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कारगिल के इन वीरों को शत शत नमन जिन सपूतों ने अपनी आखिरी सांस देश के नाम कर दी

कारगिल युद्ध को दो दशक पूरे हो चुके हैं। इस युद्ध में भारत ने चार भारतीय जवानों को इस युद्ध में अदम्य साहस के लिए सेना का सर्वोच्च पदक परमवीर चक्र प्रदान किया गया था। इनमें से दो को मरणोपरांत यह पदक दिया गया था जबकि दो हमारे बीच आज भी मौजूद हैं। ग्रेनेडियर योगेंद्र सिंह यादव इस पदक को पाने वाले सबसे कम उम्र के जवान हैं। भारतीय जवानों ने इस युद्ध में अपने खून का आखिरी कतरा देश की रक्षा के लिए न्यौछावर कर दिया था। इन जांबाजों की कहानियां आज भी रोंगटे खड़े कर देती हैं।

इस युद्ध में भारतीय सेना के कई रणबांकुरों ने अपने प्राणों की आहुति देकर अपने देश का मान बनाए रखा और दुश्मन को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था। देश उन शहीदों को नमन कर रहा है जिन्होंने अपने प्राणों को न्यौछावर कर दिया। अदम्य साहस के बल पर पाकिस्तानी घुसपैठियों के छक्के छुड़ा दिए। विजय दिवस के मौके पर हम उन सूरमाओं के बारे में बता रहे हैं जो देश के लिए आन, बान और शान हैं।

कैप्टन मनोज कुमार पांडे

जन्म : 25 जून 1975, सीतापुर, उत्तर प्रदेश
शहीद हुए : 3 जुलाई 1999 (24 वर्षीय)
यूनिट : 11 गोरखा राइफल की पहली बटालियन (1/11 जीआर)
मरणोपरांत परम वीर चक्र

कारगिल युद्ध के दौरान 11 जून को उन्होंने बटालिक सेक्टर से दुश्मन सैनिकों को खदेड़ दिया। उनके नेतृत्व में सैनिकों ने जुबार टॉप पर कब्जा किया। वहां दुश्मन की गोलीबारी के बीच भी आगे बढ़ते रहे। कंधे और पैर में गोली लगने के बावजूद दुश्मन के पहले बंकर में घुसे। हैंड-टू-हैंड कॉम्बैट में दो दुश्मनों को मार गिराया और पहला बंकर नष्ट किया। उनके साहस से प्रभावित होकर सैनिकों ने दुश्मन पर धावा बोल दिया। अपने घावों की परवाह किए बिना वे एक बंकर से दूसरे बंकर में हमला करते गए।

आखिरी बंकर पर कब्जा करने तक वे बुरी तरह जख्मी हो चुके थे। यहां वह शहीद हो गए। उनके आखिरी शब्द थे- ‘ना छोड़नूं’ (नेपाली भाषा में ‘उन्हें छोड़ना नहीं’)। कैप्टन पांडे की इस दिलेरी ने अन्य प्लाटून और बटालियन के लिए आधार तैयार किया, जिसके बाद ही खालूबार पर कब्जा किया गया। इस अदम्य साहस के लिए उन्हें मरणोपरांत सेना का सर्वोच्च मेडल परम वीर चक्र प्रदान किया गया। उन्हें ‘हीरो ऑफ बटालिक’ भी कहा जाता है।

ग्रेनेडियर योगेंद्र सिंह यादव

जन्म: 10 मई 1980, उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर
यूनिट : 18वीं ग्रेनेडियर्स
ग्रेनेडियर, बाद में सूबेदार मेजर
परमवीर चक्र

सबसे कम आयु में ‘परमवीर चक्र’ प्राप्त करने वाले इस वीर योद्धा योगेंद्र सिंह यादव का जन्म उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जनपद के औरंगाबाद अहीर गांव में 10 मई, 1980 को हुआ था। 27 दिसंबर, 1996 को सेना की 18 ग्रेनेडियर बटालियन में भर्ती हुए योगेंद्र की पारिवारिक पृष्ठभूमि भी सेना की ही रही है, जिसके चलते वो इस ओर तत्पर हुए। उनके पिता भी करन सिंह यादव भी भूतपूर्व सैनिक थे वह कुमायूं रेजिमेंट से जुड़े हुए थे और 1965 तथा 1971 की लड़ाइयों में हिस्सा लिया था।

