एक दंगा : यादगार पर दर्द भरा !
स्तम्भ: हिन्दू-मुस्लिम दंगों के लम्बे इतिहास में मुरादाबाद वाला (13 अगस्त 1980) कई मायनों में सूचक रहा, द्योतक भी । विरला था। उसके आज ठीक चालीस वर्ष हो गए। रिपोर्टिंग पर मैं मुरादाबाद गया था। खूनी वारदात का मैं साक्षी रहा। सप्ताहभर “टाइम्स ऑफ़ इंडिया”(दिल्ली संस्करण) के मुख पृष्ठ पर लगातार छपता रहा। लखनऊ में संस्करण तब नहीं था।
बलवाई तत्वों को सम्यक बोध हो गया था कि शासन में राजनीतिक इच्छा शक्ति भरपूर है। वह लिबलिबा नहीं है। इसीलिए पहली बार मार्क्सवादी कम्युनिस्ट, सत्तारूढ़ कांग्रेसी, अकादमिक लोग, न्यायविद सभी सहमत थे कि इस्लामी कट्टरता ही इस दंगे की दोषी है। फसाद का कारण रहा कि ईदगाह में एक चौपाया घुस आया था। शूकर था।
पुलिस ने पहले नमाजियों को समझाने का यत्न किया। फिर भी उत्पात थमा नहीं। खाकसार पार्टी (जिन्नावादी अल्लामा मशरीकी की) ने मुगलपुरा, गुलशहीद, नागफनी के साथ कई थाने जला दिये। अतिरिक्त जिलाधिकारी (डी.पी. सिंह) और कुछ सिपाहियों की हत्या हो गयी। पुलिस ने बल प्रयोग किया। करीब तीन सौ लाशें गिरीं। मासभर कर्फ्यू लगा रहा। गिरफ्तारियां हजारों में हुईं। दंगे के तुरंत बाद मुख्यमंत्री ने अपने दो काबीना मंत्री मियाँ अब्दुल रहमान नश्तर (उद्योग) तथा जगदीश प्रसाद (न्याय) को शांति स्थापित करने हेतु मुरादाबाद भेजा था। तब विश्वनाथ प्रताप सिंह को सत्ता संभाले दो माह ही हुए थे। इंदिरा गाँधी पुनः प्रधानमंत्री बन गयीं थीं।
सर्वाधिक कमनसीब वाले थे मुरादाबाद के सप्ताह भर पूर्व ही नियुक्त हुए जिलाधिकारी एस.पी. आर्य, जो बाद में मुख्यमंत्री ठाकुर राजनाथ सिंह के प्रमुख सचिव बने। वे माह भर बाद लखनऊ तबादले पर आकर मेरे ठीक ऊपर के मकान में रहे। मैं राजभवन कॉलोनी के 39 नम्बर में था। आर्या जी 40 में । पड़ोस वाले 37 में श्री नवीनचन्द्र वाजपेयी जी थे, जो बाद में अखिलेश यादव शासन में प्रदेश के मुख्य सचिव बने।
तभी मेरे रिपोर्ताज के खिलाफ दिल्ली के किसी इस्लामिस्ट ने साम्प्रदायिकता का आरोप लगाकर भारतीय प्रेस काउंसिल में गम्भीर शिकायत दर्ज कर दी। काउंसिल अध्यक्ष न्यायमूर्ति अमरनाथ ग्रोवर थे। ये वही व्यक्ति थे जिन्हें इंदिरा गाँधी ने भारत के प्रधान न्यायाधीश बनने से अवरुद्ध कर, अपने चहेते ए.एन. राय को आपातकाल के दौर में सीजेआई नामित कर दिया था। मेरे विरुद्ध कई वरिष्ठ मुस्लिम न्यायवेत्ता काउंसिल के समक्ष उपस्थित हुए। पर मेरी किसी भी रपट को तथ्यहीन अथवा सांप्रदायिक नहीं पाया गया। मैं निर्दोष सिद्ध हो गया।
मैंने लिखा था कि सऊदी अरब से इस पीतल नगरी में रियाल भेजकर मजहबी जहर फैलाया जा रहा है। बर्तनों के दाम कई गुना बढ़ाकर निर्यात होता है, और भारी रकम उन निर्माता मुसलमानों को गुप्तरूप से दे दी जाती है। इस लाभांश से मस्जिदों का निर्माण और पुरानी का नवीनीकरण, मदरसे में वहाबी कट्टर शिक्षा तथा गजवा-ए-हिंद द्वारा इस हिन्दू-बहुल भारत को दारुल-इस्लाम बनाना आदि में निवेश किया जाता रहा।
मैंने लिखा था कि हज पर जाने वाले मुल्ले लौटते समय आधुनिक शस्त्र लाते हैं, जिनका दंगों में उपयोग होता है। ये सब रपटें “टाइम्स ऑफ़ इंडिया” के प्रथम पृष्ठ पर चार दशक पूर्व सुर्खी में मुद्रित हुईं थीं। किन्तु ऐसा लिखनेवालों में मैं अकेला नहीं था। बम्बई के प्रसिद्ध वामपंथी “एकनामिक एण्ड पोलिटिकल” साप्ताहिक में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट विचारक रोमेश थापर ने भी मुरादाबाद दंगों पर लिखा था कि “हिन्दू सम्प्रदायवाद से लड़ाई तभी सफल होगी जब इस्लामी सम्प्रदायवाद खत्म हो।”
