आस्था में हमारी अपनी कोई गणना नहीं है : हृदयनारायण दीक्षित
सभी सभ्यताओं में प्रार्थना है। मैं विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूं। ईश्वर को जाना नहीं। लेकिन प्रार्थना करता हूं। भारत के तमाम श्रद्धा केन्द्रों तीर्थो पर गया हूं, महंतों संतों के संग जिज्ञासु भाव से बैठा हूं। जिज्ञासा को समाधान नहीं मिला, चित्त को तृप्ति नहीं मिली। ऋग्वेद और ब्रह्माण्ड विज्ञान से जुड़े शोध पढ़ते हुए प्रकृति सृष्टि के कण-कण के प्रति जिज्ञासा बढ़ी। ऋषियों ने नदियों को माता कहा, धरती को माता कहा, आकाश को पिता कहा।
ऐसे रिश्तों की आंच में मेरा तर्क पिछलते रहे। विज्ञान साथ-साथ चला हमेशा दायें, तर्क दर्शन समानान्तर चला हमारे बाएं। ऊपर आकाश पिता की छाया और संरक्षण नीचे धरती माता का आधार। सामने प्रकृति के रहस्य और पीछे हमारा इतिहास बोध। अंधविश्वासी नहीं हूं। देव प्रार्थना से घर, मोटर नहीं मिलते, व्यापार में मुनाफा भी नहीं बढ़ता। लेकिन प्रार्थीभाव से क्या नहीं मिलता? तब घर ईंट सीमेन्ट का कोरा भवन नहीं रह जाता। तब व्यापार क्रेता-विक्रेता का परस्पर लेन-देन ही नहीं रह जाता। तब घर बन जाता है – पुण्याहवाचन का यज्ञमण्डप और व्यापार बन जाता है परस्पर प्रार्थीभाव का मिलन। शंकराचार्य ने ब्रह्म को सत्य और जगत् को माया देखा था।
उन्हें समूचे ब्रह्म को ‘अद्वैत’ – दो नहीं बताया लेकिन प्रार्थना और स्तुतियां उन्होंने भी की। प्रार्थना की शक्ति अनूठी है। प्रार्थना कहीं भी, कभी भी। वैदिक समाज का जीवन ही प्रार्थनामूलक है। प्रार्थना जीवनशैली का रूपान्तरण करती है। ईश्वर आस्था वाले पंथों/मतांे/मजहबों ने भी संसार में दो को ही माना है। पहला-ईश्वर और दूसरा उसका यह सृष्टि-जगत्। हम उसी के गढ़े जगत् के हिस्से हैं। आस्था में हमारी अपनी कोई गणना नहीं है लेकिन दर्शन, विज्ञान और अनुभूति में हमारी गणना है। हमारा होना वास्तविकता है, यथार्थ है। बेशक हम इस विराट जगत् में एक छोटी इकाई हैं, लेकिन इकाई होना कम महत्वपूर्ण नहीं है। गणित के दृष्टिकोण से इकाई से ही अनन्त बनता है। समग्रता में अनन्त परिपूर्ण है, इकाईयां उसी का हिस्सा हैं। इकाई और अनन्त की प्रीति जरूरी है। अनन्त की प्रसन्नता में हमारी प्रसन्नता है।
दुनिया की सभी संस्कृतियों में प्रार्थना है। सबके अपने कर्मकाण्ड हैं। अलग-अलग तकनीकी और उपासना शैली है लेकिन भारतीय चिंतन की प्रार्थना का विकास दार्शनिक अनुभूति से हुआ। यहां प्रारम्भ में दो हैं, मैं और विराट हैं। मैं और ईश्वर हैं। मैं और ब्रह्म हैं। सृष्टि और सृष्टा हैं। प्रार्थी और दाता विधाता हैं। प्रार्थना के लिए दो की जरूरत होती है, एक प्रार्थी दूसरा आराध्य। दार्शनिक और वैज्ञानिक प्रार्थी नहीं होते। वे सृष्टि रहस्यों के खोजी होते हैं। उनका कोई आराध्य नहीं होता। लेकिन भारतीय दर्शन और विज्ञान परम्परा के ऋषि-विज्ञानी प्रार्थना भाव से युक्त हैं। इसीलिए पश्चिम के तमाम दार्शनिक भारतीय दर्शन पर ‘भाववादी’ होने का आरोप लगाते हैं।
वे भारतीय दर्शन के यथार्थवादी/भौतिकवादी तत्त्वों पर गौर नहीं करते। आस्थाहीनता भौतिकवादी दर्शन की एक शर्त मानी जाती है। बात ठीक भी है। बिना जाने समझे यों ही मान लेना विवेकपूर्ण नहीं होता। प्रार्थना के लिए कोई एक और चाहिए ही। उसी से अपनी व्यथा कथा बताने और शक्ति पाने की गुहार लगानी होती है। प्रार्थना का काव्य भारत में उगा। प्रार्थना की भारतीय अनुभूति अद्भुत है। यहां प्रत्यक्ष भौतिकवाद है। विराट-सम्पूर्णता से स्तुतियाँ हैं।
