करिअरदस्तक-विशेषस्तम्भ

डिजिटलीकरण का नवीनीकरण और अध्यापक

सर्वेश कुमार मौर्य

स्तम्भ: दलित साहित्य के नामी लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी आत्मकथा -जूठन में अध्यापकों से जुड़े एक प्रसंग में लिखते हैं- अध्यापकों का आदर्श रूप जो मैंने देखा वह अभी तक मेरी स्मृति से मिटा नहीं है। जब भी कोई आदर्श गुरू की बात करता है तो मुझे वे तमाम शिक्षक याद आ जाते हैं जो मां बहन की गालियां देते थे।

सुंदर लड़कों के गाल सहलाते थे और उन्हें अपने घर बुलाकर उनसे वाहियातपन करते थे। वे आगे लिखते हैं- एक रोज हेडमास्टर कलीराम ने अपने कमरे में बुलाकर पूछा- क्या नाम है बे तेरा? ओमप्रकाश। मैंने डरते-डरते धीमे स्वर में बताया। चूहड़े का है? हेडमास्टर का दूसरा सवाल उछला। जी, ठीक है.. वह जो सामने शीशम का पेड़ खड़ा है, उस पर चढ़ जा और टहनियां तोड़कर झाड़ू बणा ले। पत्तों वाली झाड़ू बणाना और पूरे स्कूल को ऐसे चमका दे जैसे सीसा।

तेरा तो यो खानदानी काम है। जा फटाफट लग जा काम पे। अबे ओ चूहड़े के, मादरचोद कहां घुस गया, अपनी मां। उनकी दहाड़ सुनकर मैं थरथर कांपने लगा था। हेडमास्टर ने लपक कर मेरी गर्दन दबोच ली थी। उनकी उंगलियों का दबाव मेरी गर्दन पर पड़ रहा था। जैसे कोई भेड़िया बकरी के बच्चे को दबोच कर उठा लेता है। कक्षा से बाहर खींच कर उन्होनें मुझे बरामदे में ला पटका। चीखकर बोले जा लगा पूरे मैदान में झाड़ू नहीं तो गांड में मिर्ची डाल के स्कूल से बाहर कर दूंगा।

अपनी आत्मकथाओं-आत्मकथ्यों में हाशिये के समुदायों से आने वाले प्रो. तुलसीराम (मुर्दहिया), सुशीला टाकभौरे (शिकंजे का दर्द), ट्रांसजेंडर धनंजय चौहान (एड्मिटेड) आदि ने इसी तरह के दर्दनाक अनुभवों  को साझा किया है। इन अनुभवों से अध्यापकों की जो छवि बनती है, वह हमारी रूह कंपा देती है। भारतीय समाज में विद्यार्थियों के साथ अध्यापकों की ज्यादती, जातिमूलक भेदभाव, पितृसत्तात्मक रवैया, स्वयं को प्रकाशपुंज समझने की गलतफहमी बेहद आम बात है।

यहां मेरा उद्देश्य इन उदाहरणों से गुरु के अवमूल्यन या उसकी राक्षसी छवि निर्माण का बिल्कुल नहीं है बल्कि भारतीय परंपरा, इतिहास और वर्तमान में उस छवि को देखने-दिखाने का है, जो सत्ता-संरचना का रक्षा कवच बन ज्ञानसत्ता की निर्मिति करती है। यूँ ही नहीं हमारी भारतीय परम्परा में गुरु छवि अलौकिकता से लदी फंदी है व  ज्यादातर व्यवहारिक उदाहरण इसके उलट मिलते हैं। याद करिए संत कबीर को जो गुरु के लिए भटके थे। वे बखूबी जानते रहे होंगे कि भारतीय परंपरा में, उनके अपने समय समाज में गुरु कैसे कैसे हैं। इसीलिए वे बेहद सजग रूप से गुरु चुनने की बात करते हैं। अंधे अंधा ठेलिया वाली परम्परा के दृष्टिहीन करने वाले गुरुघंटालों से बचने और दृष्टिवान बनाने वाले सद्गुरुओं की खोज की सलाह देते हैं। सच तो यह है कि हमारी भारतीय परंपरा में न तो सभी गुरु बन सकते हैं, न ही सभी गुरु को पा सकते हैं। उसके लिए किसी खास जाति में जन्म लेना अनिवार्य है।  

यह दुखद सत्य है कि हमारे अधिकांश अध्यापक आज भी इसी परंपरा, दर्शन, दृष्टि के पालक-पोषक हैं। इस सच को जानना और मानना बेहद जरूरी है कि पुरातन गुरु व अधुनातन अध्यापक सत्ता-संरचना का ही अभिन्न अंग हैं, ये गुरु लोग अपनी सभी कमियों-कमजोरियों इच्छाओं से प्रेम करने वाले जीते-जागते मनुष्य है।

