अमेरिका से आया मेरा दोस्त
राजधानी लखनऊ की सड़कों के किनारे साइकिल ट्रैक बना देने से भले ही मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को वाहवाही न मिली हो पर अमेरिका में उन्हें बिना जाने-पहचाने और अनजाने ही इसका एक समर्थक मिल गया है। अमेरिका के दक्षिण पश्चिम में स्थित ह्यूस्टन महानगर एक अरसे से अपने नागरिकों में मोटापे की समस्या से परेशान था। उसे धीरे धीरे पूरे देश के सबसे अधिक मोटे लोगों के शहर की ख्याति मिलने लगी थी। मामला गंभीर था क्योंकि लोग मोटापे से ग्रस्त होकर अस्वस्थ होते चले जा रहे थे। तब वहां के प्रशासन ने एक बड़ा अभियान प्रारम्भ किया है और इस क्रम में लोगों को अपनी सेहत ठीक रखने, मोटापा दूर भगाने और चुस्त-दुरुस्त रहने केलिए साधन मुहैया करने की दृष्टि से शहर की पहली ‘बाइक लेन’ तैयार की है। शहर के बीचोंबीच बनाई गई इस हरी-भरी लेन को लोगों ने हाथोंहाथ लिया है। शहर में इस लेन पर अपनी साइकिल दौड़ाने वालों की जैसे होड़ ही लग गई है। प्रशासन इससे बहुत खुश है क्योंकि उसकी ‘गो हेल्थी ह्यूसटन’ की मुहिम को जबर्दस्त प्रोत्साहन मिला है। इसका पूरा श्रेय महानगर की मेयर एन्नी पारकर को जाता है, जो पिछले तीन साल से नागरिकों को बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं देने और उन्हें उनके प्रति जागरूक बनाने में जीजान एक किए हुए हैं।
दरअसल, यह पूरा मसला इस हकीकत से जुड़ा हुआ है कि अमेरिका के लोग बहुत मोटे होते जा रहे हैं और अपनी सेहत के प्रति उनके अंदर लापरवाही बढ़ती जा रही है। कुछ साल पहले तक टैक्सस राज्य में मोटापा चरम पर था और दूसरे राज्यों व शहरों की तुलना में मोटापे ने वहां एक महामारी का रूप ले लिया था। वहां समस्या से बहुत प्रभावी ढंग से निपटा गया। धीरे-धीरे ह्यूसटन में भी यही होने लग गया था। तब जाकर स्वस्थ बनो अभियान पूरे जोरशोर से प्रारम्भ किया गया। प्रशासन ने लोगों के लिए व्यायाम करने की सुविधाएं जगह-जगह उपलब्ध कराईं, अच्छे स्वास्थ्यवर्धक खाद्य पदार्थ आसानी से उपलब्ध कराने के उपाय किए और तम्बाकू-मुक्त क्षेत्र मुकर्रर किए।
पूरे अमेरिका में जगह जगह मोटे और बहुत ज्यादा मोटे लोग आसानी से दिख जाते है। बहुत सारे लोग कहते हैं कि मोटापा सम्पन्नता की निशानी है। कुछ महीने पूर्व किए गए एक सर्वेक्षण से यह तथ्य उभरकर सामने आया था कि जिन 100 महानगरीय क्षेत्रों में मोटापा बहुत बड़ी समस्या है, उनमें आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत अधिक समृद्ध शहर देश के पश्चिमी इलाकों में स्थित हैं। वहां ज्यादा मोटे लोग पाए गए हैं। इनमें आईटी के क्षेत्र में पूरी दुनिया में तहलका मचा रखने वाली सिलिकॉन वैली शामिल है। पश्चिम के शहरों- सैन फ्रांसिस्को, सैन जोस, लॉस एंजिलिस, सियटिल, होनो लूलू और टम्पा जैसे शहर शामिल हैं लेकिन इस सम्पन्नता से पूरे देश के लोग परेशान हो उठे हैं। 2012 में हुए सर्वेक्षण से यह बात सामने आई थी कि पूरे देश में लगभग एक तिहाई वयस्क मोटापे के शिकार हैं। जिस ह्यूसटन की हम बात कर रहे हैं, वहां के तो दो- तिहाई लोगों का वजन जरूरत से ज्यादा है, लेकिन जब से तमाम तरह के उपाय किए गए हैं, ह्यूसटन देश का सबसे मोटा शहर नहीं रह गया है।
