दस्तक-विशेष

मोदी चुप क्यों हो जाते हैं

Captureत्याओं के बीच कोई कुत्ता बोल रहा है, कोई पिल्ला कह रहा है, कोई आतंकवादी तो कोई देशद्रोही कह रहा है। कोई रामजादे-हरामजादे का वर्गीकरण पेश कर रहा है, कोई पाकिस्तान भेज रहा है तो कोई अरब सागर में डुबो रहा है, कोई दस बच्चे पैदा करने की सलाह दे रहा है। कोई महिलाओं की आज़ादी को नंगापन कह रहा है, कोई कह रहा है रेप इंडिया में होते हैं भारत में नहीं, कोई मटन और बीफ़ की तुलना पत्नी और बहन से कर रहा है…………. और प्रधानमंत्री मोदी चुप हैं।
यह वे लोग कर रहे हैं जो विकास करने और भारत को सुपर पॉवर बनाने के लिए चुनी गई सरकार में मंत्री या सांसद हैं या वे जो लंबे समय से भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की साधना कर रहे हैं, इनके नीचे वे लाखों भक्त हैं जो इससे भी फूहड़ गालियां बकते हुए अफवाहें फैलाकर विधर्मियों, अंधविश्वास, पाखंड के खिलाफ लिखने वालों और विरोधियों को जान से मार रहे हैं। इसके समानांतर वे हैं जिनका सोशल मीडिया पर प्रशिक्षण काल चल रहा है, वे अभी अपनी गालियों को फेसबुक और ट्विटर पर आजमा कर निर्भीक हो रहे है। इस वक्त धर्मांधता और जहालत का तनाव वातावरण में कहीं भी महसूस किया जा सकता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने छौनों को सेवाभाव और ज्ञान, शील, एकता सिखाता है। भाजपा खुद को पार्टी विद अ डिफरेंस कहती रही है। इन दोनों से जुड़े सैकड़ों नाम और रूप बदल कर काम करने वाले संगठनों का तो कहना ही क्या जो विनय और देश के प्रति समर्पण की प्रतिमूर्ति हैं। क्या इस बौराहट का कारण सिर्फ वह अहंकार है जो सत्ता पाने के साथ उपहार में मुफ्त मिला करता है या वह हताशा है जो अपने वादों और दावों को पूरा न कर पाने की विफलता से पैदा हुई है। सत्ता की पालकी से उतार दिए जाने का डर दिखाकर अहंकार पर लगाम दी जा सकती थी और राजनीतिक इच्छाशक्ति से खीझ पर काबू पाया जा सकता था, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है, जिन्हें चुप्पी के कारण की तलाश है उन्हें एक बार फिर रिप्ले मोड में नरेंद्र मोदी के राज्यारोहण के जुलूस को देखना चाहिए।
बीता लोकसभा चुनाव अब तक का सबसे महंगा चुनाव था, बड़ी कारपोरेट कंपनियों ने मोदी की हवा देखकर भारी संसाधन भाजपा के पक्ष में झोंक दिए थे, चाय की दुकानों तक पर एलईडी स्क्रीन वाले टीवी लगे और तकनीक का हर संभव इस्तेमाल किया गया जिसके जरिए मोदी के चाय बेचने, गरीबों का दर्द समझने, पूरे देश में गुजरात का विकास मॉडल लागू करने में समर्थ होने का प्रचार किया जाता था। व्यक्तिवाद के प्रबल विरोधी आरएसएस ने पहली बार एक आदमी को चुनाव के पहले ही हवा का रुख देखते हुए भाजपा का प्रधानमंत्री नामित होने दिया और अपनी समस्त सांगठनिक ताकत को अभी नहीं तो कभी नहीं के निर्देश के साथ लगाया। पूंजीपतियों को मोदी से अपने माकूल नीतियां बनवानी थीं और फैसले कराने थे ताकि उनका मुनाफा अबाध बढ़ता रहे,आरएसएस को सत्ता की मदद से अपने एजेंडे पर अमल करना था ताकि भारत उनकी मनमर्जी का हिंदू राष्ट्र बन सके, इन दोनों के बीच में नरेंद्र मोदी थे जो भारत में विकास की गंगा बहाने और विश्वशक्ति बनाने के दावे कर रहे थे ताकि कांग्रेस के दस साल के कुशासन और आत्मकेंद्रित नेताओं की मनमानी के खिलाफ नाराजगी को वोट में बदला जा सके।
सत्ता मिली, मोदी ने संसद को सिर नवाया और अपने भाषण कौशल के बूते जनता की अपेक्षाओं का गुब्बारा और फुला दिया, पूंजीपतियों को धैर्य नहीं था कि वे इंतजार करते, उन्हें प्रतिदान चाहिए था लिहाजा उन्हें सस्ती जमीनें दिलाने वाला किसान विरोधी भूमि अधिग्रहण बिल तो आया, लेकिन कालाधन विश्वबाजार में रुपये की सेहत, महंगाई जैसे वादे धड़ाम हो गए, क्योंकि पहले दिन से न इच्छा थी न नीयत इसलिए अधिकतर गगनचुंबी वादों का हश्र स्वच्छता अभियान जैसा प्रतीकात्मक हुआ, दूसरी तरफ आरएसएस ने पूंजीपतियों से भी ज्यादा उतावली दिखाते हुए हिंदुओं की आबादी बढ़ाने, गाय खाने वालों को सबक सिखाने समेत अन्य धार्मिक मुद्दों पर अभियान पूरी ताकत के साथ शुरू कर दिया जिसके नतीजे में सांप्रदायिक तनाव और हुड़दंग चारों तरफ दिखने लगा वास्तविक मुद्दे हवा हो गए। नए बने जो भक्त सोचते हैं कि मोदी इन दोनों की साजिश का शिकार हुए हैं बहुत भोले हैं, पानी सिर से ऊपर जाने पर मोदी पूंजीपतियों को डराने वाले हुड़दंग के प्रायोजकों को लगाम देने की कोशिश करते हैं क्योंकि भारत का संविधान धर्मनिरपेक्ष है उसे हुड़दंग से हिंदू राष्ट्र नहीं बनाया जा सकता है। मोदी इस खेल के पुराने खिलाड़ी हैं उन्हें पता है कि इन दो परस्परविरोधी ध्रुवों के बीच चुप्पी से बेहतर कोई रणनीति नहीं है, इसलिए वे निर्णायक मुद्दों पर चुप रहते हैं। =

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