यदि वे आदर्श से इतर अ-मनुष्य, करप्ट, कामचोर व उदासीन हैं, तो इसमें सत्ता-संरचना की भी महती भूमिका है। भारतीय परम्परा में इस किस्म के अध्यापकीय छवि निर्माण को सत्ता की निजी छवि निर्माण की प्रक्रिया के तौर पर देखा जाना चाहिए, साथ ही वह राजनीति भी समझी जानी चाहिए जिसमें सत्कर्म प्रायः तंत्र की उपलब्धि और कुकर्म प्रायः व्यक्ति के मत्थे मढ़ दिया जाता है। इस बात को समझना और इससे मुक्ति भारत में अध्यापकीय नवाचार के लिए बेहद जरूरी है। इस पहली बाधा के साथ ही वर्तमान डिजिटलीकरण के संदर्भ में अध्यापकों के शैक्षिक नवाचार में कई और बाधाएं हैं, उन बाधाओं को चिन्हित किए बिना, उनसे निपटे बगैर वर्तमान डिजिटलीकरण व नवाचार के लक्ष्य को पाना मुश्किल है।      

नवाचार व डिजिटलीकरण के लक्ष्य में दूसरी बाधा है- विद्यार्थियों के बारे में अध्यापकों की पुरातन समझ। ज्यादातर विद्यालयों को देखिए तो वे आज भी बाल-सुधार गृह जैसे लगेंगे। जैसे वहां के हालात हैं, उसके चलते बच्चों की स्कूल से विरक्ति स्वाभाविक है। मुझे याद आते हैं अपने स्कूली अध्यापक जिनमें अधिकांश व्यक्तित्वहीन, लिजलिजे, घोर जातिवादी, पुरातनपंथी, प्रतिक्रियावादी थे।

एक अध्यापक जो कृषि-विज्ञान पढ़ाया करते थे, हमेशा नोट्स लेकर आते थे। उनके द्वारा सगर्व बताया जाता था कि इसी पुरातन नोट्स से कई पीढियां तर गयीं। अपने पूरे स्कूली समय में खेतिहर परिवार से आने के बावजूद जो बात मैं नहीं समझ सका- वह थी कृषि की गूढ़ बातें क्योंकि जिस भाषा, भाव-भंगिमा व पद्धति में कृषि-विज्ञान मुझ जैसों को पढ़ाया गया वह अलग लोक का था। और अनुशासन का ऐसा आतंकित करने वाला माहौल बनाया गया था कि स्कूल का नाम लेते ही रूह कांपने लगती थी। कोई यह कह सकता है कि आप जिन स्कूलों की बात कर रहे हैं, वे बीते दिनों की बात है। अब स्कूलों में काफ़ी बदलाव हो चुके हैं। यह सच है कि बदलाव हुए हैं लेकिन वे इतने नाकाफी और कम है कि इनसे निष्कर्षों पर बहुत प्रभाव नहीं पड़ने वाला। अध्यापकीय नवाचार के लिए विद्याथियों को अज्ञानी मिट्टी का लोंदा और खुद को सर्वज्ञानी कुम्हार मानने वाली धारणा बदलना जरूरी है।

तीसरी बाधा है- अध्यापकों की व्यक्तिगत उदासीनता। आंकड़े बताते हैं 4 में से 1 सरकारी स्कूल में रोज कोई-न-कोई अध्यापक छुट्टी पर लेता है। ऐसा देखा गया है, इधर के ज्यादातर अध्यापक रूचि से इस पेशे में नहीं आए या यह उनकी प्राथमिकता में ही नहीं था। वे यहाँ हैं क्योंकि यहां नौकरी है, अच्छे पैसे हैं, मान-सम्मान है अथवा उनके पास कोई विकल्प नहीं है। नतीजन आने के बाद पढ़ाने के बजाय वे रियल एस्टेट बिजनेस, एजेंटी या नेतागिरी आदि में अपनी आइडेंटिटी ढूंढते हैं। ऐसे में अध्यापकों से अध्यापन या नवाचार की उम्मीद करना दिवास्वप्न ही है।

चौथी बाधा है- अध्यापन के अतिरिक्त कार्यभार। कुछ अध्यापक नवाचारी होना चाहते हैं, कुछ करना चाहते हैं, उनके मन में एक ललक है। लेकिन उनकी स्थितियों को देखें तो यह समझ में आएगा कि नवाचारी अध्यापन उनके लिए कोई आसान चीज नहीं। इनवाल्मेंट ऑफ़ टीचर्स इन नॉन टीचिंग एक्टिविटीज एंड इट्स इफ़ेक्ट ऑन एजुकेशन नामक शोध में नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ एजुकेशन एंड प्लानिंग ने चौंकाने वाला तथ्य पाया कि अध्यापक सिर्फ 19.1% समय ही पढ़ाने का काम करते हैं। बाकी समय वे इलेक्शन ड्यूटी, सरकारी सर्वे, पल्स पोलियो कैंपेन और मिड डे मील रजिस्टर बनाने में बिताते हैं।

गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, उड़ीसा और उत्तराखंड में गये इस सर्वे की रिपोर्ट बताती है कि राइट टू एजुकेशन एक्ट के अनुसार अनिवार्यतः अध्यापन 220 दिन होना चाहिए लेकिन वस्तुस्थिति यह थी कि 2015-16 के सत्र में अध्यापकों ने सिर्फ 42 दिन ही पढ़ाने का काम किया। इस सर्वे पाया गया कि 81% समय अध्यापकों ने ब्लॉक लेवल ऑफिसर के रूप में सर्वे करते हुए और चुनाव की ड्यूटीज करते हुए बिताया।

