रंगभरी एकादशी : भक्तों संग बाबा विश्वनाथ खेलेंगे होली
द्वापर युग के सबसे बड़े नायक, संसार को गीता का ज्ञान और जीवन का सत्य बताने वाले भगवान श्रीकृष्ण की जन्मस्थली वृंदावन रंगों से सराबोर है। ऐसे में सृष्टि के पालनहार काशीपुराधिपति भगवान भोलेनाथ की नगरी भला कैसे अछूती रह सकती है। और जब मौका हो रंगभरा एकादशी का तो बात ही कुछ अलग हो जाती है। भक्तों के भक्ति का ही कमाल है इस दिन बाबा विश्वनाथ खुद अपने भक्तों संग होली खेलते हैं। काशी की लोक परंपरा के अनुसार महाशिवरात्रि पर महादेव और महामाया के विवाह के उपरांत रंगभरी एकादशी की तिथि पर भगवान शंकर, माता पार्वती का गौना कराते हैं। इसी दिन सर्वार्थ सिद्धि योग और पुष्प नक्षत्र भी रहेगा। लिहाजा, हर बिगड़े काम बनेंगे। वैसे एकादशी का व्रत रखने वाला व्यक्ति निरोगी रहता है एवं उसके पापों का नाश हो जाता है। जो भी मानव सच्चे मन से सभी एकादशी व्रत को धारण करता है, उसे संकटों से मुक्ति मिलती है तथा हर प्रकार के मनोरथ पूर्ण होते हैं। इतना ही नहीं, जो भी श्रद्धापूर्वक इस व्रत को करते हैं उनके पितरों को भी अधोगति से मुक्ति मिलती है। इस व्रत की महिमा का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जो भी इस व्रत को सालभर तक पूर्ण समर्पण के साथ करता है, उन्हें वाजपेय और अश्वमेध यज्ञ के समान फल की प्राप्ति होती है।
-विशेष प्रतिनिधि
मान्यता है कि शिवरात्रि पर बाबा विश्वनाथ के विवाह के बाद रंगभरी एकादशी पर गौना होता है। काशी में गौरा को ब्याहने के बाद गौना कर कैलाश ले जाते हैं। इस मौके पर बाबा अपने गणों को खुशी में डूबने का मौका होली के तौर पर देते हैं। उसके बाद से छह दिन तक घाटों से लेकर गलियों तक होलियाना बहार छाई रहेगी। लोग एक दूसरे के साथ जमकर होली खेलते है। इस उपलक्ष्य में महंत आवास चार दिनों के लिए गौरा के मायके में तब्दील हो जाता है। यह परंपरा 357 वर्षों से निरंतर निभाई जा रही है। इस वर्ष रंगभरी एकादशी उत्सव का 358वां वर्ष है। आज का दिन कुछ ऐसा है। होली से पहले ही होली जैसे रंग बिखेरने वाला दिन है। आज के दिन खुशियों से सराबोर शिवभक्त रंग भरी एकादशी का त्योहार मनाते हैं। रंगभरी एकादशी के नजदीक आते ही काशी विश्वनाथ मंदिर में बाबा के ब्रज में होली का पर्व होलाष्टक से शुरू होता है, वही काशी में यह रंगभरी एकादशी से शुरू हो जाता है। इस दिन शिव जी को विशेष रंग अर्पित करके धन सम्बन्धी तमाम मनोकामनाएं पूरी की जा सकती हैं। इस बार रंग भरी एकादशी 14 मार्च को मनाई जाएगी। यही वजह है कि काशी में गौना की रंगत छाने लगी है। उत्सव की तैयारियों का खाका खींचा जाने लगा है तो तन मन फागुनी उमंगों से पगा है।