जो हालात हैं, उनका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि अमेरिका के लोग मोटापे की समस्या से जुड़ी हई बीमारियों से निपटने के लिए हर साल करीब 210 अरब डॉलर यानी 136 खरब रुपए से ज्यादा खर्च करते हैं और 2030 तक यह खर्च बढ़कर ढाई गुने से भी ज्यादा हो जाएगा।
खाद्य पदार्थ बनाने वाले बड़े घरानों ने भी इस पर ध्यान दिया है। मसलन कोका-कोला और पेप्सी ने मोटापा बढ़ाने वाले तत्वों को अलग करके अब ‘डाइट’ कोक और ‘डाइट’ पेप्सी पर ध्यान केन्द्रित किया है और उसके दाम घटाए हैं।
मैकडोनल्ड, सब वे और केएफसी ने भी ज्यादा स्वस्थ भोज्य पदार्थ बेचने शुरू किए हैं। लोगों का ध्यान पहले कभी की तुलना में अब अधिक स्वास्थ्यवर्धक भोजन की ओर गया है और शाकाहारी भोजन की भी मांग बढ़ी है, लेकिन यहां मोटे लोगों की भीड़ में भारतीय लोग एकदम अलग दिखते हैं- कहीं ज्यादा स्वस्थ और चुस्त दुरुस्त।
समस्या आबादी न बढ़ने की
अभी जबकि हम इस बात की विवेचना करने में लगे हैं कि अपने देश में हिन्दुओं की तुलना में मुसलमानों की आबादी ज्यादा बढ़ रही है, पूरा यूरोप एक दूसरी चिंता में डूबा है। यूरोपीय देशों की समस्या यह है कि उनकी आबादी बढ़ने के बजाय घटती चली जा रही है और इटली ने तो बच्चे पैदा करने वालों को बोनस देने की योजना शुरू की है और साथ ही बूढ़ों की पेंशन में कटौती कर दी है। तो भी बात बन नहीं रही है। हर दस साल में हम अपनी आबादी का हिसाब किताब लेने बैठते हैं, देश की तेजी से बढ़ती आबादी पर चिंता व्यक्त करते हैं और हिसाब लगाते हैं कि हम कब तक कम से कम आबादी के मामले में चीन से आगे निकल जाएंगे, लेकिन दूसरी तरफ यूरोपीय देश पुर्तगाल के प्रधानमंत्री कहते हैं कि आबादी में आ रही कमी एक बहुत बड़ी और गंभीर समस्या बन गई है। वास्तव में पुर्तगाल में 2010 से लगातार आबादी घट रही है और एक अनुमान के अनुसार एक करोड़ 10 लाख की आबादी वाले इस देश की आबादी 2060 तक घटकर 63 लाख रह जाएगी।
अपने देश भारत में 2001 व 2011 के बीच की अवधि में प्रति एक हजार की आबादी में 177 की वृद्धि हुई। यानी प्रतिशत दर 17.7 थी। तेजी से हो रही यह बढ़ोतरी हमारी चिंता का विषय है तो लगभग पूरे यूरोप में आबादी न बढ़ने से चिंता हो रही है।
