प्रमोद भार्गव : कोरोना महामारी का टीका लगाने की शुरुआत के साथ मानवता को निरोगी बनाए रखने के संकल्प ने गति पकड़ ली है। यह टीकाकरण एक बड़ी चुनौती इसलिए है क्योंकि यह दुनिया का सबसे बड़ा अभियान है। भारत में सबसे ज्यादा लोगों को टीका लगाया जाना है। कोविड-19 विषाणु ने व्यापक क्षेत्र में फैलकर डर का जो वातावरण देश व दुनिया में बना दिया था, उससे स्थायी बचाव का उपाय टीका ही है। इसलिए महामारी के फैलने के साथ ही यह उम्मीद की जा रही थी कि इसके संक्रमण के प्रसार पर नियंत्रण टीकाकरण से ही होगा। इस वायरस के प्रभाव से लोगों में उत्पन्न हुए मनोविकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मंच पर बार-बार आकर अपने सार्थक व प्रेरक उद्बोधनों से दूर करते रहे हैं। नतीजतन लोग इस उम्मीद के साथ भयमुक्त बने रहे कि भारत में जल्द टीके का निर्माण हो जाएगा और 10 माह के भीतर हो भी गया। भारत में ही बने टीके कोविशील्ड को लगाने की जो शुरुआत हुई है, उसे भी मोदी ने देशव्यापी उत्सव में बदल दिया, जिससे किसी भी प्रकार के मानसिक संशय और शंका रहे ही नहीं। गोया, स्वदेशी टीकों का निर्माण ऐसी उपलब्धि है, जिसपर पूरे देश को गर्व करने की जरूरत है।
कोरोना-काल संकट का समय जरूर है लेकिन नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जिस तरह से इससे सामना किया, उससे यह चिकित्सा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर भारत का सफल एवं निर्णायक अभियान भी बन गया। इसीलिए प्रधामंत्री ने चिकित्सकों व चिकित्सा विज्ञानियों के परिश्रम के प्रति पूरा सम्मान जताकर कृतज्ञता प्रकट की। खासतौर से स्वदेशी टीकों कोविशील्ड और कोवैक्सीन के निर्माण में वैज्ञानिकों ने जो प्रतिबद्धता व दक्षता वैज्ञानिकों ने दिखाई, वह भारत के लिए ही नहीं दुनिया के लिए बड़ी उपलब्धि है। भारत में अभी कुछ और टीकों का निर्माण भी चल रहा है। यही नहीं देश मास्क, पीपीई किट, वेंटीलेटर के निर्माण में भी न केवल आत्मनिर्भर हुआ है, बल्कि निर्यातक देश भी बन गया है। भारत में जो टीके बने हैं, वे अत्यंत सस्ते होने के साथ इन्हें लगाना भी आसान है। इनका निर्माण पूरी तरह भारतीय वातावरण के अनुकूल है इसलिए इसे देश के अस्पतालों व सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में रखना भी आसान है। भारत में कोविड-19 जैसे दुर्लभ विषाणु के परीक्षण की पहले एक ही प्रयोगशाला थी, किंतु अब पूरे देश में 2300 प्रयोगशालाएं हैं।
नरेंद्र मोदी की अगुआई में ही स्वतंत्रता के बाद यह पहला अवसर था कि परंपरागत आयुर्वेद चिकित्सा प्रणाली को कोरोना जैसे जानलेवा रोग के उपचार में आधिकारिक मान्यता मिली। अब तो केंद्र सरकार ने वे सारी बाधाएं भी खत्म कर दी हैं, जो आयुर्वेद उपचार को ऐलौपैथी के समकक्ष खड़ा करने में आड़े आ रही थीं। तय है, कालांतर में आयुर्वेद भी योग की तरह वैश्विक मानचित्र पर स्थापित हो जाएगा। क्योंकि आयुर्वेद में भी विषाणुओं के टीके बनाने की प्रक्रिया के साथ, शल्य क्रिया की प्रक्रियाएं इलाज की मुख्यधारा में लाने की अनुमति सरकार ने दे दी है। कोरोना-काल में देखने में आया है कि प्रतिरोधात्मक क्षमता बढ़ाने वाले आयुर्वेद उत्पादों की बिक्री छह गुना बढ़ी है, जबकि ऐलौपैथी दवाओं की बिक्री घटी है। गिलोय, तुलसी, हल्दी और अश्वगंधा दवाओं की मांग अभी बनी हुई है। इन सफलताओं के मिलने पर ही प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की पंक्ति ‘मानव जब जोर लगाता है, पत्थर भी पानी बन जाता है’ को याद कर देशवासियों को मनोबल बनाए रखने का संदेश दिया।
