राष्ट्रीय उपभोक्ता दिवस : बढ़ते उपभोक्तावाद पर संयम का अंकुश जरूरी
उपभोक्ता में उत्पादकता और गुणवत्ता संबंधित जागरूकता को बढ़ाने, जमाखोरी, कालाजारी, मिलावट, अधिक दाम, कम नाप-तौल इत्यादि संकटों से उपभोक्ता को मुक्ति दिलाने एवं उपभोक्ता संरक्षण कानूनों के बारे में लोगों को जानकारी देकर उपभोक्ता के हितों की रक्षा करने केे उद्देश्य से भारत में 24 दिसंबर को राष्ट्रीय उपभोक्ता दिवस के रूप में मनाया जाता है।
उपभोक्ताओं को शोषण से बचाने के लिए इसी दिन 24 दिसंबर, 1986 को भारत सरकार ने ऐतिहासिक उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम-1986 लागू किया गया था। इसके बाद इस अधिनियम में 1991 तथा 1993 में संशोधन किए गए। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम को अधिकाधिक कार्यरत और प्रयोजनपूर्ण बनाने के लिए दिसंबर 2002 में एक व्यापक संशोधन लाया गया और 15 मार्च 2003 से लागू किया गया। यह दिन भारतीय ग्राहक आन्दोलन के इतिहास में सुनहरे अक्षरांे में लिखा गया है। भारत में यह दिवस पहली बार वर्ष 2000 में मनाया गया और आगे भी प्रत्येक वर्ष मनाया जाता है।
उपभोक्ता संरक्षण कानून से संबंधित महत्वपूर्ण तथ्य यह है की किसी भी शासकीय पक्ष ने इस विधेयक को तैयार नहीं किया बल्कि अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत ने प्रथमतः इस विधेयक का मसौदा तैयार किया। हम में से हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में उपभोक्ता है। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के अनुसार कोई व्यक्ति जो अपने उपयोग के लिये सामान खरीदता है, वह उपभोक्ता है। उपभोक्ता क्योंकि संगठित नहीं हैं इसलिए हर जगह ठगा जाता है। इसलिए उपभोक्ता को जागना होगा और खुद को इन संकटों से बचाना होगा। बहुत कम उपभोक्ता जानते होंगे कि उनके क्या अधिकार हैं।
राष्ट्रीय उपभोक्ता दिवस इसलिये मनाया जाता है ताकि उपभोक्ताओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक किया जा सके और इसके साथ ही अगर वह धोकाधड़ी, कालाबाजारी, घटतौली आदि का शिकार होते हैं तो वह इसकी शिकायत कर सकें। इस कानून में जीवन एवं संपत्ति के लिए हानिकारक सामान और सेवाओं की बिक्री के खिलाफ सुरक्षा का अधिकार दिया गया है, खरीदी गई वस्तु की गुणवत्ता, मात्रा, क्षमता, शुद्धता, स्तर और मूल्य, जैसा भी मामला हो के बारे में जानकारी का अधिकार एवं इसके लिए आवाज उठाने का अधिकार है।
उपभोक्ता दिवस मनाते हुए हम केवल उपभोक्ता अधिकारों की ही बात नहीं करते बल्कि उपभोक्ता की उन्नत एवं सम्यक् सोच को भी विकसित करते हैं। फ्रांसीसी विचारक विचारक ज्यां बोद्रियो ने आधुनिक उपभोक्तावाद की मीमांसा करते हुए कहा है कि पहले वस्तु आती है तो वह सुख देने वाली लगती है। अंत में वह दुःख देकर चली जाती है। पहले वह भली लगती है, किन्तु अंत में बुरी साबित होती है। आर्थिक विसंगतियों एवं विषमताओं को दूर करने के लिये उपभोक्ता जागृति जरूरी है। आज का उपभोक्तावादी दृष्टिकोण एक प्रकार का सम्मोहन बन गया है, हिस्टीरिया की बीमारी बन गया है। सम्मोहन करने वाला जैसा नचायेगा, उपभोक्ता वैसा ही नाचेगा, फिर उपभोक्ता संरक्षण कैसे संभव होगी? यह तभी संभव है जब हमारा उपभोग के प्रति सम्यक् दृष्टिकोण होगा।
