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बूढ़ी ट्रेनें…

ज्ञानेन्द्र कुमार शुक्ला

तो हमारी ट्रेनें उम्रदराज होने के चलते भूल गयीं अपनी राह

डेढ़ सौ साल से ज्यादा उम्रदराज हो चुकी है भारतीय रेल। जी हां, दरअसल, 16 अप्रैल, 1853 को पहली दफे देश में रेल चली, इस हिसाब से भारतीय रेल का 168वां जन्मदिन चल रहा है। लॉकडाऊन में ट्रेनों के पहिए पहली बार थम गए। पर जैसे ही प्रवासी मजदूरों को उनके ठिकानों तक पहुंचाने के लिए ट्रेनें हरकत में आयीं उनके राह भटकने का मुद्दा गरमा गया। सवालों की बौछार लग गयी कि क्या भारतीय रेल का ढांचा चरमरा गया है। क्या ये इतनी बुजुर्ग हो चुकी है कि उसकी यादाश्त कम होने लगी है।

Animated GIF | Old trains, Locomotive, Model trains

इस मुद्दे पर विस्तृत चर्चा करने से पहले जान लेते हैं कि क्यों ट्रेनों के रास्ता भटकने के मुद्दे ने तूल पकड़ा

  1. मुंबई के वसई से चली ट्रेन ने गोरखपुर तक की 25 घंटों की दूरी 60 घंटो में तय की। क्योंकि ट्रेन सीधे रास्ते के बजाए पश्चिम बंगाल, ओडिशा, बिहार, झारखंड तक घूम कर आयी।
  2. गोवा से यूपी के बलिया के लिए निकली श्रमिक स्पेशल नागपुर पहुंची फिर अपनी मंजिल का सफर तय किया। जिससे 28 घंटे का सफर तय करने में 72 घंटे लग गए।

मुंबई के वसई से चली श्रमिक ट्रेन को वसई कल्याण होते हुए खंडवा, इटारसी, जबलपुर के रास्ते गोरखपुर तक की 1500 किलोमीटर की दूरी तय करनी थी। जबकि वसई से राउरकेला तकरीबन 1600 किलोमीटर दूर है। ऐसे में अगर ट्रेन अपने निर्धारित रूट पर चलतीं तो महज चौबीस घंटों में प्रवासी मजदूर अपने ठिकानों पर पहुंच जाते पर पहले चौबीस घंटे तो ओड़ीशा जाने में ही बर्बाद कर दिए गए। फिर ओडिशा से गोरखपुर की अतिरिक्त 800 किलोमीटर की दूरी तय की गयी।

मजाक और विरोध का सिलसिला

जैसे ही ट्रेनों के रास्ते से भटकने की बात उठी सोशल मीडिया पर “जाना था जापान पहुंच गए चीन” गाने की मिसाल देकर मजाक की आँधी उड़ने लगी। विपक्षी दलों ने भी तंज कसने और जुबानी वार करने का मौका नहीं छोड़ा। अखिलेश यादव ने ठेठ कानपुरिया अंदाज में चुटकी ली।

पूर्व रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने आरोप मढ़ा कि, “रेलवे काडर सिस्टम चरमरा चुका है। दो महीने जब ट्रेन बंद हुई तो बोर्ड मेंबर से लेकर गैंगमैन से लेकर सबका मोराल काफी डाउन है। चेन ऑफ कमांड खत्म हो गया। वरना रेलवे कभी भी इतना लचर हो ही नहीं सकता है”।

रेलवे का पक्ष

रेल महकमे के मुताबिक सामान्य तौर पर जिस रूट पर 50 ट्रेन चला करती थीं उस रूट पर 200 ट्रेनों का परिचालन किया गया। 200 ट्रेन श्रमिकों को लेकर आ रही हैं और उतनी ही खाली ट्रेन वापस भी जा रही हैं। यानि रूट पर 400 ट्रेनों का परिचालन हो रहा है। स्पेशल श्रमिक ट्रेनों में से 80 फीसदी ट्रेन गुजरात के सूरत और महाराष्ट्र के मुंबई से संचालित हैं।

ट्रेनों के रास्ते से भटकने के मुद्दे को लेकर रेलवे की ओर से सफाई देते हुए वेस्टर्न रेलवे के पीआरओ रवीन्द्र भाकर ने कहा कि जिस ट्रेन को कल्याण-जलगांव-भुसावल-खंडवा-इटारसी-जबलपुर-मानिकपुर का रास्ता तय करके गोरखपुर में पहुंचना था। उसे इटारसी-जबलपुर-दीनदयाल रूट पर भारी ट्रैफिक दबाव की वजह से डाइवर्ट करना पड़ा और बिलासपुर, झारसुगुडा, राउरकेला, अद्रा, आसनसोल का रास्ता चुना गया।

