादव के कृपापात्र हैं। वास्तव में रामगोपाल यादव ही उन्हें लेकर आए थे और वे ही उनकी रक्षा में अपनी पूरी ताकत लगाए हुए हैं। तमाम सेवा आयोगों में इसी तरह से नियुक्तियॉ की गई हैं
सत्ता में चाहे कोई हो, सत्ता-जनित निहितार्थ राजनीति करने से कोई बाज नहीं आता। अनगिनत मामले ऐसे हैं जिनमें सत्ता में आई सरकारें एक समान आचरण करती हैं, भले ही वे किसी भी दल या दलों के समूहों की हों। किसी विद्वान ने कभी कहा था कि मौत सब कुछ बराबर कर देती है। ‘डैथ इज दि बिगैस्ट लेवलर’। पर यह तो मौत की बात है लेकिन जहॉ तक हमारे देश के राजनीतिक तंत्र का सवाल है यहॉ तो सब कुछ इसी जीवन में हो जाता है, बस कुछ अन्तराल का अंतर होता है, सत्ता-पलट हुआ नहीं कि ‘पार्टी पालिटिक्स विकम्स दि लैवलर’। यानी विपक्ष में बैठने वाले जैसे ही सत्तान्मुख होते हैं, पिछला सारा इतिहास वे भूल जाते हैं, अपने वादे-इरादे वे भूल जाते हैं।
भारतीय जनता पार्टी हमेशा इस बात के खिलाफ रही है कि राजनीतिक लोगों को राज्यपाल के पद पर बिठाया जाय। 1991 के लोकसभा चुनाव के समय अपने चुनाव घोषणा पत्र में उसने देश की जनता से वादा किया था: ‘हम राजभवन को सत्तारूढ़ दल का विस्तारित पटल (एक्सटेंशन काउंटर) नहीं बनने देंगे’। उसके पहले और बाद भी वह अपने घोषणा पत्रों में ऐसे ही इरादे जताते हुए वादे करती रही है। 1996 के लोकसभा चुनाव के समय उसने जो घोषणा पत्र जारी किया था, उस पर नजर डालिए। उसने वादा किया था कि ‘राज्यपालों की नियुक्ति से पहले इस सम्बंध में राज्य सरकारों से परामर्श किया जाएगा’। लेकिन सत्ता मिलते ही अपने सारे पुराने वादे-इरादे भुला दिए।
भाजपा ने पिछले साल सत्ता में आते ही अपने वयोवृद्ध नेताओं को राजभवनों में स्थापित करना शुरू कर दिया। जिन नेताओं को और कहीं ठौर नहीं मिल पा रही थी, उन्हें राज्यपाल बना दिया गया। प्रारम्भिक दौर में राम नाइक, कल्याण सिंह, केशरीनाथ त्रिपाठी इनमें प्रमुख थे। अब जो नए राज्यपाल नियुक्त किए गए हैं, वे न केवल भाजपा और संघ से जुड़े हुए हैं बल्कि उनकी नियुक्ति इस स्वार्थ से की गई है कि सम्बंधित राज्यों की चुनावी राजनीति में भाजपा को फायदा मिले। बिहार में, जहॉ कुछ ही महीनों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं, कानपुर के पुराने भाजपा नेता व पूर्व सांसद राम नाथ कोविद को राज्यपाल बनाया गया है। वे महादलित की श्रेणी में आते हैं और भाजपा को लगता है कि एक तरफ हाल ही में उसके पाले में आए बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री मांझी, जो दलित हैं तो दूसरी तरफ महादलित कोविद उसे चुनावी लाभ देंगे- कुछ प्रत्यक्ष रूप से तो कुछ अप्रत्यक्ष रूप से। मतलब साफ है-जो भाजपा राजभवन को सत्तारूढ़ का विस्तारित पटल नहीं बनने देने का खुला वादा जनता से करती रही है, उसने शुद्ध राजनीतिक स्वार्थ से कोविद को बिहार का राज्यपाल बना दिया।