वैसे भी फाल्गुन मास को मस्ती और उल्लास का महीना कहा जाता है। इसके कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को वैद्यनाथ जयंती तथा चतुर्दशी को महाशिवरात्रि काशी विश्वनाथ का उत्सव होता है। फाल्गुन शुक्ल पक्ष की एकादशी रंगभरी होती है। दरअसल इस एकादशी का नाम आमलकी एकादशी है। लेकिन फाल्गुन माह में होने के कारण और होली से पहले आने वाली इस एकादशी से होली का हुड़दंग या कहें एक-दूसरे को रंग लगाने की शुरुआत होती है, इसलिए इसे रंगभरी एकादशी भी कहा जाता है। इस दिन आंवले के वृक्ष की पूजा की जाती है और अन्नपूर्णा की स्वर्ण की या चांदी की मूर्ति के दर्शन किए जाते हैं। आमलकी या रंगभरी एकादशी के दिन आंवले के वृक्ष की पूजा की जाती है। यह सब पापों का नाश करता है। इस वृक्ष की उत्पत्ति भगवान विष्णु द्वारा हुई थी। इसी समय भगवान ने ब्रह्मा जी को भी उत्पन्न किया, जिससे इस संसार के सारे जीव उत्पन्न हुए। इस वृक्ष को देखकर देवताओं को बड़ा विस्मय हुआ, तभी आकाशवाणी हुई कि महर्षियों, यह सबसे उत्तम आंवले का वृक्ष है, जो भगवान विष्णु को अत्यंत प्रिय है। इसके स्मरण से गौ दान का फल, स्पर्श से दो गुणा फल, खाने से तीन गुणा पुण्य मिलता है। यह सब पापों का हरने वाला वृक्ष है। इसके मूल में विष्णु, ऊपर ब्रह्मा स्कन्ध में रुद्र, टहनियों में मुनि, देवता, पत्तों में वसु, फूलों में मरुद्गण एवं फलों में सारे प्रजापति रहते हैं।
काशी भ्रमण पर निकलते है बाबा विश्वनाथ
काशी में इसे रंगभरी एकादशी कहा जाता है। इस दिन बाबा विश्वनाथ का विशेष श्रृंगार होता है और काशी में होली का पर्वकाल प्रारंभ हो जाता है। पौराणिक परम्पराओं और मान्यताओं के अनुसार रंगभरी एकादशी के दिन ही भगवान शिव माता पार्वती से विवाह के उपरान्त पहली बार अपनी प्रिय काशी नगरी आए थे। इस मौके शिव परिवार की चल प्रतिमायें काशी विश्वनाथ मंदिर में रखी जाती है। इस दिन भक्तों की टोली संग बाबा श्री काशी विश्वनाथ मंगल वाध्ययंत्रो की ध्वनि के साथ अपने काशी क्षेत्र के भ्रमण पर निकलते हैं। अपनी जनता, भक्त, श्रद्धालुओं का यथोचित लेने व आशीर्वाद देने सपरिवार निकलते है। बाबा की पालकी यात्रा मंदिर के पूर्व महंत के घर से निकलती है। चंद कदम की इस यात्रा में हजारों शिवभक्त जुटते हैं। बाबा को इतना अबीर-गुलाल अर्पित किया जाता है कि पूरा रास्ता लाल हो जाता है। इसी के साथ पूरे शहर में होली का उल्लास शुरू हो जाता है। यह पर्व काशी में मां पार्वती के प्रथम स्वागत का भी सूचक है। जिसमे उनके गण उन पर व समस्त जनता पर रंग अबीर गुलाल उड़ाते, खुशियां मानते चलते है। शोभायात्रा में बाबा विश्वनाथ, माता पार्वती व गणेश की रजत प्रतिमा को श्रद्धालु बड़ी पालकी पर लेकर चलते हैं। आशीर्वाद मुद्रा में पालकी में आसीन भोलेनाथ और मां पार्वती की गोद में विराजमान गजानन की छवि निहारने के लिए भक्तों का रेला उमड़ता है। प्रतिमा मंदिर गर्भगृह तक डमरू की गूंज और जयकारे के साथ पहुंचती है। पूरे मंदिर परिसर में अबीर-गुलाल की बौछार होती रहती है।
यह सिलसिला अर्धरात्रि तक चलता है। इस दौरान सभी गलियां रंग अबीर से सराबोर हो जाते है। हर हर महादेव का उदघोष सभी दिशाओ में गुंजायमान हो जाता है। एक बार फिर काशी क्षेत्र जीवंत हो उठता है। जहां श्री आशुतोष के साक्षात् होने के प्रमाण प्रत्यक्ष मिलते है। इसके बाद श्री महाकाल श्री काशी विशेश्वर को सपरिवार मंदिर गर्भ स्थान में ले जाकर श्रृंगार कर अबीर, रंग, गुलाल आदि चढाया जाता है। इस दिन से वाराणसी