रिपोर्ट का यह भी कहना है कि 19.1% टीचिंग एक्टिविटीज में बिताए गए बाकी 81% टाइम में से 42.6% नॉन टीचिंग एक्टिविटीज में, 31.8% नॉन टीचिंग स्कूल रिलेटेड एक्टिविटीज में और 06.5 अदर डिपार्टमेंटल एक्टिविटी में बिताए गए। रिपोर्ट चिंता जताती है यदि इन विद्यालयों में अध्यापक ही नहीं होंगे तो बच्चों की शिक्षा-दीक्षा कैसे होगी? देखें- न्यूज18, 21 सितम्बर 2018।

पांचवी बाधा है- स्कूलों में अध्यापकों की अपर्याप्तता। देश के ज्यादातर सरकारी स्कूलों में एक या दो अध्यापक ही पूरे स्कूल का कामकाज देख रहे हैं। वही बेचारे पीर-बावर्ची-भिश्ती सब हैं। ऐसे में उनसे नवाचार की उम्मीद करना उन्हें संकट में डालने जैसा है। 30 जुलाई 2018 को पार्लियामेंट में दिए गए जवाब में बताया गया कि अध्यापकों के 900316 पद प्राथमिक विद्यालयों में व 107689 पद माध्यमिक विद्यालयों में कुल मिलाकर तकरीबन 10 लाख पद खाली हैं।

देखें- द प्रिंट, 16 अगस्त 2018। एक अन्य रिपोर्ट में बताया गया कि 2016 में प्राथमिक विद्यालयों में 17.51% माध्यमिक विद्यालयों में 14.78% अध्यापकों के पद खाली थे। प्राथमिक विद्यालयों में सबसे ज्यादा सीटें जहाँ खाली थीं। उनमें झारखंड 38.39%, बिहार 34.37%, दिल्ली 24.96%, पंजाब 23.39%, चंडीगढ़ 23.07% और उत्तर प्रदेश 22.99% सबसे ऊपर थे। माध्यमिक विद्यालयों में जहाँ सबसे ज्यादा सीटें खाली थी, उनमें उत्तर प्रदेश 50.00%, लक्षदीप 41.58%, बिहार 36.09%, त्रिपुरा 34.15% और चंडीगढ़ 28.98 सबसे ऊपर थे। देखें- एनडीटीवी, 4 दिसम्बर 2017। अब भी स्थितियाँ बहुत बदली नहीं हैं।

छ्ठी बाधा है- अप्रशिक्षित अध्यापकों की बहुतायत और उस पर लगातार बजट की कटौती यह बताती है कि इसको लेकर हम बहुत चिंतित भी नहीं है। ऐसे में नवाचार की कितनी गुंजाइश है, समझा जा सकता है। बिजनेस स्टैंडर्ड की एक रिपोर्ट बताती है कि छह में से एक अध्यापक प्रोफेशनली ट्रेंड नहीं हैं।

इस पक्ष को मजबूत करने की जरूरत है। टीचर ट्रेनिंग पर 2018-19 में सर्व-शिक्षा अभियान के बजट का सिर्फ 2% ही खर्च किया गया और इस बार के बजट में पिछले वर्ष की तुलना में टीचर ट्रेनिंग पर 15 करोड़ कम दिए गए हैं। अब यदि पेडगॉजी में गिरावट हुई तो इसका गहरा असर बच्चों की शिक्षा पर होगा। बिना अच्छी तरह से ट्रेनिंग दिए नवाचार और डिजिटलीकरण के लक्ष्य को पाना कठिन लगता है।

इन बाधाओं के साथ अधिकांश अध्यापकों को समय से पाठ्यक्रम समाप्त करने का दबाव, कक्षा का बड़ा स्वरूप, भाषा की समस्या, बुनियादी ढांचे की अपर्याप्तता आदि नवाचारी नहीं बनने देती। संभवतः इन्हीं कारणों से ट्रेनिंग दे करके भी लक्ष्य हासिल करना मुश्किल लगता है। ऐसे में हमारे अध्यापक जो कर रहे हैं उसी को बेहतर तरीके से कर ले यही बहुत है।

इन बाधाओं के रहते अध्यापकीय नवाचार और डिजिटलीकरण की गुंजाइशें बेहद क्षीण हैं इसलिए इन्हें हल करना ही होगा। सबसे पहले जिन्हें नवाचारी बनना है, उनके बारे में सोचा जाना चाहिए लेकिन सच तो यह है कि नीति निर्माण में सिर्फ कर्मकांड के लिए अध्यापकों की राय मांगी जाती है। ज्यादातर बार उनके बारे में सोचा नहीं जाता, नतीजन उनका अपना अभिमत ही कक्षाओं से बहिष्कृत हैं।  

(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक एनसीईआरटी में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।)

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