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नया धारावाहिक: ‘लाॅकडाउन’

ज्ञानेन्द्र शर्मा

प्रसंगवश

स्तम्भ: तो आइए हम आपको लाॅकडाउन नाम के धारावा​हिक के चौथे भाग पर ले चलते हैं। चौथे लाॅकडाउन की सरकारी उद्घोषणा उतनी ही भ्रमोत्पादक है जितने कि उसे जारी करने वाले गृह सचिव से दस्तखत। पता नहीं सरकार क्या कहना चाहती है, क्या करना चाहती है। एक के बाद एक चार बार लाॅकडाउन की अवधि बढ़ाई गई।

पता नहीं पहली बार 25 मार्च को 21 दिन के लिए इसे क्यों लागू किया गया, फिर 15 अप्रैल को 19 दिन के लिए ही क्यों लगाया गया और फिर 4 मई को सिर्फ 14 दिन के लिए। क्या केन्द्रीय सरकार के गृह विभाग और एक बड़ी उच्च स्तरीय टीम को इतना भर अंदाज था कि मोदी जी से कहलवा दो तो 25 मार्च को लगा लाॅकडाउन 21 दिन में जलवा दिखा देगा? या फिर अब कुल मिलाकर 54 दिन रहने पर लाॅकडाउन कुछ कमाल कर देगा, 31 मई और एक जून में फर्क होगा और कोरोना के फैलाव के खतरे पर काबू कर लिया जाएगा।

अगर ऐसा था तो चार खण्डों /अब तक/ में बॅटे धारावाहिक का भाष्य समझने की कोशिश करनी चाहिए, उन्हीें की भाषा में जो इसे दिल्ली से आदेश जारी करके लागू कर रहे हैं। भारत सरकार ने एक उच्चस्तरीय समिति बनाई हुई है जो गृह मंत्रालय में रहते हुए लाॅकडाउन से सम्बंधित फैसले करती है। इसमें भारत सरकार के चोटी के अफसर शामिल हैं और एक तरह से तमाम बौद्धिक कौशल इसके पीछे है। लेकिन फिर भी इतना कन्फ्यूजन! क्या खोलना है, क्या बंद करना है, इसके बारे में बार बार आदेश बदले जाते हैं।

अब जो आदेश हैं, उनके मुताबिक शराब की दुकानें तो खुलेंगी लेकिन मंदिर व दूसरे पूजा स्थल बंद रहेंगे। धार्मिक सभाएं प्रतिबंधित रहेंगी यह निर्णय शायद 25 मई को पड़ रही ईंद के कारण किया जा रहा है लेकिन इसका तुक नहीं है। देश के ज्यादातर हिस्सों में धारा 144 लागू है जिसके तहत वैसे भी 4 से ज्यादा लोगों के एक जगह एकत्र होने पर रोक होती है। दूसरे उत्तर प्रदेश सरकार ने तो 30 जून तक धार्मिक जलसों पर वैसे भी रोक लगा रखी है।

एक और रोक काबिले-गौर है और वह है राजनीतिक जलसों पर। क्या सरकार इस रोक के जरिए राजनीतिक दलों की गतिविधियों को प्रतिबंधित करना चाहती है? बेहतर क्या यह नहीं होता कि राजनीतिक लोगों को तमाम और वर्गों और संगठनों को दी गई आजादियों की तरह अपने राजनीतिक मंच पर अपनी बात कहने और उसे आम जनता तक पहुॅचाने का हक होता। क्या यह मानकर चला जा रहा है कि विपक्ष में बैठे राजनीतिक दलों को इतनी समझ नहीं है कि वे ऐसे संगीन मौके पर जलसे/ सभाएं करके अशांति पैदा करेंगे?। फिर भी वे ऐसा करते तो खुद ही एक्सपोज होते, जनता के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने वाले जन-विरोधी कहलाते। इसमें सरकार को वैसे भी डरने की कोई बात नहीं थी।

यों बहुत से विशेषज्ञ कहते हैं कि कोरोना से ज्यादा नुकसानदेय तो लाॅकडाउन साबित होने वाला है। लाॅकडाउन में महामारी से ज्यादा जानें लेने की क्षमता है, यह तमाम घटनाओं-दुर्घटनाओं से साबित हो चुका है। इसीलिए दुनिया के तमाम देशों में लाॅकडाउन का विरोध हो रहा हैे। लोग सड़कों पर उतरकर विरोध प्रकट कर रहे हैं हालाॅकि एक दूसरे से दूरी बनाकर वे प्रदर्शन में खड़े हो रहे हैं। भारत देश में गरीबों की संख्या कहीं अधिक है- करीब 28 करोड़ और लाॅकडाउन के जो कुप्रभाव हैं, वे सबसे ज्यादा गरीबों पर ही असर डालते हैं।

यह कहा जा रहा है कि बिना किसी पूर्व चेतावनी के, नोटबंदी की तरह ही लाॅकडाउन घोषित कर देने से हजारों हजार लोगों की नौकरियाों पर आंच आने वाली है। वैसे भी यह कहा जाता रहा है कि कम से कम 10 करोड़ देशवासियों की नौकरी खतरे में पड़ सकती है। यह अमेरिका से कहीं ज्यादा है। वहाॅ अनुमानतः 4 करोड़ नौकरियाॅ खतरे में पड़ती बताई जा रही हैं।

अपने देश में अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं आम आदमी की पहुॅच से बाहर हैं क्योंकि उनकी इतनी आमदनी नहीं कि वे अच्छा इलाज करा सकें। भारत सरकार ने आयुष्मान भारत योजना लागू की लेकिन उसे कोरोना ने भारी आघात किया और गरीब आदमी की पहुॅच से सामान्य स्वास्थ्य सेवाएं और भी दूर कर दीं। वैसे भी अपने मुल्क में आबादी की तुलना में बहुत कम अस्पताल हैं, अस्पतालों में बैड, डाक्टर, नर्सें बेहद कम हैं।

फिर इस नए धारावाहिक का चौथा सोपान यह बताता है कि हालात अभी गंभीर हैं और अब जो खतरा सामने मंडरा रहा है, वह है देश के तमाम कोनों से भागकर अपने गाॅव पहुॅच रहे मजदूरों से संक्रमण का खतरा। सरकार कहती जरूर है लेकिन उसके पास इतने साधन नहीं कि लाखों प्रवासियों में संभावित संक्रमण की जाॅच कराई जा सके।

सरकार ने लाॅकडाउन और उसे बढ़ाने के समय इन मजदूरों को इतनी मोहलत नहीं दी कि वे भाग कर आसानी से अपने गाॅव पहुॅच सकें। कितने कितने कष्टों में वे भाग दौड़ रहे हैं, यह किसी भी सरकार की बेहद किरकिरी है। और आने वाले दिनों में तब हालात और भी खराब हो सकते हैं जब भाग कर आए मजदूरों के लिए रोजगार के टोटे पड़ सकते हैं। हम हर बार लाॅकडाउन की एक अवधि तय करते हैं, यह सोचकर आगे खतरे की गहराई कम हो जाएगी लेकिन अब तक तो हुआ इससे उलटा ही है।

अंत में, तो क्या कहें?

पति (शायराना अंदाज में) : हमें तो अपनों ने लूटा, गैरों में कहाॅ दम था,

मेरी कश्ती वहाॅ डूबी जहाॅ पानी कम था।

पत्नी (गुस्से में) : तुम में क्या अकल नहीं थी,

तुमरे भेजे में कहां दम था, वरना वहाॅ क्यों गए जहाॅ पानी कम था।

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