गृह बंदी की लक्ष्मण रेखा के भीतर धधकते सवाल
स्तम्भ: पूरा देश लॉक डाउन पर है।प्रधानमंत्री की भावुक और सख्ती समिश्रित अपील का असर 135 करोड़ लोगों पर स्पष्ट नजर आ रहा है लेकिन गृहबन्दी की लक्ष्मन रेखा में कुछ सवाल बहुत ही वेदना के साथ कसमसा रहे है। भारत में करोड़ों लोग असंगठित क्षेत्र में है जो रोज सड़क पर खड़े होकर काम की तलाश करते है ताकि शांम को उनके घरों में चूल्हे की प्रदीप्ति हो सके। दिल्ली के बस अड्डों पर उमड़ी दिहाड़ी मजदूरों की भीड़ ने लॉक डाउन के मूल मन्तव्य को ही बेमानी बना कर रख दिया । देश भर में राशन,पांच सौ की जनधन राशि औऱ भोजन के लिए उमड़ती भीड़ ने भारत के खोखले विकासगान की कर्कशता को ही अभिव्यक्त किया है।देश के गांव,कस्बों में भी अफरातफरी औऱ भय का माहौल है ।
3 मई तक तक इस लॉक डाउन को केवल डंडे के जोर पर कायम रखना भी एक बड़ा संकट है। जिस तरह से दिहाड़ी मजदूरों की भीड़ शहरों में जुट रही है उसने गृह बन्दी पर कुछ व्यवहारिक सवाल तो खड़े कर ही दिए है।बेहतर होता प्रधानमंत्री।मोदी देश के सबसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री है उनकी छवि औऱ भरोसे की डोर अपने समकालीन नेताओं में सर्वोच्च है। इसलिये बेहतर होगा देश के खजाने के संग कारपोरेट जगत पर भी वह बाध्यकारी सीएसआर लागू कर दिए जाएं। इस बीच संकट में बुनियादी स्वास्थ्यगत ढांचे में सुधार तो अभी संभव नही है और प्रधानमंत्री खुद कह चुके कि इटली,चीन,स्पेन,ईरान या अन्य विकसित देशों की तरह भारत मे स्तरीय बुनियादी ढांचा नही है। लेकिन क्या 21 दिनी लॉक डाउन की चुनौतीयां लोकधन के युक्तियुक्त मरहम की आवश्यकता को स्वयंसिद्ध नही कर रहीं है।
15 हजार करोड़ के कोरोना ऒर 1.70लाख के नागरिकमदद प्रावधान के उलट हमें यह नही भूलना चाहिये कि सरकार ने 1.5लाख करोड़ कारपोरेट घरानों के टैक्स में माफ किये है।बड़े पूंजीपतियों का 7 लाख करोड़ का बैंक कर्जा पिछली सरकारों ने भी एनपीए किया है। एक तरह से यह भी माफी ही है।हाल ही में यस बैंक को बचाने के लिए स्टेट बैंक और एलआईसी के फंड को लगाया गया है।यह लोकधन इसी देश के संसाधनों से पैदा हुआ था। इस तरह की सरकारी अनुकम्पा का सिलसिला नया नही है।
वस्तुतः 1991 से जिस आर्थिक उदारीकरण की राह हमारी राजव्यवस्था ने पकड़ी है उसकी बुनियाद ही कारपोरेट की बीन बजाती है। जिस विकास का शोर हम सुन रहे है असल मे वह कुछ घरानों का विकास ही है।इसलिए सवाल बुनियादी रूप से यह है की जिस तरह से सभी सरकारें कारपोरेट के साथ स्थायी सद्भावना आधारित नीतियां अपनाती रहीं है तो कोरोना संकट पर यह कंजूसी क्यों की जा रही है? क्या सरकार के स्तर पर देश के बड़े पूंजीपतियों,मठ मंदिरों,मदरसों,चर्च,गुरुद्वारा पर कुछ बाध्यकारी सामाजिक दायित्व निर्धारित नहीं किये जाने चाहिये।
प्रधानमंत्री ने कहा कि 21 दिन की लक्ष्मण रेखा का पालन न करने पर देश 21 साल पीछे जा सकता है।निःसन्देह यह सत्य ही है और हर भारतीय को इसकी पालना करनी ही होगी।लेकिन यह भी तथ्य है कि गरीबों को 21 दिन बगैर सरकारी मदद के काटना असंभव है, क्योंकि हमारा सामाजिक आर्थिक ढाँचा गरीब आदमी के लिए कोई स्पेस देता ही नही है। सरकार की अफसरशाही के अजगरफ़ान्स में फंसी 1.70 लाख करोड की राहत समय पर आ जाये यह भारत में एक नया अजूबा होगा। आज करोडों लोग कल की रोटी के लिए चिंतित है कस्बों और गांवों में खाने पीने की चीजें आसमान के भाव मिल रही है।