समूचा ऋग्वेद प्रार्थना मूलक है। प्रकृति के हरेक रूप को तो नमस्कार किया ही गयाा है। अपने अन्तस् के तमाम भावों को भी नमस्कार किया गयाा है। वैदिक स्तुतियों में द्वैत है, दो हैं लेकिन अनुभूति के चरम पर दो नहीं – द्वैत नहीं अद्वैत है। प्रार्थना भावजगत् का परम शिखर है इसलिए प्रार्थना यों ही नहीं होती। स्वाभाविक ही इसके पूर्व तर्क उठते हैं। तर्क संशय देते हैं, दर्शन और अनुभूति समाधान देते हैं। फिर प्रतीति देते हैं। प्रतीति के बाद विश्वास आता है। विश्वास से ऊर्जा आती है। दर्शन की शक्ति द्रष्टा बनाती है। द्रष्टा निर्विचार बनता है। उसके चित्त में शून्य उभरता है। ऋचाएं इसी शून्य को भरने के लिए उतावली होती हैं। चित्त का शून्य विराट से भरता है। प्रार्थनाएं फूटती हंै, स्तुतियाँ उगती हैं। वैदिक ऋचाएं द्रष्टा ऋषियों की अनुभूति हैं। वे अनुभूत सत्य हैं।
प्रार्थना भौतिक विज्ञान से आगे की यात्रा है। भौतिक विज्ञान ऊर्जा और पदार्थ के रिश्ते बताता है। रसायन विज्ञान ऊर्जा, तत्त्व और विभिन्न क्रियाओं के कारण परिवर्तित हुए रूप, गुण आदि का विश्लेषण करता है। प्रार्थना रसायन विज्ञान की कार्रवाई हैं। प्रार्थना चित्त और काया के मूल घटकों में रासायनिक परिवर्तन लाती है। विश्वास नहीं हो तो प्रयोग करना चाहिए। सुख या दुख की किसी विशेष परिस्थिति में रक्तचाप, रक्त विश्लेषण की रिपोर्ट लेने के बाद प्रगाढ़भाव से प्रार्थना करनी चाहिए। फिर रक्तचाप और रक्त के मूल संगठकों का रासायनिक विश्लेषण चैंकाने वाले तथ्य देगा। रासायनिक परिवर्तन बेशक भौतिक परिवर्तन से बड़ा है लेकिन सृष्टि रहस्यों के खोजी लोगों के लिए कोई बड़ी बात नहीं।
यों भी एक छोटी सी दवा की गोली या गुड़ की ढेली भी शरीर में तमाम रासायनिक परिवर्तन लाती है लेकिन प्रार्थना बहुत बड़ा परिवर्तन लाती है। यह रासायनिक परिवर्तन से प्रारम्भ होती है। प्रगाढ़ भावदशा में ले जाती है, खण्डित बुद्धि को विवेक बनाती है। बुद्धि खण्डित सूचनाओं का संग्रह होती है। विवेक सार, असार और संसार का निर्णायक है। प्रार्थना विवेक से भी आगे ले जाती है जहां सार संसार और असार का कोई मतलब नहीं। तब कोई प्रार्थी नहीं होता, न कोई आराध्य। तब न ब्रह्म बचता है न माया। ऋषियों ने इसे ‘आनंद लोक’ कहा और ‘आनंदलोक’/ब्रह्मलोक कोई भौगोलिक धारणा नहीं है।
ज्ञान यात्रा में ढेर सारे साधन हैं। भारतीय परम्परा ने प्रस्थानत्रयी की चर्चा की है। ज्ञान यात्रा की शुरूवात के लिए – प्रस्थान के समय तीन चीजें पास होनी चाहिए। उपनिषद््, ब्रह्मसूत्र और गीता प्रस्थानत्रयी है। लेकिन इन सबके भी पहले चित्त में ‘प्रार्थी भाव’ चाहिए। भारत के सभी प्राचीन ग्रन्थ प्रार्थना से ही प्रारम्भ होते हैं और उपनिषद् शान्ति मन्त्रों से। लेकिन शान्तिमन्त्रों में भी प्रार्थना है। प्रार्थना ब्रह्मास्त्र है। ज्ञान यात्रा की प्रथम चेतना जिज्ञासा है। जानने की इच्छा ही ज्ञान यात्रा पर ले जाती है। लेकिन जिज्ञासा के साथ ‘मैं’ जुड़ता है, – मैं जानना चाहता हूँ। “मैं” ज्ञान यात्रा का बाधक भाव है। प्रार्थी भाव मैं को लघुतम करता है, सृष्टि को महत्तम देखता है। प्रार्थना याचना नहीं होती। वेद और उपनिषद्् के ऋषियों की प्रार्थनाएं धन्यवाद भाव से फूटी हैं। धन्यवाद भाव से भरा चित्त तरल होकर बहता है। याचक भाव का चित्त संकोच और हीनता में सिकुड़कर जड़ होता है।
प्रार्थना में बड़ी ऊर्जा है। दर्शन और विज्ञान में प्रार्थी भाव से उतरना आनंददायी है, विद्यार्थी भाव से उतरना संतोषजनक है लेकिन अर्थार्थी बुद्धि से उतरना व्यर्थ है। प्रार्थना में शब्दार्थ का मूल्य नहीं होता। शब्द स्वयं में किसी नाम का संकेत होते हंै। नाम स्वयं किसी पदार्थ का संकेत होता है। पदार्थ स्वयं किसी अरूप का रूप होता है। अरूप की यात्रा में बौद्धिक अर्थार्थ का कोई मतलब नहीं होता। प्रार्थना कोई बौद्धिक कृत्य नहीं है। प्रार्थना हृदय से हृदय का संवाद है। प्रार्थना इकाई और अनन्त का सम्वाद है। अमावस्या से पूर्णिमा हो जाने की अभीप्सा है। प्रार्थना में शब्द का कोई महत्व नहीं, यहां अन्तस की भाषा है, विराट से मनुहार है। निःशब्द वाक्य हैं। मौन का संगीत है – म्युजिक आफ साइलेंस। निःशब्द ध्वनि है, निधूर्म अग्नि है और आकांक्षा रहित मांग है।
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष है)