(30 अगस्त 1980 का लेख, 26 सितम्बर के साप्ताहिक अंक में प्रकाशित)। ये रोमेश थापर मास्को में कई वर्ष रहे। विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन में सक्रिय थे । इनकी बहन रोमिला थापर हैं, जो भारतीय इतिहास को विकृत करके लिखती हैं । घोर मोदी-आलोचक टीवी पत्रकार करण थापर इन्हीं के निकट सम्बन्धी हैं। करण के पिता जनरल प्राणनाथ थापर सेनाध्यक्ष थे, जब चीन ने (20 अक्टूबर 1962 में) भारत को पूर्वोत्तर सीमा पर हराया था।
वामपंथी लेखक के. आर. कृष्ण गाँधी ने तो इस्लामी राष्ट्रों को ही मुरादाबाद दंगे के लिए अपराधी माना था। पड़ोसी तहसील संभल के समाजवादी सांसद शफीकुर्रहमान बर्क (जो संसद में “वन्दे मातरम्”के गायन पर वाकआउट कर जाते थे) और सांसद सैय्यद शहाबुद्दीन ने तब इन दंगों पर हंगामा खड़ा किया था। जालिम हिन्दुओं पर कार्रवाई की मांग की थी।
दंगों की जांच हेतु कांग्रेसी सीएम विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एमपी सक्सेना की अध्यक्षता में समिति गठित की। इसी जांच के दौरान जस्टिस सक्सेना अवसाद के शिकार हो गए थे क्योंकि उनके पुत्र का अपहरण हो गया था। आज चालीस साल हो गए। यह जांच रपट राज्य विधान मंडल में प्रस्तुत ही नहीं की गयी।
हालाँकि अबतक इक्कीस मुख्यमंत्री पद संभाल चुके हैं। एक भी पुलिस प्राथमिकी दर्ज नहीं की गयी। कोई न तो दण्डित हुआ, न कोई मुआवजा दिया गया। मूलतः यह दलित बनाम मुसलमान दंगा था। दंगे के पांच माह पूर्व एक दलित युवती को मुस्लिम युवक (मार्च 1980) उठा ले गए थे। मारपीट हुई। ईदगाह के आस पास खटिक और सुन्नी बस्तियां हैं। कई बार विवाह पर दलित जोर से संगीत बजाते हैं तो उनपर मस्जिद से हमला होता है।
इन दंगों का कारण बताया न्यायमूर्ति सक्सेना ने कि राजनेताओं ने मुसलमान वोट बैंक के दबाव में साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया था। मुरादाबाद के तत्कालीन पुलिस अधीक्षक श्री धर्मवीर मेहता, जो पुलिस महानिदेशक हुए, ने कहा था कि “कठोर (इस्पाती) कदम से ही शांति स्थापित होगी।”
इस सन्दर्भ में तत्कालीन पुलिस उपमहानिदेशक (बरेली जोन) प्रकाश सिंह (बाद में कई उच्च पुलिस पदों पर रहे), ने मुझे बताया था कि विभाजन की बेला पर मोहम्मद अली जिन्ना ने कराची से ढाका (तब पूर्वी पकिस्तान) के संपर्क मार्ग हेतु गलियारा माँगा था, जिसे सरदार पटेल ने ख़ारिज कर दिया था। पश्चिम उत्तर प्रदेश में उस गलियारे में संभल, मुरादाबाद, रामपुर आदि समावेशित हो जाते। यह सब घनी मुस्लिम आबादी वाले स्थल हैं । यह खास कारण है जिससे ये शहर हिन्दू-मुस्लिम तनाव का आज भी केंद्र बने रहते हैं। स्मरण रहे कि 1946 में पाकिस्तान के पक्ष में यहाँ व्यापक समर्थन मुस्लिम लीग को मिला था।
यह दंगा संजय गाँधी द्वारा नामित (9 जून 1980) मुख्यमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह हेतु अपशकुन लेकर आया था। उसी दौर में पूर्वी उत्तर प्रदेश में भीषण बाढ़ का प्रकोप हुआ था। शासन दंगा और बाढ़ से ग्रसित था। मेरी एक विशेष रपट “टाइम्स ऑफ़ इंडिया” में छपी थी।
शीर्षक था : “UP C.M. faces flood in the east and blood in the west.” बहुत चर्चित हुई थी तब। मेरे जेहन में दो दंगों की याद अभी शेष है : अहमदाबाद (1969) तथा हैदराबाद (1984) जिन्हें मैंने देखा और लिखा। उनकी बाबत फिर कभी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)