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कोरोना का आर्थिक दंश

अशोक पाण्डेय

स्तम्भ: कोरोना महामारी के कारण उपजी आर्थिक मंदी अब किसी से छिपी नहीं है। विश्व के आर्थिक रूप से संपन्न देशों को इस विकराल समस्या ने कैसे घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया है? अमेरिका, चीन, फ्रांस और जर्मनी आदि विकसित राष्ट्र इसका जीता जागता उदाहरण है। संयुक्त राष्ट्र के निकाय विश्व खाद्य कार्यक्रम ने आगाह किया है कि दुनिया ‘भुखमरी की महामारी’ के कगार पर खड़ी है और अगर वक्त रहते जरूरी कदम नहीं उठाए गए कुछ ही महीने में भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या में भारी इजाफा हो सकता है।

विश्व खाद्य कार्यक्रम के कार्यकारी निदेशक डेविड बीसले

विश्व खाद्य कार्यक्रम के कार्यकारी निदेशक डेविड बीस्ले ने कहा ‘अंतरराष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा अनुरक्षण: संघर्ष से उत्पन्न भूख से प्रभावित आम नागरिकों की सुरक्षा’ विषय पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सत्र के दौरान कहा, ‘एक ओर हम कोविड-19 महामारी से लड़ रहे हैं वहीं, दूसरी ओर भुखमरी की महामारी के मुहाने पर भी आ पहुंचे हैं।’ उन्होंने कहा, ‘अभी अकाल नहीं पड़ा है। लेकिन मैं आपको आगाह करना चाहूंगा कि अब अगर हमने तैयारी नहीं की और कदम नहीं उठाए तो आगामी कुछ ही महीनों में हमें इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। इससे निपटने के लिये हमें फंड की कमी और कारोबारी बाधाओं को दूर करने समेत कई कदम उठाने होंगे।

बीस्ले ने कहा कि कोविड-19 के चलते दुनिया वैश्विक स्वास्थ्य महामारी ही नहीं बल्कि वैश्विक मानवीय सकंट का भी सामना कर रही है। उन्होंने कहा कि संघर्षरत देशों में रहने वाले लाखों नागरिक, जिनमें कई महिलाएं और बच्चे भी शामिल हैं, भुखमरी के कगार पर हैं। बीस्ले ने कहा कि पूरी दुनिया में हर रात 82 करोड़ 10 लाख लोग भूखे पेट सोते हैं। इसके अलावा 13 करोड़ 50 लाख लोग भुखमरी या उससे भी बुरी स्थिति का सामना कर रहे हैं। उन्होंने कहा, ‘विश्व खाद्य कार्यक्रम के विश्लेषण में पता चला है कि 2020 के अंत तक 13 करोड़ और लोग भुखमरी की कगार पर पहुंच सकते हैं। इस तरह भुखमरी का सामना कर लोगों की कुल संख्या बढ़कर 26 करोड़ 50 लाख तक पहुंच सकती है।’

हाल ही में कुछ भारतीय विशेषज्ञों और अर्थशास्त्रियों ने भी कोरोना वायरस के चलते देश में गरीबी और भुखमरी का खतरा बढ़ने का खतरे पर चिंता जताई थी। उनका मानना है कि अगर सही तरीके से भारत के लोगों को भोजन नहीं मुहैया कराया जाता है और दिहाड़ी मजदूरों की बढ़ती समस्याओं का समाधान नहीं किया जाता है तो देश में गरीबी बढ़ने और भुखमरी का खतरा बढ़ सकता है। प्रख्यात अर्थशास्त्री और नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन, पूर्व आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन और नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखे अपने लेख में कहा है कि ये बात ठीक है कि सरकार को समझदारी से पैसे खर्च करना चाहिए लेकिन ऐसा न हो कि इस चक्कर में जरूरतमंदों को राशन ही न मिल पाए।

हाल ही में संयुक्त राष्ट्र के श्रम निकाय ने चेतावनी दी थी कि कोरोना वायरस संकट के कारण भारत में अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले लगभग 40 करोड़ लोग गरीबी में फंस सकते हैं और अनुमान है कि इस साल दुनिया भर में 19.5 करोड़ लोगों की पूर्णकालिक नौकरी छूट सकती है।

