सत्ता के शिखरों से ये कैसे संदेशे आते हैं
नवीन जोशी
समाजवादी नेता जनेश्वर मिश्र की जयंती के मौके पर सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव ने अपने पुत्र और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव तथा उनके मंत्रियों की ‘क्लास’ ली, जैसा कि वे अक्सर करते रहे हैं। उन्होंने मुख्यमंत्री से कहा कि आपने लोकसभा चुनाव में हमारी बुरी पराजय के कारणों की समीक्षा नहीं की, मैंने कहा था कि समीक्षा की जाए,(वास्तव में उन्होंने यह कहा कि हम सिर्फ पांच सांसद जीते और वह भी एक ही परिवार के, जिस पर अक्सर दिल्ली में हम पर तंज भी किया जाता है) उन्होंने यह भी कहा कि इस सरकार के ज़्यादातर मंत्री अगला चुनाव हार जाएंगे क्योंकि वे जनता के बीच नहीं जा रहे, सिर्फ अफसरों को भाषण सुनाते हैं।
लेकिन खुद मुलायम और मुख्यमंत्री अखिलेश क्या यह ध्यान देते हैं कि जनता उनके कई फैसलों के बारे में क्या सोच रही है? वे फैसले लेते वक्त क्या यह ध्यान देते हैं कि जनता पर उन निर्णयों का कैसा असर पड़ेगा? जैसे जनेश्वर मिश्र जयंती के मौके पर ही मुलायम सिंह ने सरकार की अच्छी छवि बनाने की बात की और थोड़ी ही देर में समाजवाद और जनेश्वर मिश्र पर बोलने के लिए बाहुबली अतीक अहमद को मंच पर बुला लिया। अतीक अहमद ने समाजवाद का कितना अध्ययन किया है यह तो किसी को नहीं पता लेकिन अतीक अहमद और उनकी ख्याति(?) के बारे में सभी बहुत अच्छी तरह जानते हैं वैसे, राजनीति में अपराधियों के बढ़ते दखल पर मुलायम का शुरू से रुख दूसरा ही रहा है। वे कहते आए हैं कि अपराधियों को राजनीति में आकर सुधरने का मौका दिया जाना चाहिए और यह कि ‘नेताओं’ के खिलाफ ज़्यादातर आपराधिक मामले राजनैतिक विरोध के चलते दर्ज़ करा दिए जाते हैं।
खैर, प्रदेश की वर्तमान सरकार के कुछ फैसले देखते हैं। इन दिनों नोएडा विकास प्राधिकरण के निलम्बित मुख्य अभियंता यादव सिंह के कारनामों की देश भर के मीडिया में खूब चर्चा है, आयकर विभाग ने उनके और उनके सम्बंधियों के यहां छापे डाल कर अकूत काली कमाई के दस्तावेज़ और नकद रकम बरामद की, एक पी आई एल पर उच्च न्यायालय ने यादव सिंह के पूरे प्रकरण की जांच सीबीआई से कराने का निर्देश दिया लेकिन अखिलेश सरकार इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई। जाहिर है कि वह यादव सिंह के खिलाफ सीबीआई जांच नहीं चाहती। क्यों नहीं चाहती, यह अलग विषय है लेकिन मीडिया में ही नहीं, आम जनता में भी चर्चा है कि अखिलेश सरकार एक भ्रष्ट इंजीनियर को बचाने में इतनी दिलचस्पी क्यों ले रही है। सुप्रीम कोर्ट ने भी राज्य सरकार के वकील से यही सवाल किया कि यादव सिंह स्वयं सुप्रीम कोर्ट में अपील करें, यह तो समझ में आता है लेकिन राज्य सरकार सीबीआई जांच रुकवाने के लिए इतनी सक्रिय क्यों है? सर्वोच्च अदालत ने सीबीआई जांच के हाईकोर्ट के फैसले को सही ठहराया. ऐसा नहीं कि प्रदेश सरकार यादव सिंह को पाक-साफ मानती हो. उसने खुद उसे निलम्बित किया और जांच भी बैठाई लेकिन सीबीआई जांच पर उसे घोर आपत्ति है। सरकार के फैसले से जनता में प्रदेश सरकार की क्या छवि बन रही है?
