जय प्रकाश मानस
बहुत दिनों के बाद आज छत पर पहुँचा तो पाया कि बाक़ी पौधे तो शांत और गंभीर हैं लेकिन शमी की नन्हीं-नन्ही डालियाँ जैसे झूम रही हैं ।
मैं शमी के गमले के पास जा बैठता हूँ । डालियाँ अब कुछ और गति से झूम रही हैं या हवा ही उन्हें झूमा रही है । शायद शमी मुझसे कुछ बतियाना चाहती हो।
जैसे आज मुझे अपनी पुराकथा सुनाना चाहती हो, जैसे मैं उसे ही सुनना चाहता हूँ :
“मानस, महाभारत काल की बात है यह…अपने 12 वर्ष के वनवास के बाद एक साल के अज्ञातवास में पांडवों ने अपने सारे अस्त्र शस्त्र मुझ पर ही छुपाये थे, जिसमें अर्जुन का गांडीव धनुष भी था ।
और यह देखो – कुरुक्षेत्र में कौरवों के साथ युद्ध के लिये जाने से पहले भी पांडव पता नहीं क्यों मुझे नमन कर रहे हैं ।
शायद उन्हें विश्वास हो कि मैं शक्ति और विजय देने वाला शुभ वृक्ष हूँ । ध्यान से सुनो तो ज़रा…कहीं से गूँज रहा है क्या :
शमी शमयते पापम् शमी शत्रुविनाशिनी ।
अर्जुनस्य धनुर्धारी रामस्य प्रियदर्शिनी ॥
करिष्यमाणयात्राया यथाकालम् सुखम् मया ।
तत्रनिर्विघ्नकर्त्रीत्वं भव श्रीरामपूजिता ॥”
मैं शमी से विनम्र भाव से पूछता हूँ – “मैंने सुना है, कालिदास ने भी कभी आपके सानिध्य में ज्ञान और सृजन के लिए कठिन साधना की थी ?”
शमी की डालियाँ मुझे स्पर्श करती हुई ऐसे झूम उठती हैं जैसे वे ‘हाँ जी’ ‘हाँ जी’ कहना चाहती हों !
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(डायरी ‘पढ़ते-पढ़ते : लिखते-लिखते से)