बिना दूर्वा के सम्पूर्ण नहीं होती गणेश की पूजा
ज्योतिष : इस वर्ष यानि 2020 में गणेश चतुर्थी (Ganesh chaturthi) 22 अगस्त को पड़ रहा है। गणेश चतुर्थी के दिन प्रथम पूजनीय गणेश का जन्मोत्सव उल्लास व उत्साह से मनाया जाता है। वैसे तो हर महीने की चतुर्थी तिथि को गणेश पूजा का विधान है लेकिन भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि का अपना विशेष महत्व है। इस दिन नियम पूर्वक विधि-विधान के साथ भगवान गणेश की पूजा की जाती है और उनकी अतिप्रिय दूर्वा घास भी चढ़ाई जाती है। क्योंकि बिना दूर्वा या दूब घास के गणेश की पूजा पूरी नहीं होती है।
गणेश पूजा में विनायक को 21 बार 21 दूर्वा की गाठें अर्पित करना चाहिए। इससे वह बहुत जल्द प्रसन्न हो जाते हैं और भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी करते हैं। बिना दूर्वा के भगवान गणेश की पूजा अधूरी मानी जाती है। दरअसल इसके पीछे एक कथा है कि आखिर भगवान गणेश को दूर्वा घास क्यों पसंद है। कथा के अनुसार, एक बार अनलासुर (Alnasur) नाम का एक राक्षस था, वह साधु-संतों को निगल लेता था। जिसके प्रकोप से चारों तरफ हाहाकार मचा। तभी सभी ने मिलकर गणेशजी की प्रार्थना की और अनलासुर के बारे में बताया। गणेशजी अनलासुर के पास गए और उसको ही निगल लिया। इसके बाद उनको परेशानी होने लगी और पेट में जलन होने लगी। तभी कश्यप ऋषि ने उस ताप को शांत करने के लिए गणेशजी को 21 दूर्वांकुर खाने को दीं। इससे गणेशजी का ताप शांत हो गया। इसके बाद से ही माना जाता है कि गणेशजी दूर्वांकुर चढ़ाने से जल्द प्रसन्न होते हैं।
इसके अलावा गणेश पुराण में दूर्वा को लेकर एक और कथा बताई जाती है। कथा के अनुसार, नारदजी भगवान गणेश को जनक महाराज के अंहकार के बारे में बताते हैं और कहते हैं कि वह स्वयं को तीनों लोकों के स्वामी बताते हैं। इसके बाद गणेशजी ब्राह्मण का वेश धारण कर मिथिला नरेश के पास उनका अंहकार चूर करने के लिए पहुंचे। तब ब्रह्माण (Brahmin) ने कहा कि वह राजा की महिमा सुनकर इस नगर में पहुंचे हैं और बहुत दिनों से भूखे हैं। तब जनक महाराज ने अपने सेवादारों से ब्राह्मण देवता को भोजन कराने के लिए कहा। तब गणेशजी पूरे नगर के अन्न खा गए लेकिन उनकी तब भी भूख शांत नहीं हुई। इस बात की जानकारी राजा को मिली और उसने अपने अंहकार के लिए गणेशजी से क्षमा मांगी। तभी ब्राह्मण रूप धरे गणेशजी गरीब ब्राह्मण त्रिशिरस के द्वार पर पहुंचते हैं। जहां उनको भोजन कराने से पहले ब्राह्मण त्रिशिरस की पत्नी विरोचना ने गणेशजी को दूर्वांकुर अर्पित किया। इसे खाते ही भूख शांत हो गई और वह पूरी तरह तृप्त हो गए।
इसके बाद गणेशजी ने दोनों को मुक्ति का आशीर्वाद दिया। तब से गणेशजी को दूर्वांकुर जरूर चढ़ाया जाता है। इसको चढ़ाने से पार्वती पुत्र की कृपा जल्दी भक्तों पर पढ़ती है। गणेश पुराण में दूर्वांकुर के महत्व को लेकर एक और कथा प्रचलित है। इस कथा के अनुासर, कौण्डिन्य की पत्नी आश्रया ने जब गणपति महाराज को दूर्वा घास चढ़ाई तब उसकी बराबरी कुबेर (Kuber) का पूरा खजाना तक नहीं कर पाया।
शास्त्रों में दूर्वा घास की ऐसी अद्भुत महिमा बताई है। इसी कारण सदियों से भगवान गणेश को दूर्वांकुर चढ़ााने की परम्परा चली आ रही है। गणेश पुराण के अनुसार, एक बार एक चांडाली और एक गधा गणेश मंदिर (Ganesh Mandir) में जाते हैं और वह कुछ ऐसा करते हैं कि उनके हाथों से दूर्वा घास गणेशजी के ऊपर गिर जाती है। गणपति जी इससे काफी प्रसन्न हुए और दोनों को ही अपने लोक में उच्च स्थान प्राप्त किया।