हैरत तब और बढ़ गई जब मुलायम सिंह ने सार्वजनिक तौर पर यह कह डाला कि केंद्र सरकार सीबीआई का इस्तेमाल कर प्रदेश सरकार को बेवजह परेशान कर रही है। उन्होंने यादव सिंह प्रकरण का ज़िक्र नहीं किया लेकिन उनका इशारा उसी तरफ था। वे यहां तक कह गए कि जैसे कांग्रेस सरकार ने मुझे और लालू यादव को सीबीआई जांच के बहाने बहुत तंग किया वैसे ही अब मोदी सरकार भी कर रही है। मुलायम जो कह गए क्या जनता ने उस पर भरोसा कर लिया या वह उनके बयान की चीर-फाड़ भी कर रही है? इस बयान के चंद रोज बाद ही लोक सभा में मुलायम सिंह का रवैया अचानक बदल गया. पहले वे विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का इस्तीफा मांग रही कांग्रेस के लोक सभा में जारी हंगामे का साथ दे रहे थे। फिर अचानक उन्होंने कह दिया कि लोक सभा की कार्यवाही सुचारू रूप से चलनी चाहिए और विदेश मंत्री को अपनी बात सदन के सामने रखने का मौका दिया जाना चाहिए. उनके इस अचानक बदले रुख से कांग्रेस ही नहीं सभी दल अचम्भित रह गए। उसी दिन पत्रकारों ने अरुण जेटली से मुलायम के रुख बदलने पर सवाल किया तो उनके जवाब ने चौंकने का एक और मौका दे दिया कि ‘यादव सिंह का मुलायम सिंह जी से क्या रिश्ता!’ अब अगर मीडिया में ऐसी चर्चा हो और जनता भी कयास लगाए कि क्या सपा और भाजपा में कोई खिचड़ी पक रही है तो ज़िम्मेदारी किसकी बनती है? धुंआ देखकर लोग कहीं न कहीं चिंगारी की कल्पना तो करेंगे ही।
एक और ताज़ा मामला प्रदेश में लोकायुक्त की नियुक्ति का है जिसके लिए एक प्रक्रिया निर्धारित है। सरकार को इस पद के उपयुक्त व्यक्तियों के नामों का एक पैनल बनाना होता है। मुख्यमंत्री, विधान सभा में नेता-विपक्ष और उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की बैठक में पैनल में से एक नाम सहमति से तय करना होता है। यह नाम राज्यपाल के पास मंजूरी के लिए भेजा जाता है और उनकी सहमति मिल जाने पर लोकायुक्त की नियुक्ति की अधिसूचना जारी की जाती है. यह पारदर्शी प्रक्रिया इसलिए तय की गई कि लोकायुक्त जैसे संवैधानिक पद पर निष्पक्ष और ज़िम्मेदार व्यक्ति ही तैनात हो और कोई भी सरकार इसमें अपनी मनमानी नहीं कर सके। लोकायुक्त को सरकार और मंत्रियों तक के खिलाफ जांच करनी पड़ती है। सरकार का कृपा पात्र व्यक्ति लोकायुक्त बन गया तो वह क्या और कैसी जांच करेगा? अखिलेश सरकार जस्टिस (रिटायर) रवींद्र सिंह यादव को लोकायुक्त बनाना चाहती है। पता नहीं नामों का पैनल बना या नहीं और उस पर विचार के लिए बैठक हुई या नहीं लेकिन यह बात सामने आई कि सरकार के सुझाए इस नाम पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने आपत्ति व्यक्त कर दी। कायदे से इस आपत्ति के बाद नए नामों पर तीनों की बैठक में विचार होना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं करके सरकार ने रवीन्द्र सिंह को ही लोकायुक्त बनाने का प्रस्ताव कैबिनेट की बैठक में रखा और पास करा लिया। कैबिनेट की मंजूरी के साथ यह फाइल राज्यपाल की स्वीकृति के लिए राजभवन भेज दी गई। राज्यपाल राम नाइक ने रवीन्द्र सिंह के नाम पर नेता विपक्ष और मुख्य न्यायाधीश की सहमति नहीं पाकर फाइल सरकार को वापस करते हुए वह दस्तावेज़ मांग लिए जिसमें मुख्य न्यायाधीश और नेता विपक्ष की सहमति लेने की प्रक्रिया दर्ज़ हो।
अब यह मामला खूब उछल रहा है और चर्चा है कि सरकार चूंकि रवींद्र सिंह को ही लोकायुक्त बनाना चाहती है इसलिए उसने नियुक्ति प्रक्रिया से मुख्य न्यायाधीश और नेता विपक्ष की भूमिका खुद ही खत्म करते हुए कैबिनेट से प्रस्ताव पारित करा लिया. संविधान सम्मत प्रक्रिया का पालन नहीं करके और अपनी पसंद के ही व्यक्ति को, जिस पर मुख्य न्यायाधीश आपत्ति जता चुके हैं, लोकायुक्त बनाने की ज़िद से सपा सरकार क्या संदेश देना चाहती है? इससे सरकार की कैसी छवि बन रही है और क्या यह आगामी चुनाव जीतने में सहायक होने वाली है?