कारगिल युद्ध में योगेंद्र का बड़ा योगदान है। उनकी कमांडो प्लाटून ‘घटक’ कहलाती थी। उसके पास टाइगर हिल पर कब्जा करने के क्रम में लक्ष्य यह था कि वह ऊपरी चोटी पर बने दुश्मन के तीन बंकर काबू करके अपने कब्जे में ले। इस काम को अंजाम देने के लिए 16,500 फीट ऊंची बर्फ से ढकी, सीधी चढ़ाई वाली चोटी पार करना जरूरी था।

इस बहादुरी और जोखिम भरे काम को करने का जिम्मा स्वेच्छापूर्णक योगेंद्र ने लिया । और अपने देश की मिट्टी का कर्ज अदा किया।

हवलदार यश वीर सिंह तोमर

जन्म: 04 जनवरी, 1960 सिरसाली, उत्तर प्रदेश
शहीद हुए : 13 जून, 1999
यूनिट : 2 राजपूताना राइफल
मरणोपरांत वीर चक्र

कारगिल युद्ध के दौरान 18 ग्रेनेडियर्स को तोलोलिंग चोटी पर कब्जा करने का निर्देश मिला। ग्रेनेडियर्स के कई विफल प्रयासों के बाद राजपूताना रायफल की दूसरी बटालियन को हमले के लिए आगे किया गया। ग्रेनेडियर्स ने तीन प्वाइंट से राजपूताना को कवर दिया। मेजर विवेक गुप्ता के नेतृत्व में 90 सैनिक अंतिम हमले के लिए आगे बढ़े। इसी पलटन में यश वीर भी शामिल थे। यह पलटन प्वाइंट 4950 को अपने कब्जे में लेने के आखिरी चरण में थी।

12 जून को पाकिस्तान की तरफ से भारी गोलाबारी के बीच जब भारतीय सैनिक एक एक कर शहीद हो रहे थे, तो हवलदार यश वीर सिंह ने ग्रेनेड लेकर पाकिस्तानी बंकरों पर धावा बोला। उन्होंने बंकरों पर 18 ग्रेनेड फेंके और दुश्मनों को मार गिराया। उनके साहस को देखकर दुश्मनों के छक्के छूट गए। उनके पैर उखड़ने शळ्रू ही हुए थे कि इस दौरान वे गंभीर रूप से जख्मी हुए और शहीद हो गए। जब उनका शरीर मिला तो उसके एक हाथ में रायफल और दूसरे में ग्रेनेड थे। तोलोलिंग फतह करने में उनका बहुत बड़ा योगदान रहा। उन्हें मरणोपरांत वीर चक्र से सम्मानित किया गया।

कैप्टन विक्रम बत्रा

जन्म: 9 सितंबर, 1974, पालमपुर, हिमाचल प्रदेश
शहीद हुए : 7 जुलाई, 1999 (24 वर्ष)
यूनिट : 13 जेएंडके राइफल
परम वीर चक्र

इंडियन मिलिट्री एकेडमी से पासआउट होने के बाद 6 दिसंबर, 1997 को लेफ्टिनेंट के तौर पर सेना में भर्ती हुए। कारगिल युद्ध के दौरान उनकी बटालियन 13 जम्मू एंड कश्मीर रायफल 6 जून को द्रास पहुंची। 19 जून को कैप्टन बत्रा को प्वाइंट 5140 को फिर से अपने कब्जे में लेने का निदेश मिला। ऊंचाई पर बैठे दुश्मन के लगातार हमलों के बावजूद उन्होंने दुश्मन के छक्के छुड़ा दिए और पोजीशन पर कब्जा किया। उनका अगला अभियान था 17,000 फीट की ऊंचाई पर प्वाइंट 4875 पर कब्जा करना। पाकिस्तानी फौज 16,000 फीट की ऊंचाई पर थीं और बर्फ से ढ़कीं चट्टानें 80 डिग्री के कोण पर तिरछी थीं।

7 जुलाई की रात वे और उनके सिपाहियों ने चढ़ाई शुरू की। अब तक वे दुश्मन खेमे में भी शेरशाह के नाम से मशहूर हो गए थे। साथी अफसर अनुज नायर के साथ हमला किया। एक जूनियर की मदद को आगे आने पर दुश्मनों ने उनपर गोलियां चलाईं, उन्होंने ग्रेनेड फेंककर पांच को मार गिराया लेकिन एक गोली आकर सीधा उनके सीने में लगी। अगली सुबह तक 4875 चोटी पर भारत का झंडा फहरा रहा था। इसे विक्रम बत्रा टॉप नाम दिया गया। उन्हें परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया।. *एक सैनिक की कलम से

लौट कर आऊंगा यह वादा तो नहीं करता।
इस माटी का क़र्ज़ कभी अदा नहीं कर सकता।

पता है मुझे की हो जाएंगे अपने ही कभी खफा क्या करूं यही है इस माटी का नशा

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