भारत दुनिया की बड़ी आबादी वाला देश है। भारत से ज्यादा आबादी चीन और भारत के बाद कम आबादी वाला देश अमेरिका है। इस दृष्टि से प्राथमिकता के आधार पर टीका लगाना भी एक चुनौती भरा काम है। इसीलिए पहले उन तीन करोड़ स्वास्थ्यकर्मियों व चिकित्सकों को टीका लगाए जा रहे हैं, जो कोरोना से लड़ाई में प्रथम पंक्ति में हैं। इसके बाद पुलिस व सुरक्षाबलों को टीका लगेंगे। तत्पश्चात अन्य लोगों की बारी आएगी। प्रथम चरण में जिन तीन करोड़ लोगों को टीका लगाने की शुरूआत हुई है, वही इतनी बड़ी संख्या है कि इतनी आबादी तमाम देशों की नहीं है। आबादी के लिहाज से भारत में 18 प्रतिशत लोग रहते हैं। भारत का टीकाकरण दुनिया की निगाह में हैं, क्योंकि दुनिया के बच्चों को जो 60 प्रतिशत टीके लगते हैं, उनका निर्माण भारत में ही होता है। भारत इस स्वदेशी टीकाकरण के अभियान में निर्बाध सफलता की ओर बढ़ता है तो भारत की इस क्षेत्र में विशेषज्ञता स्थापित होगी और कई देश टीका खरीदेंगे। जाहिर है, टीकों का निर्माण भविष्य में रोजगार का भी बड़ा जरिया बनने जा रहा है। इसीलिए टीकाकरण की अनुमति तब दी गई, जब पूरी तरह वैज्ञानिक टीकों के निर्माण के बाद स्वयंसेवियों पर किए परीक्षण से आश्वस्त हो गए।
देश के चिकित्सा विज्ञानियों को ऐसा अनुमान है कि तीस करोड़ लोगों को टीका लगने के बाद समुदाय में हर्ड-इम्युनिटी विकसित हो जाएगी। मसलन समुदाय के स्तर पर प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाएगी। चिकित्सा के क्षेत्र में ऐसी धारणा है कि यदि किसी एक बड़े समुदाय में 70 से 90 प्रतिशत लोगों में कोरोना वायरस से लड़ने की क्षमता विकसित हो जाए तो उस समूह में विषाणु को परास्त करने की शक्ति पैदा हो जाती है और इनके संपर्क में बाने से कोरोना नहीं फैलता। अर्थात ऐसे प्रतिरोधक समूहों की क्षमता जैसे-जैसे बढ़ती जाएगी, वैसे-वैसे वायरस का खतरा कम होता जाएगा। जिन तीन करोड़ लोगों को प्रथम चरण में टीका लगाया जा रहा है, वह एक माह के बाद दूसरी खुराक मिलने के साथ ही बड़ा प्रतिरोधक समूह बन जाएगा, जो कोरोना के विस्तार पर अंकुश का काम शुरू कर देगा।
टीकों को लेकर भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में सवाल उठाए जा रहे हैं। इस कारण लोगों में डर व अविश्वास पैदा होना स्वाभाविक है। दरअसल भारत बायोटेक द्वारा निर्मित कोवैक्सीन सवालों के घेरे में ज्यादा है। इसे अभी बैकअप के रूप में प्रयोग की मंजूरी मिली थी लेकिन सीधे लगाया जा रहा है। साथ ही प्रथम पंक्ति के सेवकों को यह विकल्प भी नहीं दिया जा रहा है कि वे अपनी मर्जी का टीका लगवाएं ? बायोटेक ने दूसरे चरण के क्लीनिकल ट्रायल का डेटा भी सार्वजनिक नहीं किया है। इसलिए इस टीके की प्रभावशाली सुरक्षा पर प्रश्न उठ रहे हैं। दरअसल खुद बायोटेक ने कहा था कि कोवैक्सीन 60 फीसदी प्रभावशील रहेगी। लेकिन इसके आधार का खुलासा नहीं किया।
बावजूद प्रधानमंत्री, देश के चिकित्सा और महामारी विशेषज्ञों ने टीके के सक्षम व उपयोगी होने का भरोसा जताया है, इसलिए शंका-कुशंकाओं पर गौर करने की जरूरत ही नहीं है।
दरअसल भारत में जिस तरह की राजनीतिक क्षुद्रता है, उसमें संदेह पैदा करना ही, उनके चरित्र का हिस्सा है। असल में लोगों की सेहत की सुरक्षा के नजरिए से चिकित्सा विज्ञानियों के दिन-रात परीश्रम के बाद प्रतिफल के रूप में जो टीके सामने आए हैं तथा कुछ और आने वाले हैं, वे शत-प्रतिशत कारगर भले ही न हों, लेकिन यह मान लेना गलत होगा कि टीके का वायरस पर असर होगा ही नहीं? दरअसल नरेंद्र मोदी की निर्णायक क्षमता और प्रभाव के चलते जिन दलों के नेताओं का हशिए पर टिके रहना भी मुश्किल हो रहा है, वे सरकार के प्रत्येक काम में कमियां तलाशकर अपनी राजनीति चमकाने के नाकाम प्रयास में लगे हैं।
लिहाजा इस पूरे अभियान पर जनता-जर्नादन को शंका-कुशंका की बजाय गुमान करने की आवश्यकता है। क्योंकि भारत ने पहली बार इस क्षेत्र में लाचार बने रहकर दूसरों की ओर हाथ पसारने की बजाय, आत्मनिर्भरता की ओर कदम बढ़ाया है, जो स्वागत के योग्य है। अतएव, ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः।’
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)