एक सांदर्भिक बात यह है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने यह कहते हुए कि उनसे नए राज्यपाल की नियुक्ति पर केन्द्र से कोई परामर्श तक नहीं किया, उसकी आलोचना की है। बिहार के मुख्यमंत्री के इस खुले आरोप का कि उनसे नए राज्यपाल की नियुक्ति पर कोई परामर्श नहीं किया गया, भाजपा के किसी नेता या केन्द्रीय सरकार के कोई प्रतिवाद नहीं किया है। जाहिर है कि नीतीश कुमार का आरोप सही है। यानी श्री कोविद को नियुक्त करने से पूर्व बिहार की सरकार से केन्द्रीय सरकार ने कोई परामर्श नहीं किया। यह खुद भाजपा के जनता से किए जाते रहे वादे का खुला उल्लंघन है क्योंकि उसने साफ शब्दों में जनता से यह वादा किया था कि वह केन्द्र में सत्ता में आई तो ऐसी व्यवस्था लागू की जाएगी कि जिसके तहत राज्यपालों की नियुक्ति से पहले राज्य सरकारों से परामर्श किया जाएगा। भाजपा ने यह वादा सरकारिया कमीशन की रिपोर्ट में की गई सिफारिश को स्वीकार करते हुए किया था।
यह बात कम उल्लेखनीय नहीं है कि भाजपा ने पिछले साल केन्द्र की बागडोर संभालने के बाद कई राज्यपालों को उनके पदोें से हटाया था। सबसे पहले गुजरात की राज्यपाल कमला बेनीवाल को बर्खास्त कर दिया गया। उनसे नरेन्द्र मोदी की उस समय से खुन्दक थी जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे। मिजोरम के राज्यपाल अजीज कुरैषी को भी बर्खास्त कर दिया गया। वीरेन्द्र कटारिया को पोंडीचेरी के राज्यपाल पद से हटा दिया गया। प0 बंगाल के एम0के0 नारायणन, नगालैंड के अश्विनी कुमार, उत्तर प्रदेश के बी0एल0 जोशी, छत्तीसगढ़ के शेखर दत्त, गोवा के वांचू, मणिपुर के बी0के0 दुग्गल को केन्द्रीय गृह सचिव ने लाल झण्डी दिखा दी जिसके बाद उन्होंने अपने अपने इस्तीफे दे दिए। जाहिर है कि केन्द्र में सत्ता में आई भाजपा को यह लगा कि जब तक विभिन्न राज्यों में भाजपा के लोग राज्यपाल नियुक्त नहीं होंगे, तब तक वहॉ के राजभवनों को सत्तारूढ़ दल का ‘विस्तारित पटल’ बनाने में दिक्कत आएगी।
अपने उत्तर प्रदेश में भी राज्यपाल का पद चर्चा में बना हुआ है। बी0एल0 जोशी को हटाए जाने के बाद महाराष्ट्र के भाजपा नेता और पूर्व केन्द्रीय मंत्री राम नाइक उत्तर प्रदेश के राज्यपाल के रूप में लखनऊ आए तो उनकी और राज्य सरकार की तलवारबाजी आम बात हो गई। जब नाइक ने जातिगत आधार पर नियुक्तियां किए जाने से जुड़ी हुई एक टिप्पणी की तो यह तलवारबाजी खुले रण में परिवर्तित हो गई और सपा के वरिष्ठ नेता राम गोपाल यादव ने एक ऐसा बयान दे डाला , जिसमें कई आरोप राज्यपाल पर मढ़ दिए गए। उनके बयान में कई टिप्पणियॉ ऐसी थीे जो पहले कभी प्रदेश में नहीं सुनी गई थीं। मसलन रामगोपाल यादव ने राज्यपाल को भाजपा के एजेंट के रूप में काम करने के आरोप लगाते हुए यह कह दिया कि यदि कोई सपाई उनके खिलाफ अनुचित शब्द बोलता है तो हम जिम्मेदार नहीं होंगे। इसके तुरंत बाद एक केबिनेट मंत्री व सपा के वरिष्ठ नेता अम्बिका चौधरी ने कह दिया कि ‘नाइक को उसी भाषा में जवाब दिया जाएगा जो वे समझते हैं’। राम गोपाल यादव ने राज्यपाल की हैलीकाप्टर यात्राओं का जिक्र करते हुए कहा कि वे इन यात्राओं में संघ और भाजपा का प्रचार करते हैं। उनका यह भी कहना था कि हैलीकाप्टर की जितनी यात्राएं मुख्यमंत्री नहीं करते, उतनी राज्यपाल कर रहे हैं। इसके कुछ समय बाद ही एक और केबिनेट मंत्री मोहम्मद आजम खान ने यह कह दिया कि राजभवन को राजनीतिक भवन बना दिया गया है।
लाख दुखों की एक दवा- सीबीआई