गौर करने वाली बात यह भी है कि उत्तर प्रदेश में नए लोकायुक्त की तैनाती में बहुत विलम्ब हो चुका है और यह मामला सुप्रीमकोर्ट तक गया्र। देश की सर्वोच्च अदालत ने लोकायुक्त की नियुक्ति प्रक्रिया ज़ल्दी पूरी करने का निर्देश सरकार को दिया। तब ही सरकार ने यह पहल की है। नियुक्ति प्रक्रिया में फेरबदल का मामला भी अगर बड़ी अदालत पहुंचा तो उसका रुख क्या होगा और तब सरकार की कैसी किरकिरी होगी, क्या इस पर मुलायम सिंह अपने पुत्र की सरकार को सचेत नहीं करेंगे?
छोटे-छोटे मामलों से निकलते बड़े-बड़े संदेश दूर तक जाते हैं. शाहजहांपुर के पत्रकार जितेंद्र सिंह की आठ जून को ‘हत्या’ या ‘आत्मदाह’ का मामला ले लीजिए. जितेंद्र सिंह के परिवार ने आरोप लगाया कि राज्य मंत्री राम मूर्ति वर्मा के कहने पर पुलिस वालों ने जितेंद्र को रात में घर में घुस कर जिंदा जला दिया क्योंकि जितेंद्र ने मंत्री जी के अवैध खनन और जमीनों पर अवैध कब्जों की पोल खोली थी। वर्मा इससे परेशान थे और पत्रकार को धमकी भी दे चुके थे। जितेंद्र के बेटे राघवेंद्र ने राज्य मंत्री वर्मा और पांच पुलिस वालों के खिलाफ हत्या की नामजद रिपोर्ट लिखवाई। एक महिला ने वारदात का चश्मदीद होना भी कबूला। मामला खूब उछलना ही था। राज्यमंत्री के इस्तीफे और गिरफ्तारी की मांग होने लगी। लेकिन ज़ल्दी ही चौंकाने वाले पलट बयान सामने आने लगे. सबसे पहले ‘चश्मदीद गवाह’ महिला ने इनकार कर दिया कि उसने ऐसा कुछ देखा. वह तो घटना के समय वहां थी ही नहीं! यह भी कहा जाने लगा कि पत्रकार जितेंद्र ने खुद घर में पेट्रोल लाकर रखा था और किसी से कहा भी था कि वह वर्मा को फंसाने के लिए आत्मदाह कर लेगा। इसके चंद रोज बाद पत्रकार-पुत्र की मुख्यमंत्री से मुलाकात कराई गई, 30 लाख रुपए मुआवजे के साथ सरकारी नौकरी देने की घोषणा हुई। इस पर उसने कह दिया कि उसे किसी मंत्री या सरकार से कोई शिकायत नहीं है। राज्यमंत्री के खिलाफ दर्ज़ रिपोर्ट वह वापस ले लेगा.
यह सब क्या है? पत्रकार की ‘मौत’ का सच कभी सामने नहीं आएगा लेकिन इस पूरे प्रकरण से क्या साबित हो रहा है? सरकार की कैसी छवि बन रही है? सोशल साइटों पर क्या-क्या टिप्पणियां की गईं? सोने में सुहागा यह कि राज्यमंत्री के खिलाफ दर्ज़ पत्रकार की हत्या की एफ आई आर किन हालात में वापस ली गई, इसकी सीबीआई जांच की मांग करते हुए एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई, जिसे स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर अदालत ने विचारार्थ मंजूर कर लिया। अगर सरकार मामले को दबाना चाहती थी तो वह और भी उछल गया तथा अभी और उछलने वाला है। यहां यह भी याद दिलाना प्रासंगिक होगा कि इसी राज्यमंत्री के खिलाफ सक्रिय होने के कारण मुलायम सिंह ने आई जी अमिताभ ठाकुर को फोन पर धमकाया था.। वह ‘ऑडियो’ भी खूब वाइरल हुआ।
उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष अनिल यादव की दो साल पहले हुई नियुक्ति भी विवादास्पद बनी हुई है। उन पर संगीन आपराधिक मामले दर्ज़ हैं, इस शिकायत के साथ इलाहाबाद उच्च न्यायालय में मुकदमा दर्ज़ है जिस पर अदालत ने सरकार से जवाब तलब किया है। यह भी पूछा है कि उनकी नियुक्ति किस प्रक्रिया के तहत की गई। यह किस्सा इधर और भी रोचक इसलिए हो गया कि सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी ही के विधान परिषद सदस्य देवेंद्र प्रताप सिंह उ.प्र. लोक सेवा आयोग द्वारा पिछले दो साल में की गई नियुक्तियों में हुए भ्रष्टाचार के कागजात लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय पहुंच गए हैं। उनकी मांग है कि इसकी सीबीआई जांच हो।तो, यह समाजवादी पार्टी के नेता हैं जिसे दो साल बाद नरेंद्र मोदी-अमित शाह के नेतृत्व वाली भाजपा के खिलाफ चुनावी संग्राम में उतरना है. फिलहाल हम मायावती की बसपा का जिक्र जान बूझकर नहीं कर रहे।