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संगीत कला को खूब समृद्ध कर गयी ठुमरी क्वीन

मनीष ओझा

‘याद रहे’ गिरिजा देवी केवल ठुमरी की महारानी ही नहीं थीं बल्कि उन्होंने कला के कई पहलुओं को अपने प्रतिभा से समृद्ध किया है…

स्तम्भ: बात कुछ साल पहले की है, मैं अपने परिवार से दूर दिल्ली में था। ग्रीष्मकालीन मौसम चल रहा था। एक शाम मन बड़ा उदास था। कोई अच्छी सी फिल्म देखने के लिए मैंने लैपटॉप ऑन किया। अपने फ़िल्मी फ़ोल्डर में जाकर घूमा लेकिन एक नायाब कलेक्शन रखने के बावजूद भी मैं कोई फिल्म देख पाने का मन न बना सका। बगल के कमरे में मेरा एक अज़ीज नेपाली मित्र रहता था। मैं उसके कमरे में चला गया।

अपनी तत्कालीन मनोदशा पर प्रकाश डालते हुए मैंने उससे कोई उपाय बताने को कहा तो उसने मेरे फ़ोन को लेकर एक ठुमरी “नयन की मत मारो तलवरिया ,,, तलवरिया” प्ले कर दिया। मैं झूठ नहीं बोलूँगा, उस वक़्त मुझे उस मित्र पर बड़ा क्रोध आया था और मैंने फटकारते हुए कहा था ‘क्या कर रहा भाई! मेरा मूड ऑफ है, मैं ये सब सुनने के मूड में बिलकुल नहीं हूँ।”

लेकिन कला के मामले में निहायत ही जानकार और ज़िद्दी मेरे मित्र ने जबरन मुझे सुनने को बाध्य कर दिया। मैं भी बेमन से लगा रहा। अलाप के साथ ठुमरी की प्रथम पंक्ति कानों में सुनाई दी। मैं कोई निर्णय नहीं ले सका, सिवाय मित्र की बात का पालन करने के। अग्रिम पंक्ति आने के साथ ही देशी तबला और सितार से सुसज्ज्तित म्यूजिक भी इन्सर्ट हुआ और अब माहौल कुछ बनने लगा।

जैसे जैसे ठुमरी आगे बढ़ता जाता मेरा मन एक सकारात्मक ऊर्जा से भरता जाता। कुछ तो था, उस ठुमरी में, जो मुझे अपने मोह माया के आलिंगन में खींच रहा था। ठुमरी पूरी सुनने के बाद एक सुकून से भरे मेरे ह्रदय ने मित्र से कहा इसमें ऐसा कुछ तो बड़ा ख़ास है भाई जो थेरेपी जैसा काम कर रहा था। उसने मुझसे कहा वो आवाज़ जो सीधा ह्रदय के समस्त तारों को छेडकर संगीतमय कर देती है, जिस आवाज़ का संवाद डायरेक्ट दिल से होता है, जो तुझे अपने घर परिवार की शैली की आवाज़ लग रही होगी वो आवाज़ किसी और की नहीं, ‘ठुमरी क्वीन’ गिरिजा देवी की है और ये सकारात्मक प्रभाव जो तुम्हारे मन में मैं देख पा रहा हूँ। ये उसी आवाज़ का कमाल है।

गिरिजा देवी जी से उस पहले परिचय के बाद से मैंने उनकी लगभग सभी ठुमरियां “झमाझम झम पानी ,,,,,अलबेली की नार झमाझम, कहनवा मानो हो राधा रानी, रात हम देखलीं सपनवा ,,,,आदि” सुन डालीं और जब भी दिल हल्का करना होता है सुनकर झूम जाता हूँ।

साल 1929 की 8 मई को गुलामी की जंजीरों में जकड़े ब्रिटिश भारत और भारत के वाराणसी (तत्कालीन बनारस) का सौभाग्य प्रकाशमान हो गया था जब ज़मीदार रामदेव राय के घर पुत्री के रूप में ‘ठुमरी की महारानी’ गिरिजा देवी का जन्म हुआ था। गिरिजा जी की पह्चान बनारस घराने की प्रसिद्ध शाश्त्रीय गायिका के रूप में प्रतिष्ठित है। उनके चाहने वाले उन्हें ‘अप्पा जी’ बुलाया करते थे। दरअसल रामदेव राय जी की इस पुत्री के संगीत का सफ़र शुरू होने के पीछे सबसे बड़ी वजह स्वयं रामदेव जी ही रहे।

