दस्तक-विशेषराजनीतिसाहित्यस्तम्भ

भारत की राजनैतिक स्थिति पर एक नजरियाँ

के.एन. गोविन्दाचार्य

भाग -1

भारत की राजनीति को एक और ढंग से कालखंडों में बाँटकर देखा जा सकता है। उसका पहला खंड है 1950 से 1965 । भारत में आधुनिककाल में चुनावी राजनीति की एक प्रकार से 1935 के गवर्नेंन्स पर बने कानून से शुरुआत होती है। सन् 37 से 47 तक की चुनावी राजनीति में ही उम्मीदवारी चयन मे जातिवाद, संप्रदायवाद का बोल बाला हो चुका था।

कांग्रेस को चुनावी विधा मे अस्वस्थ प्रवृत्तियों को जीत के लोभ मे प्रश्रय देने का दोषी ठहराया जा सकता है। गांधीजी चुनावी प्रक्रिया मे रूचि नही ले रहे थे। कांग्रेस को आजादी के आंदोलन के मंच के नाते वे देख रहे थे। कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट पार्टियाँ कभी स्वतन्त्र कभी गठजोड़ या विलय की प्रक्रिया से गुजर रही थी।

मुस्लिम नेता मुख्य धारा से अलग अपनी खिचड़ी अलग से पका रहे थे। उस काल मे अंबेडकरजी, सावरकरजी आदि की सीमित ही क्यों न हो लेकिन महत्वपूर्ण भूमिका थी ही। कांग्रेस के 1921 मे बने जनसंगठन के संविधान के महत्त्व को नही समझा गया। रचनात्मक प्रवृत्तियों की, राजनीति के स्तर पर काम कर रहे लोगों ने, 1935 से ही उपेक्षा की।

आंदोलन में आजादी प्राप्ति की इच्छा का ज्वार था। गांधी जी रचनात्मक और आंदोलनात्मक दोनों विधाओं के नेता थे। रचनात्मक प्रवृत्तियों को गांधी जी अंग्रेजों के जाने के बाद के भारत की संरचना को मजबूत करने के लिये महत्वपूर्ण उपकरण मान रहे थे। गांधीजी ने अंग्रेजों के जाने के बाद अंग्रेजियत को भी सात समुंदर पार भेजने की इच्छा जताई थी। 1948 में कांग्रेस के विसर्जन की भी बात कही, पर वह अनसुनी कर दी गई।

भारत का विभाजन सांप्रदायिक आधार पर हुआ। अंग्रेज चले गये। गाड़ी को पटरी बदलना था। वह नही हुआ। सत्ता के हस्तांतरण के बाद भारत अपनी राह पर नहीं लौट पाया। गलत पटरी पर गाड़ी चली गई। काले अंग्रेज रहनुमा बन गये। गाड़ी के ड्राइवर गार्ड बन गये। पूज्य बापू की ह्त्या हो गई। उस परंपरा के वाहक गांधी विचार समूह के कांग्रेस प्रतिनिधि डॉ. लोहिया के शब्दों मे सरकारी गांधीवादी, मठी गांधीवादी और कुजात गांधीवादियों मे बंट गये।

देश को पं. नेहरूजी द्वारा रूस प्रभावित तटस्थ देश की शकल मिलने लगी। आजादी के कुछ समय बाद ही सरदार पटेल की मृत्यु हो गई। पं. जवाहर लाल नेहरु भी तिब्बत पर चीनी कब्जा से आहत हुए। पर उन्होंने कुछ नही किया। पंचशील, हिन्दी चीनी भाई भाई की मृग मरीचिका शिकार होकर पं. नेहरु जी की 1964 मे मृत्यु हो गई। इस बीच 1947 से 50 के बीच संविधान भी बना और स्वीकृत हुआ।

संविधान लागू होने के बाद देश के राजनैतिक जीवन मे स्वातंत्र्य आंदोलन के मूल्यों की सुगंधिमयी स्मृति जन मानस मे बनी रही। साधन शुचिता, जीवन शुचिता की देश के सार्वजनिक जीवन मे स्मृति आगे 15 वर्ष बनी रही। राजनीति 1965 तक कुछ न कुछ जनाभिमुखी, दायित्वपूर्ण और मूल्याधिष्ठित दिखती रही। इस बीच 1965 में पाकिस्तान से युद्ध, देश के कुछ हिस्से मे भीषण अकाल, विनोबाजी का भूदान आंदोलन, श्यामा प्रसाद मुखर्जी का बलिदान आदि कुछ विशेष घटनाएँ हुई।

इन बातों का विस्तार इस लेख का मंतव्य नही है। इस तथ्य को सामने प्रमुखता से लाना अनिवार्य था कि 1950-1965 कालखंड में आजादी के आंदोलन की रस गंध बनी रही। 1965 के बाद से सत्ता बल के प्रभाव का दर्शन हुआ। दलीय राजनीति अपना उददिष्ट स्वभाव खोने लगी।

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