एक सिलसिला अनवरत रूप से चल रहा है। चाहे कोई घटना हो, दुर्घटना हो आम लोगों का आक्रोश पुलिस और प्रशासन पर भड़क उठता है। वे जगह जगह रास्ता जाम कर देते हैं, रेलें जाम कर देते हैं, तोड़फोड़ मचा देते हैं। यहॉ तक कि पुलिस थानों में उत्पाद मचा देते हैं, पुलिस वालों की पिटाई कर देते हैं। तमाम घटनाएं-दुर्घटनाएं साक्षी है कि किस तरह लोग कानून हाथ में लेकर हिंसा पर उतारू हो जाते हैं। अनगिनत वारदातें ऐसी हैं जिनमें सड़क दुर्घटना, बलात्कार, हिरासत में मौत, पुलिस की कार्रवाई, साम्प्रदायिक तनाव, जातीय संघर्ष पर लोग हिंसक हो जाते हैं, उनका आक्रोश मिनटों में चरम पर पहुॅच जाता है। गाड़ियों में वे आग लगा देते हैं, ट्रकें, बसें, कारें, बाइक फूॅक डालते हैं। शव लेकर सड़क पर धरना लगा लेते हैं और मॉग करते हें कि जब तक दोषी लोग पकड़े नहीं जाएंगे, अंतिम संस्कार नहीं किया जाएगा। इसे निपटाने में प्रशासन के पसीने छूट जाते हैं।
वजह एक ही है। लोगों को पुलिस पर, प्रशासन पर , सरकार पर जरा भी भरोसा नहीं रहा। उन्हें लगता है कि वे जब तक आंदोलित नहीं होंगे, अशंति नहीं फैलाएंगे, बल-प्रयोग नहीं करेंगे, तब तक अपराधी पकड़े नहीं जाएंगे, तब तक प्रशासन उनकी मदद को नहीं आएगा। उन्हें लगता है ऊपर बैठे अफसरों तक अपनी बात पहुॅचानी हो, अपनी बात मनवानी हो, न्याय मांगना हो, अत्याचार के खिलाफ आवाज उठानी हो तो एक ही तरीका है, आंदोलन करो और फिर चाहे वो हिंसक आंदोलन ही क्यों न हो। वे जानते हैं कि चुप रहे तो शासन-प्रशासन, पुलिस कुछ नहीं करेगी। ऐसा इसलिए कि प्रशासन निश्पक्ष होकर त्वरित गति से काईवाई नहीं करता, अपनी सामान्य ड्यूटी वह तभी करता है, अपने सामान्य कर्तव्य तभी निभाता है जब उसके सिर पर कोई सवार नहीं होता।
इसका एक बड़ा रूप यह है कि जब ऐसी घटना-दुर्घटना होती है तो स्थानीय से लेकर राज्य स्तर तक की पुलिस पर लोग भरोसा नहीं जताते और सीधे केन्द्रीय जॉच ब्यूरो यानी सी0बी0आई0 की जॉच की मांग उठाते हैं। सी0बी0आई0 हर मर्ज की दवा है। मजे की बात यह है कि विपक्ष में जो भी दल होता है, वह सी0बी0आई0 की जॉच की मांग करता है– वही विपक्ष जो कहता रहता है कि सी0बी0आई0 तो केन्द्रीय सरकार की कठपुतली है, पिंजरे में बंद तोता है, वह भी यह मांग उठाता है। ऐसा करके वह एक तो राज्य सरकार की मशीनरी के सामने प्रश्नचिन्ह खड़ा कर देता है, उसकी विश्वासनीयता, निष्पक्षता, ईमानदारी, असंदिग्ध क्षमता को सीधे से चुनौती देता है और फिर केन्द्रीय जॉच ब्यूरो के हस्तक्षेप की मॉग करता है। सी0बी0आई0 जॉच तभी संभव हो सकती है जब राज्य सरकार इसकी सिफारिश करे। लेकिन राज्य सरकारें उसी जॉच की मॉग मानती हैं, जो उन्हें सुविधाजनक लगती है। यह सिलसिला बिना रुके चलता है। जो सक्षम हैं, वे हाई कोर्ट की शरण लेते हैं और जब हाई कोर्ट सरकार के खिलाफ कोई फैसला दे देता है तो सरकार सुप्रीम कोर्ट की तरफ दौड़ लगा देती है।