में रंग खेलने का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है जो लगातार छह दिन तक चलता है। विश्वनाथ मंदिर के मंहत डा. कुलपति तिवारी ने बताया 357 वर्षो से लगातार वर्ष में सिर्फ एक बार ही रंगभरी एकादशी पर मंहत आवास पर बाबा विश्वनाथ, माता पार्वती एंव गणेश की चल रजत प्रतिमाओं के राजसी स्वरूप में पालकी पर सवार होकर दर्शन देते हैं। इस दिन बाबा विश्वनाथ स्वंय भक्तों के साथ जमकर होली खेलते हैं। बाबा की चल प्रतिमा के दर्शन के लिए महंत के घर में वर्ष में एक बार रंगभरी के दिन ही पट खुलता है। इससे पहले माता पार्वती के शृंगार के लिए महिलाएं जुट जाएंगी। गोधूलि बेला में बाबा को चांदी के सिंहासन पर बैठाकर आंगन में उतारा जाएगा। वहीं आरती-पूजा होगी। फिर पालकी पर सिंहासन रखा जाएगा। इसके बाद भक्त अबीर-गुलाल अर्पित करेंगे।
व्रत से होगा हर तरह की दरिद्रता का नाश
इस दिन प्रातःकाल स्नान करके पूजा का संकल्प लें और व्रत प्रारंभ करें। घर से एक पात्र में जल भरकर शिव मंदिर जाएं। साथ में अबीर गुलाल चन्दन और बेलपत्र भी ले जाएं। पहले शिव लिंग पर चन्दन लगाएं, फिर बेल पत्र और जल अर्पित करें। सबसे अंत में अबीर और गुलाल अर्पित करें। फिर आर्थिक समस्याओं के समाप्ति की प्रार्थना करें। इस दिन परशुराम जी की सोने या चांदी की मूर्ति बनाकर पूजा और हवन करते हैं। इसके उपरान्त सब प्रकार की सामग्री लेकर आंवला (वृक्ष) के पास रखें। वृक्ष को चारों ओर से शुद्ध करके कलश की स्थापना करनी चाहिए और कलश में पंचरत्न आदि डालें। इसके साथ पूजा के लिए नया छाता, जूता तथा दो वस्त्र भी रखें। कलश के ऊपर परशुराम की मूर्ति रखें। इन सबकी विधि से पूजा करें। इस दिन रात्रि जागरण करते हैं। नृत्य, संगीत, वाद्य, धार्मिक कथा वार्ता करके रात्रि व्यतीत करें। आंवले के वृक्ष की 108 या 28 बार परिक्रमा करें तथा इसकी आरती भी करें। अन्त में किसी ब्राह्मण की विधि से पूजा करके सारी सामग्री परशुराम जी का कलश, दो वस्त्र, जूता आदि दान कर दें। इसके साथ विधिपूर्वक ब्राह्मणों को भोजन करवाएं और इसके पश्चात स्वयं भी भोजन करें। सम्पूर्ण तीर्थो के सेवन से जो पुण्य प्राप्त होता है तथा सब प्रकार के दान देने से जो फल मिलता है, यह सब उपयुक्त विधि इस एकादशी के व्रत का पालन करने से सुलभ होता है। यह व्रत सब व्रतों में उत्तम है अर्थात् सब पापों से मुक्त कराने वाला है। इस दिन इन बातों का व्रती को ध्यान करना चाहिए कि बार-बार जलपान, हिंसा, अपवित्रता, असत्य-भाषण, पान चबाना, दातुन करना, दिन में सोना, मैथुन, जुआ खेलना, रात में सोना और पतित मनुष्यों से वार्तालाप जैसी ग्यारह क्रियाओं को नहीं करना चाहिए। आंवले के वृक्ष में भगवान श्री हरि का निवास होता है। इसलिए इस दिन आंवले के वृक्ष के नीचे बैठकर भगवान श्रीहरि का पूजन किया जाता है। इस दिन किसी को भी चावल का सेवन नहीं करना चाहिए। मान्यता है कि इस दिन जो भक्त भगवान श्री हरि विष्णु की पूजा अर्चना करता है उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। शत्रुओं के भय से मुक्ति मिलती है धन-संपत्ति पद प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है।
