साहित्य

लिंचिंग ट्रेनिंग कैंप में कुछ पल

आदित्य राज

कविता

देखा है तुमने?, खाकियों पर टंगे मुखौटों के सामने
लाठियों का नंगा नाच, अच्छा! तुम क्या करोगे?
जब तुम्हारा मस्तिष्क को खोल कर
भर दिया जाएगा उसमें सिर्फ नंगी तलवारें

जब तुम्हारा दिल निकाल कर
वहां रख दिया जाएगा धधकता आग का गोला
जब तुम्हारे भूखे पेट की अतड़ियां निकाल कर
उसे रख दिया जाएगा तुम्हारे आंखों के सामने

तब तुम क्या करोगे?
तुम शहर जलाना, मेरी तरह,  मैं ये शहर जलाना चाहता हूं, क्यों!
क्योंकि, मेरे कई पांव तख्त पर हैं, मैं वादा करता हूं
इस शहर का हरेक शख्स, एक नाम दो बार लगातार बोलेगा

वो नाम किसी ईश्वर नहीं, भय का प्रतीक हो जाएगा
इस शहर की बकरियां, गायें नजर आने लगेंगी
और ट्रकें सिर्फ गोश्तों से भरा नजर आएगा
तब देखना, खाकियों पर टंगे मुखौटों के सामने

लाठियों का नंगा नाच, मैं देवताओं को प्रेरित करूंगा
तोड़ लाएं मस्जिदों की ईटें, अल्लाह मियां से कहूंगा
चुरा लाएं मंदिरों के पत्थर, तब देखना शहर जल उठेगा
आग की लपटों में सना, धूं-धूं जलता शहर

कह दिए जाएंगे दिवाली का जश्न, सड़कों पर बहता लहू
उठता धूल का बवंडर, कह दिए जाएंगे होली के रंग- ओ- अबीर
चीखते- चिल्लातें लोगों की तड़प, कह दिए जाएंगे लय-बद्ध संगीत
सब देखेंगे मुझे आग बुझाते हुए, पर मैं पानी की जगह पेट्रोल छिड़कूंगा

तब देखना, खकियों पर टंगे मुखौटों के सामने
लाठियों का नंगा नाच, पर हां !
जलते शहर को देखकर, दौड़ पड़ेंगे कुछ लोग
सड़कों से संसद की ओर, उन्हें रोकना

गर जल गया संसद तो, जल जाएगा-वंदे मातरम
जल जाएगी-भूखमरी, जल जाएगी-बेरोजगारी
जल जाएगी-गरीबी, और जल जाओगे तुम
उन्हें रोकना, वरना कभी नहीं देख पाओगे
खाकियों पर टंगे हुए मुखौटों के सामने
लाठियों का नंगा नाच

(स्नातकोत्तर छात्र- काशी हिंदू विश्वविद्यालय/ यह कवि की स्वतंत्र भावनाएं है)

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