सीबीआई और आकाशवाणी दरअसल दो ऐसे सरकार तंत्र हैं, जो हर सत्तारूढ़ दल को प्यारे होते हैं लेकिन केवल तब तक जब तक कि वह सत्ता में रहता है। जैसे ही वह विपक्ष में गया, उस पर दूसरे सत्तारूढ़ हुए दल का पक्षधर होने का आरोप मढ़ने लगता है। इनके दुरुपयोग का आरोप हर विपक्षी दल करता है। इतिहास इस बात का साक्षी भी है कि इन दोनों ही तंत्रों का जमकर दुरुपयोग होता है। सीबीआई की जॉच की मांग देश के हर कोने से लगभग हर समय ही उठती रहती है। पहले एक जमाना था जब तमाम मामलों की न्यायिक जॉचों की मांगें ज्यादा उठती थी थी लेकिन जिस तरह तमाम न्यायिक आयोगों ने अपनी जॉच पूरी करने में सालों का समय लेना शुरू किया और आम तौर पर वे सत्तारूढ़ पार्टी के हितैशी बनने लगे, यह सिलसिला बंद होने लग गया। सीबीआई की जॉच भी वैसे तो पुलिस के अफसर ही करते हैं लेकिन आम तौर पर चूॅकि वे राज्य सरकारों के सीधे नियंत्रण में नहीं होते इसलिए उनकी निष्पक्षता की संभावना कहीं ज्यादा होती है।
नतीजा यह है कि सीबीआई के पास जॉचों का अम्बार लगा हुआ है और उसे जॉच पड़ताल के लिए अफसरों की कमी पड़ने लग गई है।। अभी हाल में सर्वोच्च न्यायालय में सीबीआई ने साफ शब्दों में कहा कि उसके पास इतने संसाधन खासकर मानव संसाधन नहीं है कि वह मध्यप्रदेश के व्यापम घोटाले के साथ ही डेन्टल मेडिकल एडमीशन टैस्ट में हुए घोटाले की भी जॉच कर ले। उसने जो जानकारी सर्वोच्च न्यायालय को दी, वह इस प्रकार थी: इंसपैक्टर से लेकर अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक तक की उसकी कुल स्ट्ैन्थ 1264 अफसरों की है। इसमें से इस समय कुल 348 पद रिक्त हैं। इनमें 23 अतिरिक्त एसपी, 42 डिप्टी एसपी और 283 इंसपैक्टर शामिल हैं। वह इस समय 846 मामलों की जॉच कर रही है। इसके अलावा कई राज्यों में चिट फंड घोटालों के 1000 से ज्यादा मामलों की जॉच वह कर रही है।
जाहिर है कि सीबीआई के पास जॉच के लिए प्रस्तुत मामलों की भीड़ लगी हुई है और उसके पास उतने भी संसाधन नहीं हैं जो उसके लिए सरकार के अनुमन्य कर रखे हैं। तो ऐसे में पिंजरे में बंद तोता कितनी बार आखिर बोले!
उत्तर प्रदेश का व्यापम
उनके ऊपर हत्या का मुकदमा दर्ज होने के साथ गुंडा एक्ट के तहत कार्रवाई हो चुकी है। उन्हें आगरा से 6 महीने के लिए जिला बदर भी किया जा चुका है। साक्ष्यों के अभाव में आषंकाओं का लाभ देते हुए बरी कर दिया गया था। लेकिन आर0 टी0 आई0 में जब इस बारे में सूचना मांगी गई तो गलत जानकारी दी गई। यही नहीं, मैनपुरी के डी0एम0 ने उन्हें चरित्र प्रमाणपत्र दिया था। उनकी शैक्षिक योग्यता और डिग्रियों पर संदेह खड़े किए जा रहे हैं और जाति विशेष को फायदा पहुॅचाने के लिए काम करने का आरोप लग रहा है।
इस सबके बावजूद डा0 अनिल यादव उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष हैं और दो दाल से कई तरह के विवाद , आंदोलन और कोर्ट में मुकदमे उन्हें उनकी कुर्सी से डिगा नहीं पाए हैं। उनकी नियुक्ति के बाद पिछले दो साल से तमाम तरह के गंभीर किस्म के आरोप उन पर लग चुके हैं। ज्यादातर आरोप सरकारी सेवाओं में भरतियों पर लग चुके हैं। अखिलेश यादव की सरकार उन्हें न हटाने की जिद पर अड़ी हुई है इसलिए कि वे मुख्यमंत्री के चाचा, पार्टी के राष्ट्रीय प्रमुख सचिव और पुराने राज्यसभा सदस्य रामगोपाल यादव के कृपापात्र हैं। वास्तव में रामगोपाल यादव ही उन्हें लेकर आए थे और वे ही उनकी रक्षा में अपनी पूरी ताकत लगाए हुए हैं। तमाम सेवा आयोगों में इसी तरह से नियुक्तियॉ की गई हैं