ब्राह्मण होने के लिए आंतरिक ऊर्जा को बनाना होता है उर्ध्वगामी
स्तम्भ : क्या ब्राह्मण जाति हैं? पहले वे समूहवाची वर्ण-वर्ग थे। साहित्य में ज्यादा यथार्थ में नगण्य। फिर ब्राह्मण पिता के पुत्र भी ब्राह्मण होने लगे। ब्राह्मण शब्द पीछे सौ सवा सौ वर्ष से विवाद का विषय है। पीछे कुछ माह से उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण को लेकर कुछेक समूहों में विलाप है। वेदों के बाद लिखे गए उपासना और विनियोग सम्बंधी साहित्य को ही पहले ब्राह्मण कहा गया। शतपथ ब्राह्मण, ऐतरेय ब्राह्मण और गोपथ ब्राह्मण आदि ग्रंथ हैं। इतिहास के हिसाब से इसे उत्तर वैदिक काल कहा जाता है। ब्रह्म शब्द इसी समय सृष्टि सम्पूर्णता या टोटैलिटी का पर्यायवाची बना। ऋग्वैदिक काल में ब्रह्म या ब्रह्मन का अर्थ अभूतपूर्व स्तोत्र या ऋचा का द्रष्टा भी था। अथर्ववेद के रचनाकाल में ब्राह्मण समूहवाची भी हो गया था। अथर्ववेद में आत्मदर्शन के साधक को ब्रह्मचारी बताया गया है। अथर्व के समय तक ब्राह्मण होना एक श्रमसाध्य उपलब्धि था। उपनिषदों में भी ब्राह्मण होना उपलब्धि है।
अथर्ववेद के (11वें अध्याय सूक्त 7) में ब्राह्मण बनने की रोचक विधि है – “ब्रह्मचारी अर्थात् समूची प्रकृति (ब्रह्म) के अनुसार चलने वाला व्यक्ति द्युलोक और भूलोक को अनुकूल बनाता है। तब प्रकृति की दिव्य शक्तियाँ – देवगण अंतःकरण में स्थित (देवाः संमनसौ भवन्ति) हो जाती हैं। (मन्त्र 1)यह प्रबोधन आचार्य के मार्गदर्शन में ही सम्पन्न होता है। बताते हैं, “ आचार्य उसे तीन रात तक अपने ज्ञानगर्भ में धारण करते हैं। जब वह बाहर आता है, दिव्यशक्तियाँ – (देवगण) उसका अभिनन्दन करती हैं।” (मन्त्र 2) यहां ‘तीन रात्रि’ का उल्लेख ध्यान देने योग्य है। आखिरकार तीन दिन क्यों नहीं कहा गया? रात्रि अंधकार है, अंधकार अज्ञान है, दिवस प्रकाश हैं, प्रकाश ज्ञान है। साधक ब्रह्मचारी के लिए ज्ञान गर्भ का प्रतीक रात्रि है। ज्ञान की दीप्ति दिवस है और परम दिव्यता है। दिव्यता की प्राप्ति के बाद देव शक्तियां स्वाभाविक ही अभिनंदन करती हैं। फिर कहते हैं, “ब्राह्मण होने से पूर्व साधक-विद्यार्थी ब्राह्मी-अनुशासन का अभ्यास करता है। वह ऊर्जा प्राप्त करता है, ऊध्र्वमुखी होता है फिर ब्राह्मण बनता है तो ज्येष्ठ ब्रह्म के निकट हो जाता है।” (वही मन्त्र 5) यहां योग के प्रतीक हैं। ऊर्जा प्राप्त करना और ऊध्र्व मुखी होना आसान नहीं है। ब्राह्मण होने के लिए आंतरिक ऊर्जा को ऊध्र्वगामी बनाना होता है।