जर्मनी में जनसंख्या वृद्धि दर प्रति हजार पर 8.2 है जो पूरी दुनिया में सबसे कम है। स्पेन में तो पूरे यूरोप में सबसे बड़ी समस्या है। वहां महिलाओं की बच्चे पैदा करने की औसत दर मात्र 1.27 है यानी बच्चे पैदा करने की आयु में एक हजार महिलाएं मात्र 127 बच्चे पैदा करती हैं, जो दुनिया के तमाम विकासशील देशों की बात तो दूर यूरोप में ही सबसे कम है। पूरे यूरोप का औसत 1.55 है। स्पेन की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था के चलते भारी संख्या में नागरिक बेहतर नौकरी की तलाश में दूसरे देशों को पलायन कर रहे हैं। नतीजा यह हुआ है कि 2012 से स्पेन की आबादी लगातार घट रही है। अमेरिका इस मामले में काफी सुखी है। यहां आबादी नियंत्रण में है।
आबादी कम तो है ही, आबादी का घनत्व भी कम है क्योंकि इस देश के पास अच्छीखासी भूमि है। कुछ शहरी इलाकों को छोड़ दें तो कहीं कोई समस्या नहीं है। फैली हुई आबादी है और शहरी क्षेत्रों का आधारभूत ढांचा इतना मजबूत है कि कहीं न तो संकीर्ण बसावट है और न ही कहीं चिकचिक और किचकिच। भारत जैसा यातायाती आतंक यहां नहीं है क्योंकि सब कुछ पूरी तरह से नियंत्रणाधीन करके रखा गया है। यातायात नियमों का अत्यंत कड़ाई से पालन होता है। गाड़ियां बेशुमार हैं तो हर कहीं पार्किंग की पर्याप्त जगह है।
शहरी इलाकों की आबादी के कुछ आंकड़े सारी कहानी खुद कह देते हैं। अमेरिका के कुछ बड़े शहरों में प्रति मील आबादी इस प्रकार है- सियटल 3000, वाशिंगटन 3500, न्यूयार्क 4500, सैन फांसिस्को 5400 और लॉस ऐंजलिस 6000 जबकि पेरिस और लंदन में यह क्रमश: 9500 और 14600 और दक्षिण कोरिया की राजधानी सिओल में 26800 है। यानी अमेरिका के औद्योगिक शहर सियटल की तुलना में दक्षिण कोरिया के औद्योगिक शहर सिओल में आबादी का प्रति मील घनत्व नौगुना है। दूसरी तरफ ढाका में यह 1,12,700 और मुम्बई में लगभग एक लाख है। समस्या का ओरछोर कितना विषमता भरा है, क्या समझना मुश्किल है?
मौत की गुजारिश
पांच साल पहले 2010 में एक फिल्म आई थी-गुजारिश। मशहूर निर्माता-निर्देशक संजय लीला भंसाली की यह फिल्म इच्छा-मृत्यु के मुद्दे पर बनी थी। इसमें यह सवाल उठाया गया था कि यदि किसी व्यक्ति की मौत निश्चित हो, वह किसी भी तरह के इलाज से न बच सकता हो तो क्या उसे शारीरिक यातना/कष्टों से मुक्ति पाने के लिए अपनी इच्छा से मौत का वरण करने का अधिकार होना चाहिए? क्या कानून को उसे इसकी इजाजत देनी चाहिए कि वह अपने जीवन का स्वयं अंत कर ले? इस फिल्म में इसी मुद्दे को बहुत बेहतरीन व मर्मस्पर्शी ढंग से उठाया गया था। ऐश्वर्य राय बच्चन ने इसकी नायिका के रूप में स्मरणीय भ्ूामिका अदा की थी और उन्हें इसके लिए कई पुरस्कार भी मिले थे। फिल्म को बहुत सराहा गया था। अपने देश में पहले से इस मामले पर बहस पर होती रही है, लेकिन गुजारिश फिल्म के आने के बाद फिर इस पर नए सिरे से बहस छिड़ती रही है लेकिन भारतीय न्यायपालिका इसकी इजाजत देने को तैयार नहीं है।