अमेरिकी लेखक और मोटिवेशनल स्पीकर ब्रिएना विएस्ट ने कहा भी है कि जब निजी स्तर पर हमारा दर्शन सिर्फ यही रह जाए कि हम बिना कोई प्रश्न पूछे वही करने लगें, जो हमें कहा जाए, तो इसका अर्थ है कि हम उपभोक्तावाद या अपने अहं या किसी के प्रति अंध श्रद्धा का शिकार हो रहे हैं या किसी ऐसे की इच्छा का पोषण कर रहे हैं, जो हमें नियंत्रित करना चाहता है। आज की बाजार शक्तियों इसी तरह उपभोक्ताओं का शोषण करती है। इन्हीं उपभोक्तावादी एवं बाजार शक्तियों के कारण जीवन में सुख का अभिप्राय केवल भोग और उपभोग को माना जाने लगा हैं। ऐसे में झूठी शानो-शौकत के दिखावे के चक्कर में उपभोक्ता अविवेकशील होकर अनावश्यक चीजों को भी थैले में भरकर घर ला रहा है। बाजार एवं उपभोक्तावादी संस्कृति के इस काले जादू के आगे उपभोक्ता बेबस एवं लाचार खड़ा हैं। जिसके कारण वस्तुओं की गुणवत्ता के स्तर में गिरावट आ रही हैं। कोई भी चीज मिलावटरहित मिलना अब संभव नहीं है। न चाहते हुए भी उपभोक्ता लूट का शिकार बन रहा है।
इतना ही नहीं, उपभोक्तावादी संस्कृति ने भोगवादी जीवन जीने के लिए मनुष्य के समक्ष नए आयाम प्रस्तुत किए हैं तथा उसे सुविधाभोगी बना दिया है। भोग्य वस्तुओं का उपयोग ही जीवन का प्रमुख लक्ष्य बन गया है। भोगवाद के कारण सबसे बड़ी हानि यह हुई है कि भोगों के प्रति रुचि या रति का गहरा पोषण हुआ है। बढ़ रही भोगों के प्रति रुचि भोगों से ऊपर नहीं उठने देती। आज के व्यक्ति का मूल्यांकन इन भोग-उपभोग की वस्तुओं के आधार पर होने लगा है। जिसके पास भोग की वस्तुएं अधिक होती हैं उसे समाज में अधिक प्रतिष्ठा मिलती है। भोगियों के बीच अधिक भोगी का महत्व हो, यह अस्वाभाविक भी नहीं है, ऐसा होता आया है, किंतु इससे भोगों को ही बढ़ावा मिलता है। व्यक्ति फिर भोगों के दोषों को गौण करके भी उनकी अभिवृद्धि में ही अपना जीवन अर्पित कर देता है।
हमारे ऋषि-मुनियों ने जीवन में भोग का नहीं, त्याग का महत्व बताया है। साधा जीवन उच्च विचार की बात कही है। क्योंकि जीवन में आंतरिक शक्तियों की अभिव्यक्ति बाह्य भोगों में उलझने से नहीं, अपितु उनका त्याग करने से होती है। भगवान महावीर ने इच्छाओं के परिसीमन, व्यक्तिगत उपभोग का संयम एवं संविभाग यानी अपनी संपदा का समाजहित में सम्यक् नियोजन के सूत्र दिये हैं। पंूजी, प्रौद्योगिकी और बाजार के उच्छृंखल विकास को नियंत्रित कर, व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में सादगी एवं संयम को बल देकर, आर्थिक समीकरण एवं मानवीय सोच विकसित करके ही हम नया आदर्श समाज दर्शन प्रस्तुत कर सकते हैं।