ब्रह्मचारी का ज्ञान गर्भ में परिपूर्ण रूपान्तरण होता है। ऋषि बताते हैं “आचार्य ज्ञानगर्भ में ब्रह्मचारी के लिए पृथ्वी और द्युलोक का सृजन करते हैं।” (वही मंत्र 8) पृथ्वी और द्युलोक पहले से ही है। तब ज्ञान गर्भ में क्या नये पृथ्वी और द्युलोक के सृजन की बात कही गयी है? शरीर पृथ्वी का अंश है और चेतना द्युलोक का हिस्सा है। ज्ञान गर्भ में ब्रह्मचारी का पृथ्वी अंश सामान्य पृथ्वी अंश से परिष्कृत होता है। चेतन अंश भी परिशुद्ध निर्मल होता है। पतंजलि योग सूत्र में योग ध्यान के यही लाभ बताए गये है। अथर्व का ऋषि इसे ज्ञानगर्भ की घटना बता रहा है। आगे कहते हैं “ब्रह्मचारी अपनी तपसाधना से उनकी (नये पृथ्वी व द्युलोक) रक्षा करता है।” (वही) ब्रह्मचारी अपनी ज्ञान यात्रा में अपनी काया और चेतना का नया रूप विकसित करता है और इसी नये रूप की रक्षा करता है। फिर ब्राह्मण की सम्पत्ति के बारे में बताते हैं, “ब्राह्मण की सम्पदा निकटवत्र्ती गुफा (गुहा-अनुभूति) में रहती है और द्यु लोक के आधार से परे होती है।” (वही मन्त्र 10) ब्राह्मण हो गया व्यक्ति आंतरिक रूप में समृद्ध हो जाता है। भौतिक सम्पदा का आधार पृथ्वी है। इससे भी परे कोई सम्पदा हो तो द्युलोक आधार है लेकिन इस मन्त्र की सम्पदा “द्युलोक से भी परे” है।
ब्रह्मचर्या में बड़ी शक्ति है। कहते हैं “ब्रह्मचारी ही आचार्य बनता है। शासक भी इसी तप से राष्ट्र की रक्षा करते है – ब्रह्मचर्येण तपसा राजा राष्ट्रं वि रक्षति।” (वही मन्त्र 16-17) योग और आंतरिक अनुभूति से मनुष्य ब्रह्मविद् (सम्पूर्णता का जानकार) हो जाता है। इकाई सम्पूर्ण हो जाती है। बूंद सागर हो जाती है। आगे कहते हैं “इसी तप साधना से देवों ने मृत्यु पर विजय पायी।
इन्द्र भी इसी के जरिए शक्तिशाली हुए।” (वही मन्त्र 19) उत्तरवैदिक काल के बाद धारणा बनी कि जन्म से सब सामान्य होते हैं। संस्कार से ब्राह्मण बनते हैं लेकिन अथर्ववेद के अनुसार जन्म से कोई भी प्राणी गैर ब्राह्मण नहीं होता। जन्म से सम्पूर्ण प्राणिजगत् ब्रह्मचर्या वाला ही होता है। कहते हैं “औषधयो भूत भव्यमहोरात्रे वनस्पतिः, संवत्सरः सहुर्तभिस्ते जाता ब्रह्मचारिणः – औषधियां, वनस्पतियां भूत भविष्य, अहोरात्र, संतव्सर ये सभी जन्मजात ब्रह्मचारी हैं।” (वही मन्त्र 20) साथ में “पृथ्वी के सभी प्राणी, आकाश में विचरने वाले जीव, वन्य जीव, ग्रामीण पशु, बिना पंखवाले और पंखवाले पक्षी जन्मजात ब्रह्मचारी होते हैं।” (वही मन्त्र 21) अथर्ववेद की दृष्टि में कीट पतिंग, पशु पक्षी और सभी मनुष्य ब्रह्मचारी हैं। ब्राह्मण होने की संभावना सबमें है। यह बात स्मृतिकाल से बिल्कुल अलग है। स्मृतियों के अनुसार जन्म से सभी शूद्र है, ज्ञार्नाजन/संस्कार से ब्राह्मण हो जाते हैं। अथर्ववेद का मत सही है कि जन्म से सभी ब्रह्मचारी हैं, कर्म क्षेत्र में जाकर श्रम विभाजन के फलस्वरूप वर्ण, वर्ग बनते हैं। फिर कोई बिरले ही लोग अपनी प्राण ऊर्जा को ऊध्र्वमुखी बनाते हैं और आत्मबोध को प्राप्त होते हैं और ब्राह्मण बनते हैं। कुछेक रूढ़िवादी विराट पुरूष के मुख से ब्राह्मण की उत्पत्ति बताते हैं। वे ऋग्वेद के पुरूष सूक्त का उल्लेख करते हैं। विराट पुरूष के मुख से सीधे ब्राह्मण कैसे पैदा होंगे?