रामदेव जी संगीत प्रेमी थे इसलिए बचपन में ही बेटी की सांगीतिक रुचियों को भांप लिया और उन्होंने अपनी इस लाडली के लिए पांच वर्ष की आयु में ही पंडित सरजू प्रसाद मिश्र जी को बेटी का संगीत शिक्षक नियुक्त कर दिया था। उस्ताद ने जो-जो सिखाया शागिर्द ने उसे परिपूर्ण कर दिखाया और इस तरह गिरिजा जी 9 वर्ष की आयु तक आते आते शाश्त्रीय संगीत की तमाम विधाएं सीख चुकी थीं और छोटी सी उम्र में फिल्म ‘याद रहे’ में अभिनय का आनंद भी ले लिया था।

एक तरफ पिता पुत्री को संगीत की साम्रागी बनाने में रमे थे तो दूसरी ओर माँ और दादी पुत्री को स्त्री मर्यादा का वास्ता देकर तमाम बंदिशों में बाँधने का असफ़ल प्रयास कर रही थीं। लेकिन पिता का दूरदर्शी होना पुत्री के लिए अमृत बना। गिरिजा जी के पिता रामदेव जी ने पुत्री का विवाह कम आयु में ही एक व्यापारी मधुसूदन जैन से कर दिया कारण ये कि मधुसूदन जी स्वयं संगीत प्रेमी इंसान थे और उन्होंने रामदेव जी से उनकी पुत्री के संगीत में पूर्ण सहयोग का वादा कर दिया था।

पति के सहयोग से गिरिजा जी शास्त्रीय संगीत की अन्य सभी विधाएं लगातार सीखती रहीं। साल 1949 में ऑल इण्डिया रेडियो के इलाहाबाद स्टूडियो से अपने संगीत कैरियर का आगाज़ भी कर दिया था किन्तु पति की तरफ से भी एक शर्त थी कि वे कभी रेडियो या कॉन्सर्ट के आलावा किसी खुले मंच पर नहीं गायेंगी और हमारी अप्पा जी शर्त पूरी शिद्दत से निभा भी रही थीं लेकिन कहते हैं जो उन्मुक्त गगन का पंक्षी हो उसे कौन बांध सकेगा! रश्मिरथी कि इस पंक्ति

“यदि मुझे बांधना चाहे मन,
पहले तो बाँध अनंत गगन।
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?”

को शब्दशः गिरिजा जी के व्यक्तित्व ने चरितार्थ किया है। दरअसल रेडियो पर तो गायन चालू था किन्तु इस महान व्यक्तित्व को रूबरू होकर गाते लोगों ने कभी नहीं देखा था। फिर आया साल 1951 गिरिजा देवी जी एक कांफ्रेंस के लिए आरा बिहार गयी हुयीं थीं। वहां जिस मुख्य गायक को बुलाया गया था, कुछ तकनीकी खामी के कारण वे स्टेज पर नहीं आ सके और तब आयोजकों की गुज़ारिश पर गिरिजा देवी मंच पर आकर पहली बार लगभग ढाई हज़ार श्रोताओं-दर्शकों से रूबरू हुयीं और संगीत का अनुपम समा बाँध दिया था। फिर गायन का जो दौर चला वो अनवरत चलता रहा।

गिरिजा जी कलकत्ता संगीत रिसर्च अकादमी, वनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में उच्च पद, साल 1972 में पद्मश्री, साल 1989 में पद्मभूषण व साल 2016 में पद्मविभूषण को सुशोभित करते हुए आगे बढ़ती रहीं लेकिन साल 2017 में अचानक वो मनहूस दिन आ गया जब संगीत की सूरमा गिरिजा देवी हमेशा के लिए चिरनिद्रा में सो गयीं। और जाते जाते उन्होंने गानों का जो समृद्ध संसार हम सबके लिए छोड़ा है वो हम सबको सदियों तक आनंदित करता रहेगा।

आज गिरिजा देवी जी के जन्मदिवस पर उन्हें याद करते हुए मैं उनकी गायी ठुमरी ‘नयन की मत मारो तलवरिया’ फ़िर सुन रहा हूँ आप सभी पाठकों से आग्रह है की गिरिजा देवी जी के प्रति आदर से भर जाने के लिए आप इस ठुमरी को अभी सुनें यकीन कीजिये मन आनंद से प्रफुल्लित हो जायेगा।

(लेखक फ़िल्म स्क्रीन राइटर, फ़िल्म समीक्षक, फ़िल्मी किस्सा कहानी वाचक है)

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