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मर्म तो छू लिया मगर….

ज्ञानेन्द्र शर्मा

प्रसंगवश

स्तम्भ: प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने यह कहकर कि ‘लोकल के लिए वोकल’ होइए यानी स्थानीय स्तर पर बनने वाली वस्तुओं के समर्थन में स्वर तेज करिए, मर्म छू लिया। वैसे तो पहले भी ‘मेक इन इंडिया’ जैसे नारे मोदी जी दे चुके हैं लेकिन इस मौके पर उनका ताजा बयान बहुत मौजूं है। राष्ट्र के नाम उन्होंने अपने ताजे संदेश में ऐसी बातें कहीं जो हम भारतवासी बहुत दिनों से महसूस करते रहे हैं। यह उनकी आत्मविश्वास पैदा करने और महामारी से भयभीत हुए बिना आगे बढ़े रहने की कारगर अपील थी।

वास्तव में स्वावलम्बन के इस पाठ की देश को चिर निरंतर जरूरत रही है। कई देशों से हम दोस्ती निभाते निभाते बहुत धोखे खाते रहे हैं और हमने इससे सबक सीखने की कोशिश भी नहीं की और यह बात केवल मोदी सरकार तक सीमित नहीं है। पूर्ववर्ती सरकारें भी ऐसी ही गफलतों में फॅसी रही हैं।

ताजा उदाहरण पेश है: जब पूरी दुनिया में कोरोना ने पैर पसारने शुरू कर दिए तो उस समय हम दूसरे किस्म के स्वावलम्बन में फॅसे हुए थे। संसद तक ने तत्काल इस महामारी के सामने नतमस्तक होना पसंद नहीं किया।

20 मार्च को भारत सरकार का आयुष मंत्रालय संसद में कोरोना से लड़ने के लिए आयुर्वेदिक, यूनानी, सिद्धा और होम्योपैथी की वकालत करने में लगा हुआ था। वह देसी तरीकों से कोरोना से निपटने की बात कर रहा था जबकि दुनिया भर में और खुद अपने देश में भी उसके लिए टीका बनाने की तैयारियाॅ जोरों पर चल रही थीं।

अभी जबकि 30 जनवरी को महामारी का पहला केस भारत में प्रकट हो चुका था, हमने 26 फरवरी को चीन को 15 टन मेडिकल सामान भेजना उचित समझा शायद मानवीय दृष्टिकोण से— क्योंकि दिसम्बर के पहले सप्ताह में वहाॅ के वुहान में कोरोना का सबसे पहला विस्फोट हो गया था। चलो यह भी ठीक था लेकिन सालों से चीनी सामान के अंधाधुध आयात से हमें कितना नुकसान हुआ, इसका अंदाज लिया जाना जरूरी है। और तो और दीवाली में गणेष लक्ष्मी की मूर्तियाॅ भी चीन से बनकर आने लगी। पटाखों का इतना ज्यादा आयात हुआ कि तामिलनाडु के कई पटाखा उद्योग-धंधे बंद हो गए।

और पिछले मार्च में, होली में, एसोचैम यानी एसोसिएशन ऑफ चैम्बर एण्ड कामर्स की एक रिपोर्ट कहती है कि होली के लिए रंग और पिचकारी-बन्दूकें इतनी अधिक मात्रा में चीन से आने लग र्गइंं कि अपने देश के करीब 1000 लघु उद्योग बंद हो गए। इस संगठन द्वारा मार्च महीने में एक सर्वेक्षण कराया गया।

उसकी एक सर्वे रिपोर्ट बताती है कि जो पिचकारी-गन उत्तर भारत में होली पर बिकीं, उनमें 100 में 95 चीन से आयायित थीं। मतलब यह कि 100 में केवल 5 ही देसी गन बिकीं। एशोचैम की ही एक और रिपोर्ट बताती है कि दो साल पहले 2700 करोड़ रुपए के चीनी मिट्टी के सिरैमिक्स के सामान चीनी से आयात किए गए।

चीन से किया गया इसका आयात कुल का 64 प्रतिशत था जबकि जर्मनी और फ्रांस से केवल क्रमश:7 और 4 प्रतिशत आयात किया गया। पिछले 4 वर्षों में विभिन्न किस्म के सामानों के लिए चीन के आयात पर हमारी निर्भरता 4 प्रतिशत से बढ़कर 11.7 प्रतिशत हो गई।

यह तमाम आवश्यकताओं के लिए पिछले कुछ वर्षों में चीन पर बढ़ी हमारी निर्भरता दर्शाने के लिए पर्याप्त है। चीन के कुल निर्यात का 2 प्रतिशत भारत को निर्यात होता है। फार्मा उद्याोग की तो और भी ज्यादा निर्भरता चीन पर रही है। जो एन्टी-बायोटिक्स विदेशों से आयात किए जाते हैं, उनमें से अकेले 80 प्रतिशत चीन से आयात होते हैं।

कांग्रेस के जमाने में हमारी निर्भरता, हमारा झुकाव सोवियत संघ की तरफ था। केन्द्र की सरकार वामपंथी रुझान यानी ‘लैफ्ट टु दि सेन्टर’ नीतियों पर चलने लगी थी। सोवियत संघ के विघटन के बाद हमारी दोस्ती रूस से बढ़ी और हमने खासकर अपनी रक्षा सम्बंधी आवश्यकताओं के लिए रूस से बहुत आयात किए।

मोदी जी की सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल के प्रारम्भ में मेड इन इंडिया अभियान बहुत तेजी से चलाया था परन्तु अज्ञात कारणों से वह ढीला पड़ गया और वह एक जुमला भर बनकर रह गया। वर्तमान सरकार अमेरिका से एक व्यापारिक डील करना चाह रही थी लेकिन वह अभी तक हो नहीं पाई। इसी तरह वह चीन से भी व्यापारिक लेनदेन बढ़ाती रही। भारत के लोग इस पर नाराज रहे- खास तौर पर इसलिए भी कि चीन ने संयुक्त राष्ट्र में अजहर मसूद को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित कराने की मुहिम में भारत को समर्थन नहीं दिया था।

अब परिपक्व समय है जब मेड इन इंडिया पर फिर से जोर दिया जाय और चीन से अंधाधुंध आयात बंद हों। ये आयात जब तक बंद नहीं होंगे, अपने देश के लघु और मध्यम उद्योगों को गतिशीलता नहीं मिल पाएगी, इसमें किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए।

और अंत में, मैं अमेरिका में था और एक मोबाइल फोन लेना चाहता था। एक अमेरिका दुकान में गया तो उसने दाम बताया 100 डाॅलर। मेरे बेटे ने, जो साथ में था, कहा यह तो बहुत महंगा है। चलो किसी गाॅव की तरफ चलते हैं। एक गाॅव में गए तो वहाॅ की दुकान पर वही मोबाइल 60 डाॅलर में मिल गया। दरअसल, महंगा मोबाइल अमेरिका में ही बना था जबकि उसी टेक्नोलॉजी से चीन से बनकर लौटा मोबाइल कहीं सस्ता था।

चीन पर दुनिया भर की निर्भरता क्या समझ में आने लायक नहीं है?

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