मैदानी स्तर पर युद्धकालीन अफरातफरी औऱ भय है।यह स्थिति भी कोरोना वायरस की तरह खतरनाक है।आज सही मायनों में जनकल्याणकारी राजव्यवस्था की परीक्षा की घड़ी भी आ गई है । विकास के नाम पर जिस क्रोनी केपेटिलिज्म का बंधक हमारा तन्त्र बना हुआ है उससे मुक्त होकर खड़े होने का इससे उपयुक्त समय कोई औऱ नही हो सकता है। 21 साल पीछे जाने से 15 हजार करोड़ या 1.70 लाख के सरकारी घोषणा के प्रावधान रोक नही सकते है ।इसलिए सख्ती के साथ सरकार को कारपोरेट मोहपाश से बाहर निकलने की आवश्यकता है।आज मदद की जरूरत दवा के समानांतर रोटी और आर्थिक सुरक्षा की भी है इसे समझना ही होगा।
लक्ष्मण रेखा के अंदर प्रधानमंत्री के आदेश पर सारा देश रहने के लिए तैयार है लेकिन रेखा के अंदर की बिषम परिस्थितियों को भी ईमानदारी से स्वीकार करना सरकार का नैतिक दायित्व है।करोडों लोग आज सड़कों पर भूखे हैं।बच्चों के लिए दूध नही है।अगले कुछ दिनों बाद न उनके पास धन होगा न बाजारों में जरूरत का सामान जबकि देश के 9 अमीरों के पास आज देश की कुल सम्पत्ति का 77 फीसदी मौजूद है।यह धन संपदा आखिर किसके दोहन पर जुटाई गई है?जिन लोगों की गृह बन्दी के लिए निषिद्ध किया गया है उनके जीवित रहने के लिए लॉक डाउन (जिसके बढ़ने की पूरी संभावना है)अवधि में 6 लाख करोड़ की राशि की जरूरत होगी है। ,यह रकम कहां से आयेगी?क्या 1.70 लाख करोड़ की राशि नाकाफी और भविष्य के लिए चिंतित करने वाली नही है।ऑक्सफेम इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार 15 करोड़ भारतीय 2004 से ही कर्ज में फंसे है ये लोग कारपोरेट माफी के दायरे में भी नही आते है।इसलिए एक पक्ष यह भी है कि सरकार की ईमानदारी और क्रोनी केपेटिलिज्म से दूरी की परीक्षा भी यह संकट लेने वाला है।बेहतर होगा सरकार स्वास्थ्य सुविधाओं के समानांतर आर्थिक सुरक्षा का भरोसा भी आम आदमी के मन मस्तिष्क में निर्मित करे।सम्मिलित रुप से जो पाप हमारी राजव्यवस्था ने 1991 से गढे है आज उनकी परिणति सामने आ रही है।
70साल में 119 अरबपति हमने पैदा किये और देश की कुल सम्पति का 77 फीसदी इनके नाम कर दिया।ऑक्सफेम इंडिया के सीईओ अभिताभ बेहर के अध्ययन में बताया गया है कि 2022 तक भारत मे 70 नए करोड़पति रोज पैदा होंगे। देश के 60 फीसदी लोगों पर अगले एक दशक में केवल 4.8फीसदी सम्पति ही होगी।भारत में स्वास्थ्य,पेयजल,स्वच्छता पर कुल खर्च 208166 करोड़ है वहीं अकेले मुकेश अंबानी की दौलत 2.8लाख करोड़ थी 2019 में।जाहिर है चंद घरानों तक सीमित राजव्यवस्था ने एक ऐसे भारत का निर्माण किया है जो 21 दिन बगैर श्रम या पसीना बहाए जीवित नही रह सकता है।कारपोरेट परस्ती के समानांतर धर्म के कारोबार ने भी एक शर्मनाक पूंजी जुटाई है।देश के ख्यातिनाम मंदिरों, मठों,डेरों,कथावाचकों की कुल सम्पति लगभग 10 लाख करोड़ है।
पद्मनाभन मन्दिर के अकूत खजाने सबने देखे है।मस्जिद, चर्च औऱ गुरुद्वारों की अथाह दौलत भी आंकड़ो में कम नही है। सउदी वहाबियों ,पीएफआई,और मुस्लिम ब्रदरहुड की अपार दौलत भी स्लीपर सेलों को किस माध्यम से आ जा रही है ये भी किसी से नही छिपा है। शाहीन बाग के प्रबंधक आज कहीं दिख नही रहे है। जामिया, जेएनयू औऱ अलीगढ़ में जिन्ना की आजादी मांगने वालो के फाइनेंसर भी खोजे जाने चाहिये।वेटिकन के डॉलर में लिपटी मिशनरीज के खातों को भी दुःसाहस के साथ खंगालने का समय है।सवाल यह है कि आखिर ये दौलत किस प्रयोजन के लिए जुटाई गई है।मोदी देश के सबसे ताकतवर, लोकप्रिय औऱ फिलवक्त विश्वसनीय नेता है और उन्हें एक सर्जीकल स्ट्राइक इन दोनों तबकों पर करने की आवश्यकता है जो भारत को सोने की चिड़िया की जगह हंगर इंडेक्स में शीर्ष पर बनाने में लगे है।ऐसी सर्जिकल स्ट्राइक मोदी जी को भारत का लोकतांत्रिक तरीके से शी जिनपिंग और पुतिन बना देगी यह भी तय है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है।)