1947: आधी रात की टंकार…उस रात ऐसा था माहौल
नई दिल्ली: यह आग किसी विध्वसंकारी ने नहीं लगाई थी। नई दिल्ली स्थित उस बगीचे में संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने पूर्ण वैदिक रीति से वह पवित्र अग्नि प्रज्ज्वलित की थी। पंडितों ने उसे मंत्रोच्चार से शुद्ध किया था। पंडित लय में मंत्रोच्चार कर रहे थे, ‘ओ अग्नि! ओ अग्निदेव! विश्व को शक्ति आप ही देते हैं। आत्मा और परमात्मा, सभी को आपके अनुमोदन की आवश्यकता पड़ती है…आप हृदय की गहराई में उतरकर सत्य का अन्वेषण कर सकते हैं।’
मंत्रोच्चार के बीच वे सभी पवित्र अग्नि की परिक्रमा कर रहे थे, जिन्हें थोड़ी देर बाद ही स्वतंत्र भारत के प्रथम मंत्रियों के रूप में जिम्मेदारियां संभालनी थीं। इसके बाद उन पर गंगाजल छिड़का गया। मस्तक पर तिलक भी लगाया गया, जो हिंदुओं के प्राचीन विश्वास के अनुसार तीसरे नेत्र का प्रतीक है-तीसरा नेत्र जो प्रस्तुत दृश्य के पीछे का वास्तविक दृश्य देख सके और जो दुर्भाग्य, विपत्ति, बद्दुआओं, तंत्र-मंत्र से व्यक्ति की रक्षा करे। इस प्रकार वे भावी मंत्रीगण उन अहम जिम्मेदारियों के वहन को तैयारी कर रहे थे, जो शीघ्र ही उनके कंधों पर लद जाने वाली थीं। फिर, एक के बाद एक उन्होंने संविधान सभा के उस भव्य कक्ष में प्रवेश किया, जिसकी भव्य सजावट राष्ट्रीय ध्वज से की गई थी।
सुबह का स्वागत शंखनाद से करने की परंपरा भारत में रही है। आज वह शंखनाद आधी रात को होने जा रहा था। खादी पहने हुए एक व्यक्ति उस गलियारे में खड़ा था और संविधान सभा में मौजूद हुजूम को देख रहा था, जिन्हें एक नई सुबह का इंतजार था। गुलाब की पंखुड़ियों के बीच उसने अपनी दोनों हथेलियों में एक शंख थाम रखा था। उसके ठीक नीचे स्पीकर स्टैंड पर जवाहरलाल नेहरू खड़े थे। उनके सूती जैकेट में एक ताजा गुलाब पिरोया हुआ था। जवाहरलाल नेहरू के जैकेट या कुर्ते में गुलाब का ताजा फूल रोज पिरोया जाता था। उस कक्ष में चारों ओर दीवारों पर भारत के वायसरायों की भव्य ऑयल पेंटिग लगी होती थी, अब वहां तिरंगे झंडे शान से फहरा रहे थे।
नेहरू के ठीक सामने कतार में बैठे लोग उस राष्ट्र के लोगों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, जो बस थोड़ी ही देर में जन्म लेने वाला था। उनमें से किसी ने खादी, तो किसी ने साड़ी और किसी ने शाही अंदाज वाले परिधान पहन रखे थे। ये अलग-अलग धर्म, जाति, भाषा और संस्कृतियों के लोगों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, लेकिन उसके बावजूद अब वे इतने एक होने जा रहे थे कि अनेकता में एकता की वैसी मिसाल विश्व में अन्यत्र कहीं संभव नहीं हो सकी थी।