बदले-बदले से दिखे नरेंद्र भाई !
स्तम्भ: 19 जून 2020 को लद्दाख पर हुई सर्वदलीय बैठक में नरेंद्र दामोदरदास मोदी बड़े उन्मन लगे। नखहीन व्याघ्र की मानिंद। संसद में तो प्रधानमंत्री बड़े कट्टर बैरीदमन, अरिसूदन, रिपुमर्दन, शत्रुहन्ता, गिर के शेर बबर जैसे लगते हैं। बैठक में बड़े शांत भाव से दिखे। उनसे सफाई मांग रही थी वह महिला जिसकी सास के पिता ने समूचा तिब्बत माओ ज़ेडोंग को उपहार में दे डाला, उफ़ तक नहीं किया।
चिर प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री उनसे पूछ रहा था कि भारतीय सैनिकों को निःशस्त्र क्यों भेजा? जब डोकलाम (भूटान, 2017) को शी जिनपिंग के गण कब्जिया रहे थे तो वह दिल्ली-स्थित चीनी दूतावास में चाउमीन और मोमो चबा रहा था। कैलाश की अपनी यात्रा पर उसने कहा तक नहीं कि यह तो वेदकाल से भारत का है, जहां भोले महादेव का घर है।
रिक्त मानसरोवर पर आक्रोश जाहिर नहीं किया कि राजहंसों को पकाकर लाल सेना डकार गई। तेलुगु नियोगी ब्राह्मण येचुरी सीताराम को प्रधानमंत्री स्मरण करा सकते थे कि उन्हीं के पूर्व पदाधिकारी, आदि शंकर के वंशज, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के संस्थापक-महासचिव मलयाली विप्र शंकरन नम्बूदरीपाद ने अक्टूबर 1962 में चीन द्वारा असम पर हमले के वक्त क्या कहा था?
पत्रकारों के प्रश्न पर यह माकपा नेता बोले थे, “भारत कहता है चीन ने हमला किया। चीन बोलता है भारतीय सैनिकों ने घुसपैठ की। हमारी पार्टी जांच करेगी, फिर बताएगी कि आक्रमण किसने किया था।” गौर कीजिए, पश्चिम बंगाल की माकपा (CPM) के मुखपत्र दैनिक “गणशक्ति” ने अपने संस्करण में लिखा कि चीन के अनुसार भारतीय सैनिकों ने घुसपैठ की है। भारत का दावा है कि ऐसा नहीं हुआ। अर्थात माकपा दैनिक तटस्थ है। उसकी राय में संभवतः भारत ही दोषी हो।
बीजिंग के “पीपुल्स डेली” (रेनमिन रिबाओ) के साथ “गणशक्ति” का बिरादराना रिश्ता है। श्रेष्ठतम प्रस्तुति तो शेरनी-ए-बंगाल ममता बनर्जी की रही। दोनों यूरेशियन माँ-बेटे और केरल तथा आंध्र के ब्राह्मणों की तुलना में यह वन्दोपाध्याय बंग महिला तेज थी, तर्रार भी। उसने साफ घोषणा कर दी: “हमारी तृणमूल कांग्रेस पार्टी पूरी तरह एनडीए सरकार के साथ खड़ी है।” न हिचक, न लागलपेट और न शक-ओ-शुबह ! तेलंगाना वाले के. चन्द्रशेखर राव ने कांग्रेसियों को झिड़क दिया: “यह अवसर नहीं है मीनमेख निकालने का।”
पूर्व रक्षामंत्री और राष्ट्रवादी कांग्रेस के अध्यक्ष शरदचन्द्र गोविन्दराव पवार तो बहुत सटीक बोले। उन्होंने राहुल गाँधी को काटते हुए कहा कि शस्त्रधारी अथवा निःशस्त्र सैनिक के आवागमन पर तयशुदा संधियाँ रची गई हैं। उसपर विवाद नहीं उठाना चाहिए। वे कूटनीतिक समाधान के पक्षधर थे। बीजू जनता दल के सांसद पिनाकी मिश्र ने मोदी सरकार के कंधे से अपना कन्धा मिलाया। और तो और, बहन कुमारी सुश्री मायावती ने कहा कि बहुजन समाज पार्टी मोदी के साथ अविचल खड़ी है।
यहाँ एक पहेली बूझनी होगी। सोनिया-कांग्रेस के लोकसभाई नेता (विपक्ष) अधीर रंजन चौधरी को सोनिया-राहुल ने क्यों काट दिया? संसद में (सोमवार, 11 मई 2020) चौधरी ने चीन के विरोध में दहाड़ कर कहा था कि नरेंद्र मोदी सरकार को ताइवान द्वीप को मान्यता दे देनी चाहिए। वे चीन के बारे में बोले: “पीलेवर्ण वालों से सम्भल कर रहो।” उन्होंने मोदी सरकार को सचेत भी किया कि विश्व स्वास्थ्य संगठन में ताईवान की सदस्यता निरस्त नहीं होनी चाहिए। मगर पार्टी के दबाव में कुछ घंटों बाद ही अधीरभाई ने अपना ट्वीट सन्देश मिटा दिया, क्योंकि उनकी पार्टी ताईवान द्वीप को स्वतंत्र गणराज्य नहीं मानती है।