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) ने अपनी रिपोर्ट ‘आईएलओ निगरानी- दूसरा संस्करण: कोविड-19 और वैश्विक कामकाज’ में कोरोना वायरस संकट को दूसरे विश्व युद्ध के बाद सबसे भयानक संकट बताया है। छूटती नौकरियों, घटते वेतन तथा आमदनी, अपने गांव-घर की ओर लौटते प्रवासी मजदूरों की बेबसी के बीच इस मुश्किल घड़ी में आगे का रास्ता कठिन है। यह समझने के लिए किसी विशेषज्ञ की जरूरत नहीं है कि जब महीने भर से भी अधिक समय से गाड़ियों के पहिये थमे हुए हैं, रेल की पटरियां शांत हैं, आसमान में उड़ने वाले विमान जमीन में जमे हुए हैं, कारखानों में ताले लगे हैं, रेस्तरां-मॉल आदि सब बंद पड़े हैं, ऑनलाइन कारोबार हो नहीं रहा, और तो और बड़े पैमाने पर निर्माण कार्य भी ठप है, तो ऐसे में लोगों की जेब में पैसा और सरकार के पास राजस्व कहां से आएगा।

हालांकि भारत सरकार के मार्च के अंत में घोषित 1.7 लाख के राहत पैकेज ने, जिसमें खाद्य सुरक्षा, गरीब, वरिष्ठ नागरिकों और विधवाओं को दो किस्तों में 1,000 रुपये दिए जाने, मनरेगा कामगारों की दिहाड़ी बढ़ाकर 202 रुपये करने, तीन महीने तक प्रत्येक महिला जनधन खाते में 500 रुपये डाले जाने और उज्ज्वला योजना के तहत मुफ्त में गैस आदि शामिल हैं, ऐसे तटस्थ लोगों को हौसला जरूर दिया है। इसके अलावा, ऐसे लोगों के लिए राज्य सरकारों द्वारा भी अपने स्तर पर कई कदम उठाए गए हैं, जिसमें गरीबों को भोजन से लेकर आर्थिक सहयोग राशि शामिल है।

दिल्ली सरकार ने पांच हजार रुपए की राहत राशि प्रदान की तो वही उत्तर प्रदेश सरकार ने खाद्यान्न की व्यवस्था तथा छोटे कामगारों के खाते में 1000 रुपए राहत राशि दी है। इसी क्रम में राजस्थान सरकार ने दो हजार करोड़ के राहत पैकेज की घोषणा की और राज्यों भी राहत पैकेज दिया जा रहा है।यह सोचने वाली बात है कि ये राहत व्यवस्था और राशि कब तक साथ देगी?

भारत में लोग लॉकडाउन खुलने की प्रतीक्षा भले ही कर रहे हों, लेकिन सब कुछ इतनी जल्दी पटरी पर लौटने लगेगा, ऐसी उम्मीद कम ही नजर आती है।परंतु घनघोर बादलों के बीच चमकती बिजली से डरने के बजाय उसकी रोशनी में सबको एक दूसरे की मदद करते हुए राह तलाश कर आगे बढ़ना चाहिए।जहां एक ओर सरकारों को लॉकडाउन खुलने के उपरांत वापस लौटे प्रवासियों की वजह से उपजी परिस्थितियों की समीक्षा के साथ-साथ शिक्षा और स्वास्थ्य की चुनौतियों से निपटने की तैयारियां करनी चाहिए, वहीं स्थानीय स्तर पर लोगों की दक्षता के अनुसार स्वरोजगार के लिए प्रेरित करने से लेकर सामुदायिक शिक्षा तथा स्वास्थ्य हेतु पंचायतों को और प्रभावशाली बनाने की ओर कदम उठाने होंगे। स्थानीय स्तर पर आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रयास शायद इस आर्थिक संकट के साथ-साथ भविष्य के भी संकटों से बचने का रास्ता दिखाएगा।

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