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स्पोर्ट्स डेस्क : टोक्यो ओलंपिक में बुधवार को कुश्ती फाइनल में जगह बनाकर रवि दहिया भारतीय कुश्ती का नया चेहरा बने और इस पर उनकी पहली प्रतिक्रिया थी,’हां, ठीक ही है भाई साहब. रवि पुरुष फ्रीस्टाइल 57 किग्रा फाइनल में रूस ओलंपिक समिति के जावुर युगुऐव से मैच होगा. अगर वो जीत जाते हैं तो वो खुशी से उछलते नहीं बस मुस्कुरा देते हैं.
अगर वो हारते हैं तो वो शांत हो जाते हैं. जैसे ही वो कुश्ती के मैट पर पहुंचते हैं, वो खुद को बेहतर ढंग से व्यक्त करने लगते हैं. वो आक्रामक बन जाते हैं. उनके मजबूत हाथों की ताकत और तकनीकी दक्षता के साथ उनका स्टैमिना उन्हें प्रतिद्वंद्वी बना देता है. उनके डिफेंस को भेदना और पकड़ को रोकना कठिन हो जाता है.
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ये सब इसलिए है क्योंकि उन्हें कुश्ती के अलावा किसी अन्य चीज में दिलचस्पी नहीं है. उन्हें नए कपड़े या जूते खरीदने में रूचि नहीं, उनके अंकल अनिल ने हरियाणा के सोनीपत जिले के नाहरी गांव में दौरे के दौरान एक समाचार एजेंसी को इसके बारे में बताया था. वो अगर बात करते हैं तो बस कुश्ती की.
उन्हें स्टार पहलवान की तरह दावेदार नहीं माना गया था, 23 वर्ष के दहिया ने खुद को साबित किया. नूर सुल्तान में 2019 विश्व चैंपियनशिप में कांस्य पदक जीतकर ओलंपिक के लिए क्वालीफाई करने के बाद वो चर्चा में आये. वो फिर भी खुश नहीं थे और रूस के जावुर युगुएव से सेमीफाइनल में मिली हार के बारे में सोच रहे थे.
उन्होंने बोला था कि, मैं क्या कहूं. हां, मैंने ओलंपिक के लिए क्वालीफाई किया, लेकिन मेरे सेंटर से ही ओलंपिक पदकधारी निकले हैं. मैं कहीं भी नहीं हूं. दहिया ने 2015 में अंडर-23 विश्व चैंपियनशिप में रजत पदक जीता था जिससे उनकी प्रतिभा की झलक दिखी थी. उन्होंने प्रो कुश्ती लीग में अंडर-23 यूरोपीय विजेता और संदीप तोमर को मात देकर खुद को साबित किया.
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दहिया के आने से पहले तोमर का 57 किग्रा वर्ग में दबदबा था. कईयों ने बोला कि कुश्ती लीग प्रदर्शन आंकने का मंच नहीं है. 2019 विश्व चैंपियनशिप में उन्होंने सभी आलोचकों को चुप कर दिया. उन्होंने 2020 में दिल्ली में एशियाई चैंपियनशिप में जीत हासिल की और अलमाटी में इसी वर्ष ख़िताब का बचाव किया. उन्होंने पोलैंड ओपन में भाग लिया और सिर्फ एक मैच गंवाया.
दहिया दिल्ली के छत्रसाल स्टेडियम में ट्रेनिंग लेते हैं जहां से पहले ही भारत को दो ओलंपिक पदक विजेता-सुशील कुमार और योगेश्वर दत्त-मिल चुके हैं. उनके पापा राकेश कुमार ने उन्हें 12 वर्ष की आयु में छत्रसाल स्टेडियम भेजा था, तब से वो महाबली सतपाल और कोच वीरेंद्र के मार्गदर्शन में ट्रेनिंग करते रहे हैं.
उनके पापा ने कभी भी अपनी परेशानियों को दहिया की ट्रेनिंग का रोड़ा नहीं बनने दिया. वो रोज खुद छत्रसाल स्टेडियम तक दूध और मक्खन लेकर पहुंचते जो उनके घर से 60 किलोमीटर दूर था. वो सुबह साढ़े तीन बजे उठते, पांच किलोमीटर चलकर नजदीक के रेलवे स्टेशन पहुंचते. रेल से आजादपुर उतरते और दो किलोमीटर चलकर छत्रसाल स्टेडियम पहुंचते.
घर पहुंचकर खेतों में काम करते और ये सिलसिला 12 वर्ष तक चला. कोरोना की वजह से लॉकडाउन से इसमें बाधा आई. बेटे के मेडल से वो अपना दर्द निश्चित रूप से भूल जाएंगे.