ऋग्वेद जैसे उच्च स्तरीय काव्य तक पहुंचने के लिये हजारों वर्ष की संस्कृति चाहिए। ऋग्वेद की पूर्वकालीन संस्कृति में वर्ण विभाजन होते, तो ऋग्वेद में उनका उल्लेख होता। ऋग्वेद में पूर्वकालीन देवों के उल्लेख हैं। ऋग्वेद में जन्मना जाति या वर्ण नहीं है। ब्राह्मण का अर्थ स्तुति, या स्तोत्र ही आया है। ऋग्वेद का ‘पुरूष’ सम्पूर्णता का पर्याय है। यह सम्पूर्णता को घेरता है, भीतर भी रहता है और बाहर से भी आच्छादित करता है। पुरूष सूक्त (10वाँ मण्डल) में ब्राह्मण राजन्य, वैश्य, शूद्र के उल्लेख हैं, लेकिन वर्णो के नहीं। इस सूक्त में भी ‘ब्राह्मण’ का अर्थ स्तोत्र/स्तोता ही है। ऋग्वेद का पुरूष सूक्त दार्शनिक है। ऋषि कहते हैं “पुरूष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भत्यं – यह पुरूष ही सब कुछ है, जो हो गया, जो होगा सब पुरूष है।” (ऋ0 10.90.2) बात पूरी हो गयी। भूत, वर्तमान और भविष्य ‘पुरूष’ ही है। ऋषि आगे कहते हैं, “पुरूष का विभाजन होने लगा, भूमि आदि पिण्डो और प्राणियों की उत्पत्ति हुई।” (वही: 5) लेकिन आगे इसी पुरूष को यज्ञ प्रतीक देते हैं।
यज्ञ वैदिक काल की प्रीतिकर संस्था थी। कहते हैं, “देवताओं ने उस विराट पुरूष को ह्वि बनाया। मंत्र 11 ध्यान देने योग्य हैं “यत्पुरूषं व्यदधु कतिधा व्यकल्पयन – ज्ञानी जन इस पुरूष की कितने प्रकार से कल्पना करते हैं? कि उसका मुख क्या है? बाहु और पाद क्या है?” ‘कतिधा कल्पयन’ विचारणीय है। पुरूष विराट है तो कल्पनाए भी तमाम होंगी।
ब्राह्मण राजन्य वैश्य शूद्र वाला मंत्र 12 इसी कल्पना का विस्तार है। यहां पुरूष का मुख ब्राह्मण है। सबका मुख ब्राह्मण ही होता है। मुख से ही वाणी निकलती है। सभी परवर्ती वर्णो का मुख ब्राह्मण ही है। फिर बताते हैं, “बाहू राजन्य हैं।” पुरूष, एक विराट ‘पुर’ (नगर) है। पुर की रक्षा का काम बाहु-हाथ करते हैं। इस कल्पना में सबके हाथ भी राजन्य हैं। इसी तरह पुरूष का पेट वैश्य है। वैश्य संग्रही वृत्ति का प्रतीक है। सभी का पेट वैश्य है, संग्रही है। पैर आधार हैं। शूद्र भी आधार हैं। आधार पर ही संग्रह, सुरक्षा और शीर्ष का ढांचा खड़ा होता है। ऋग्वेद में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र का अर्थ वर्ण या जाति नहीं है। प्रत्येक मनुष्य का मुख वाक् केन्द्र है, प्रत्येक मनुष्य के बाहु सुरक्षा हैं, प्रत्येक मनुष्य का पेट संग्रह केन्द्र है और प्रत्येक मनुष्य के पैर आधार है, गति प्रगति के उपकरण हैं। समाज में वर्ण जाति नहीं है। भारत के सुदूर अतीत में एक वर्णहीन, जातिविहीन, समतामूलक समरस समाज था। वैसा ही वर्णहीन जातिहीन समाज बनाना राष्ट्र की अपरिहार्यता है। अब वर्ण जाति की विदाई जरूरी है।
(रविवार पर विशेष)
लेखक वरिष्ठ अधिवक्ता हैं और वर्तमान में उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हैं।