इसी पर राज्यसभा में कांग्रेस के नेता आनंद शर्मा ने सोनिया गाँधी से चौधरी को डटवा दिया। उनका तर्क यह था कि पार्टी का चीन से दोस्ताना सम्बन्ध है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का 2008 में बीजिंग में एक मैत्री करार हुआ था। सोनिया ने दस्तखत किये थे। कांग्रेस पार्टी ताइवान को चीन का भूभाग मानती है।
अर्थात अधीर चौधरी की राष्ट्रवादी, भारत की हितकारी नीति को सोनिया ने नकार दिया। एक आम राय रहती है कि विदेश नीति राष्ट्र के हितों पर निर्मित हो । जब अरुणांचल, लद्दाख, कश्मीर और सिक्किम को चीन भारत का भूभाग नहीं मानता है, तो फिर भारत क्यों ताइवान गणराज्य, हांगकांग और तिब्बत को चीन के अवैध उपनिवेश न माने? उनके स्वतंत्रता संघर्ष की हिमायत होनी चाहिए।
इसी सन्दर्भ में सवाल उठता है कि रक्षामंत्री ठाकुर राजनाथ सिंह 24 जून को मास्को में होने वाले द्वितीय विश्वयुद्ध में सोवियत संघ, अमेरिका, ब्रिटेन फ़्रांस आदि के विजय पर्व में क्यों शरीक हों? यह तो रूसी तानाशाह जोसेफ स्टालिन की जीत थी। उसने दो करोड़ रूसी जनता को मरवा डाला था। गाँधीजी को रूस ने ब्रिटेन की कठपुतली कहा था।
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी को अकूत धन दान देकर आंतरिक कलह पैदा किया था। माकपा नेता ज्योति बसु तो नेताजी सुभाष बोस को हिटलर का कुत्ता कहते थे। जरा सोचिये,जापान के प्रधान मंत्री टोजो ने रासबिहारी बोस के आजाद हिन्द फ़ौज की मदद की थी। साम्राज्यवादी ब्रिटेन और सोवियत संघ की तारीफ हो, और भारतीय स्वाधीनता संघर्ष के हिमायती राष्ट्र (जापान आदि) हमारे लिए हेय हों ? राजनाथ जी को अपनी मास्को यात्रा पर पुनर्विचार करना चाहिए।
याद कर लें। चीन के आक्रमण पर रूस के ही निकिता ख्रुश्चेव ने जवाहरलाल नेहरु को बताया था, “भारत हमारा मित्र है, पर कम्युनिस्ट चीन तो रूस का भाई है।”
राष्ट्रहित की चर्चा चली तो एक निजी वाकया बता दूं। अंतर्राष्ट्रीय पत्रकार सम्मेलन में उन दिनों मैं बुडापेस्ट (हंगरी) गया था। तब वह सोवियत संघ के अधीन था। उपनिवेश जैसा। वहां रूस-विरोधी जनांदोलन को टैंकों और तोपों से कुचल दिया गया था।
राजधानी के प्रेस क्लब में शाम को बैठकी थी। शराब से सख्त-परहेजी, मैं भी अपने मेजबानों के आग्रह पर शामिल हुआ था। माहौल कुछ उफान पर था। एक पत्रकार ने पूछा कि : “अगर ईसा मसीह कोई तीन वर मांगने को कहें, तो क्या माँगा जाय?” तब तक चीन की जनवादी सेना तथा रूस की लाल सेना मंगोलिया सीमा पर भिड़ चुकी थीं। दोनों कम्युनिस्ट पड़ोसी शत्रु हो गए थे।
एक वयोवृद्ध पत्रकार जिसने स्टालिन का दमनकारी युग देखा था, बोला : “मैं याचना करूँगा कि चीन की जनमुक्ति सेना बुडापेस्ट पर हमला करे।” उसने बाकी दोनों वर के लिए यही दुहराया। तो एक पत्रकार ने कहा, “ एक बार तो चीन आपके देश पर हमला कर चुका होगा। तो फिर दो बार और क्यों?” इस हंगेरियन बुजुर्ग पत्रकार का जवाब था : “चीन की खूंखार सेना बरास्ते मास्को बीजिंग से बुडापेस्ट तीन बार आकर हमें मारेगी, पर छः बार तो मास्को को रौंदेगी, आते-लौटते!”
आज ऐसा ही जवाब चीन के सैनिकों के लिए है। लद्दाख में कूट-पीटकर हमारे सैनिकों को मार डालने वालों को कम से कम एक बार तो भारत मारे? पुलवामा के नरसंहार का प्रतिशोध बालाकोट में लिया गया। तो लद्दाख में नृशंस हत्या का हिसाब कब चुकायेंगे? प्रधानमंत्री के भाषण में ऐसे बदले की भावना कल लेशमात्र भी नहीं थी। बालाकोट बमवर्षा के दत्तचित्त शिल्पी नरेंद्र दामोदरदास मोदी लेह पर शांतचित्त हो गये?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)