तभी जीवन में सादगी, संयम, अनावश्यक खर्चों पर नियंत्रण, त्याग एवं आडम्बर-दिखावामुक्त जीवन को प्राथमिकता दी जा सकेगी। इसी में विश्व की अनेक समस्याओं को समाधान निहित है और इसी में हमने कोरोना महाव्याधि से मुक्ति का मार्ग पाया है। असल में कोरोना महामारी ने जीवन को नये रूप में निर्मित करने की स्थितियां खड़ी की है, जिसका आधार बढ़ते उपभोक्तावाद पर नियंत्रण है। जिसने इच्छाएं सीमित रखी, वह कभी दुःखी नहीं होगा। क्योंकि वह इस सचाई को जानता है कि इच्छा को कभी पूरा नहीं किया जा सकता। तभी तो महात्मा गांधी ने कहा- सच्ची सभ्यता वह है जो आदमी को कम-से-कम वस्तुओं पर जीना सीखाए। आज की उपभोक्तावादी एवं सुविधावादी जीवन-धारा में जैसे-जैसे भोगवाद बढ़ता जारहा है, कोरोना महामारी, जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण, प्रकृति दोहन, आतंकवाद, युद्ध, संघर्ष की स्थितियों बढ़ती जा रही है। समाज, राष्ट्र एवं विश्व में व्याप्त प्रदर्शन, दिखावा एवं फिजुलखर्ची पर नियंत्रण जरूरी है। बेंजामिन फ्रैंकलिन ने कहा भी है कि अगर तुम जितना कमाते हो और उससे कम खर्च करते हो तो तुम्हारे पास पारस पत्थर है।
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नया उपभोक्तावाद एक प्रकार से नई हिंसा यानी कोरोना महामारियों का उपक्रम है। हिंसा, प्रतिस्पर्धा, सत्ता की दौड़ एवं आर्थिक साम्राज्य को इससे नया क्रूर आकार मिला है। क्योंकि उपभोक्तावाद की अंधी दौड़ ने व्यक्ति को संग्रह, सुविधा, सुख, भोग-विलास एवं स्वार्थ से जोड़ दिया है। समस्या सामने आई- पदार्थ कम, उपभोक्ता ज्यादा। व्यक्तिवादी मनोवृत्ति जागी। स्वार्थों के संघर्ष में अन्याय, शोषण एवं अनैतिकता होने लगी। एक ओर वैभव ने व्यक्ति को विलासिता दी और विलासिता ने व्यक्ति के भीतर क्रूरता जगाई तो दूसरी ओर गरीबी एवं अभाव की त्रासदी ने उसके भीतर विद्रोह की आग जला दी। वह प्रतिशोध में जलने लगा, तपने लगा, अनेक बुराइयां बिन बुलाए घर आ गई। आदमी-आदमी से असुरक्षित हो गया।
प्रदर्शन एवं विलासिता में होने वाला अर्थ का अपव्यय समाज को गुमराह अंधेरों की ओर धकेलता है। विवाह शादियों में 35-40 करोड़ का खर्च, क्या अर्थ बर्बादी नहीं है। प्रश्न उठता है कि ये चकाचैंध पैदा करने वाली शादियां, राज्याभिषेक के आयोजन, राजनीतिक पार्टियां, जनसभाएं- मानवीय सभ्यता और संस्कृति के विनाश के ही कारण हैं। इस तरह की आर्थिक सोच एवं संरचना से क्रूरता बढ़ती है, भ्रष्टाचार की समस्या खड़ी होती है, हिंसा को बल मिलता है और मानवीय संवेदनाएं सिकुड़ जाती है। अर्थ केन्द्रित उपभोक्तावाद समग्र मनुष्य-जाति के लिये भयावह बन रही है। इसलिये राष्ट्रीय उपभोक्ता दिवस जैसे उपक्रमों की आज ज्यादा उपयोगिता प्रासंगिकता है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)