अमेरिका में भी इस मसले पर भारी विवाद उठते रहे हैं क्योंकि कैथोलिक चर्च इसकी इजाजत देने को कतई राजी नहीं होती। वास्तव में वह इसका कड़ा विरोध करती है। ऐसे में कैलीफोर्निया राज्य के गवर्नर ने हाल में इच्छा-मृत्यु की अनुमति देकर नए सिरे से बहस को हवा दे दी है। कैलीफोर्निया के डेमोक्रेट गवर्नर जैरी ब्राउन ने पांच अक्टूबर को उस कानून पर हस्ताक्षर कर दिए जिसके अंतर्गत ऐसे गंभीर बीमार लोगों को जो किसी तरह के भी इलाज से कभी ठीक नहीं हो सकते, अपने जीवन का अंत करने की इजाजत दे दी गई है। कैलीफोर्निया इच्छा-मृत्यु की अनुमति देने वाला अमेरिका का पांचवां राज्य बन गया है। यहां की विधानसभा में यह विवादास्पद मामला 2007 से विचाराधीन था। अभी तक ओरगों, वाशिंगटन, वरमोंट और मोन्टाना राज्यों में यह कानून लागू था। उल्लेखनीय है कि यह विषय राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आता है इसलिए इस पर कानून बनाने का अधिकार राज्य विधानसभाओं को प्राप्त है।
कैलीफोर्निया विधानसभा में जब इस मामले को कानून की शक्ल में पेश किया गया तो उसके समर्थकों ने सैन फ्रांसिस्को की उस महिला का उद्धरण पेश किया था, जिसने अपनी इच्छा से मौत का वरण करने के लिए सैन फ्रांसिस्को राज्य छोड़ दिया था क्योंकि वहां वह अपनी इच्छा से अपने प्राण नहीं त्याग सकती थी क्योंकि उस राज्य में इसकी कानूनी इजाजत नहीं थी। वह ओरगों राज्य में रहने के लिए चली गई थी, जहां इसकी इजाजत देने वाला कानून लागू था। 29 साल की ब्रिटनी मनर्ड को ऐसा ब्रेन कैंसर था जो कभी ठीक नहीं हो सकता था। ब्रिटनी का उदाहरण सामने रखते हुए विधानसभा में बड़ी संवेदनशील बहस छिड़ी थी और सदस्यों ने ‘टर्मिनली इल’ कहलाने वाले कई ऐसे मामलों का हवाला दिया था। सदन के बाहर भी हर वर्ग के लोगों के बीच इस मुद्दे पर डिबेट चली थी। अंतत: इसे मंजूरी मिली और अगले साल यह लागू होगा। इसमें यह प्रावधान किया गया है कि पहले तो दो डाक्टरों को यह प्रमाणित करना होगा कि संबंधित व्यक्ति छह महीने से ज्यादा जिन्दा नहीं रहेगा। दूसरे वे मौत के लिए जो दवा निर्धारित करें, उसे मरीज को स्वयं उसके बारे में समझने और उसे लेने में सक्षम होना चाहिए। गवर्नर ब्राउन ने इस कानून पर हस्ताक्षर करते समय एक बहुत मार्मिक बयान दिया था। उन्होंने कहा था कि मुझे यह फैसला करने में बहुत सोच विचार करना पड़ा। मैंने अपने कई मित्रों, डाक्टरों और कैथोलिक नेताओं से बात की। मैंने फिर सोचा कि अगर मेरे साथ यह हो कि मैं बहुत दर्द से ग्रसित हूं और मरने के कगार पर हूं तो मैं ऐसे में क्या करना पसंद करूंगा। क्या इस दर्द से मुक्ति बेहतर नहीं? दरअसल गवर्नर ब्राउन को भी कैंसर हुआ था, लेकिन वे ठीक हो गए। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह थी कि वे खुद कैथोलिक ईसाई हैं और कैलीफोर्निया की कैथलिक कान्फरेंस ने इस कानून का कड़ा विरोध किया था।