तथ्यों की नजर से

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गुजरात महाराष्ट्र से बिहार आने के लिए रेलवे के पास दो रूट हैं। पहले रूट से अगर ट्रेन आती है तो तो वह मुंबई से भुसावल, इटारसी, जबलपुर, कटनी, इलाहाबाद होते हुए बिहार में प्रवेश करती है। गुजरात से आने वाली ट्रेनें भी उसी रूट से आती है, लेकिन इस रूट पर कंजेशन होने पर गुजरात से आने वाली ट्रेन उदना होते हुए भुसावल, इटारसी, भोपाल, झांसी, कानपुर, लखनऊ, बनारस के रास्ते बिहार में प्रवेश करती है। इसके अलावा भी एक रूट हैं जो गुजरात के उदना से होते हुए भुसावल, नागपुर, रायपुर, बिलासपुर, राउलकेला, टाटानगर, आसनसोल के रास्ते बिहार तक पहुंचता है।

जाहिर है हर ट्रेन का अपना निर्धारित रूट व रूटीन होता है, उसे संचालित करने के लिए भारीभरकम अनुभवी-तकनीकी टीम होती है। बिना उच्च अफसरों की मंजूरी के ट्रेन दूसरे रूट पर नहीं जा सकती है। और हजार किलोमीटर का गलत सफर तो किसी भी सूरत में नहीं तय कर सकती है।

उदाहरण के तौर पर देखें तो अगर कोई ट्रेन गुजरात के अहमदाबाद से शुरू होकर लखनऊ आती है तो इसे रेलवे के कई जोन, डिवीजन, स्टेशन, क्रासिंग पार करने होते हैं। हर एक क्रासिंग से सामने से गुजर रही ट्रेन की जानकारी स्टेशन को पहुंचती है वहां से डिवीजन और जोन तक जाती है। ऐसा भी नहीं होता है कि जो लोकोपायलट, गार्ड ट्रेन अहमदाबाद से लेकर निकले हैं वही लखनऊ तक लेकर आएंगे। ट्रेन के रूट और दूरी के लिहाज से रास्ते में स्टाफ बदलता रहता है।

कोई भी ड्राईवर खुद से रूट नहीं चुनता है। उसे ट्रैफिक सिग्नल के प्रोटोकॉल का पालन ही करना होता है। ज्यादातर स्टाफ अनुभवी होता है और अपने रूट के बावत बेहतर जानकारी रखता है, हालांकि जरा सी चूक होने पर या गलत ट्रैक पर जाने पर आननफानन में कार्यवाही तय हो जाती है। हां ट्रैफिक लोड बढ़ने पर या संबंधित ट्रैक पर किसी दुर्घटना की वजह से ट्रेन को अलग रूट पर लाने की व्यवस्था की जाती है। पर ये सामान्य परिचालन से जुड़ी प्रक्रिया है।

क्यों तय रूट बदले गए

अस्सी फीसदी श्रमिक स्पेशल ट्रेन यूपी और बिहार के लिए संचालित हुईं। जाहिर है इस मार्ग पर रेलवे ट्रैफिक का लोड खासा बढ़ गया इससे ट्रेनों की रफ्तार पर असर पड़ा, ट्रेनें लेट होने लगीं। विषम परिस्थितियों में “रूट रैशनलाइजेशन” की नीति पर काम शुरू किया गया। ट्रेनों को निर्धारित रूट से इतर दूसरे मार्ग पर मोड़ दिया गया।

ये फैसला इस आकलन पर आधारित होता है कि लंबे रूट से ट्रेन ले जाने में भी मंजिल पर पहुंचने पर उतना वक्त नहीं लगेगा जितना ट्रैफिक में फंसकर लेट होने में लगेगा। वहीं, विशेषज्ञों का मानना है कि रूट के जानकार लोको पायलट की कमी से मुश्किल हुई। ट्रेनों के डायवर्ट होने का एक बड़ा कारण ये भी बना।

अन्य अहम पहलू

ट्रेनों के रास्ता भटकने के विवाद का एक सिरा सियासी तल्खी से भी जुड़ा है। पश्चिमी बंगाल और केरल की सरकारों की ओर से भी ट्रेन संचालन को लेकर एतराज से भी कई पेंच फसें। रेल मंत्री पीयूष गोयल और महाराष्ट्र सरकार में जुबानी रस्साकशी जमकर हुई। रेल मंत्रालय और राज्यों में समन्वय की कमी का नकारात्मक असर पड़ा। प्रवासी मजदूरों को सकुशल, सहुलयित के साथ ले जाने के मुद्दे पर बहस के बजाए आरोप प्रत्यारोप, वार पलटवार पर ज्यादा जोर रहा।

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चलते चलते,  तमाम पहलूओँ पर गौर करने से ये तय हो जाता है कि कई दर्जन ट्रेनों के रास्ते से भटकने की गुंजाईश नहीं हो सकती है। हां रूट तय करने के फैसले को लेकर सवाल उठ सकते हैं, कम समय- कम लागत वाला रूट क्यों नहीं निर्धारित किया गया इसे लेकर भी सवाल पूछे जा सकते हैं। सवाल इस बिंदु पर भी उठ सकते हैं कि जब लंबा रूट तय करना पड़ा तो यात्रियों के खाने पीने के इंतजाम सही ढंग से क्यों नहीं किए गए।

जाहिर है सवाल तकनीकी खामियों, प्रोफेशनल कोताही से कहीं ज्यादा मानवीय तकाजों से जुड़े हैं। जिसे लेकर रेलवे के जिम्मेदार अपनी जवाबदेही से नहीं बच सकते हैं।

(लेखक टीवी जर्नलिस्ट है)

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