आमलकी एकादशी पर होती है सौभाग्य और स्वास्थ्य की प्राप्ति
इस एकादशी पर आंवले के वृक्ष की पूजा की जाती है। साथ ही आंवले का विशेष तरीके से प्रयोग किया जाता है। इससे उत्तम स्वास्थ्य और सौभाग्य की प्राप्ति होती है। इसीलिए इस एकादशी को ‘आमलकी एकादशी‘ भी कहा जाता है। इस दिन प्रातः काल आंवले के वृक्ष में जल डालें। वृक्ष पर पुष्प, धूप, नैवेद्य अर्पित करें। वृक्ष के निकट एक दीपक भी जलाएं। वृक्ष की सत्ताइस बार या नौ बार परिक्रमा करें। सौभाग्य और स्वास्थ्य प्राप्ति की प्रार्थना करें। अगर आंवले का वृक्ष लगाएं तो और भी उत्तम होगा। माना जाता है कि आंवले की उत्पत्ति भगवान विष्णु के द्वारा हुयी थी। आंवले के प्रयोग से उत्तम स्वास्थ्य और समृद्धि मिलती है। आंवले के दान से गौ दान का फल मिलता है। इस दिन आंवले का सेवन और दान करें। इसके बाद कनक धारा श्लोक का पाठ करें।
चर्म रोगों से मिलता है छुटकारा
भारतीय उत्सवों में स्वास्थ्य की पैनी दृष्टि भी दिखती है। फाल्गुन में विषाणु प्रबल हो जाते हैं, अतः उनसे लड़ने, उनका प्रतिकार करने के लिए अग्नि (होलिका) जलाना, रंग उड़ाना, रंग पोतना और नीम का सेवन आनन्द तो देते ही हैं, साथ ही स्वास्थ्य की रक्षा भी करते हैं। इस दिन से मित्रता एवं एकता पर्व आरम्भ हो जाता है। यही इस व्रत का मूल उद्देश्य एवं संदेश है।
चांदी की पालकी पर सवार होंगे बाबा विश्वनाथ
रंगभरी एकादशी के मौके पर बाबा विश्वनाथ 11 किलो चांदी से निर्मित पालकी में भक्तों को दर्शन देने के लिए निकलेंगे। दरअसल बाबा विश्वनाथ, माता पार्वती संग प्रथमेश की चल प्रतिमा की पालकी यात्रा के लिए चांदी का नया सिंहासन बनवाया गया है। यहां टेढ़ीनीम स्थित महंत आवास पर सिंहासन, ’शिवांजलि’ की ओर से बाबा को अर्पित किया जाएगा। बाबा विश्वनाथ के लिए यह नई पालकी 358 साल बाद तैयार की गई है। इसके पहले महंत परिवार की तरफ से चांदी का सिंहासन तैयार करके इसका इस्तेमाल पालकी के रूप में भी किया जाता था लेकिन इस बार कश्मीर और दिल्ली के भक्तों की तरफ से बाबा विश्वनाथ को लगभग 11 किलो चांदी के साथ कश्मीर की खास लकड़ियां भी दान में दी गई हैं। मान्यता है कि आमलकी एकादशी के दिन ही ब्रह्मा जी के अश्रु श्रीहरि के चरणों में गिरकर आंवले के पेड़ में तब्दील हो गए थे। तब से इस एकादशी को आमलकी एकादशी के रूप में पूजा जाने लगा और इसमें नारायण की पूजा के साथ साथ आंवले के पेड़ का पूजन किया जाता है।
रंगभरी एकादशी व्रत कथा
प्राचीन काल में चित्रसेन नामक राजा रहता था। उसके राज्य में एकादशी व्रत का विशेष महत्व था। राजा चित्रसेन के राज्य में सभी एकादशी का व्रत किया करते थे। राजा की एकादशी के प्रति बेहद गहरी आस्था थी। बता दें कि रंगभरी एकादशी को आमलकी एकादशी भी कहा जाता है। एक समय की बात है जब राजा शिकार करने में इतने मग्न हो गए कि कब वह जंगल से बहुत दूर निकल गए, उन्हें पता ही नहीं लगा। उस दौरान कुछ जंगली और पहाड़ी डाकुओं ने राजा को घेर लिया। इस दौरान डाकूओं ने राजा पर प्रहार करना शुरू कर दिया, लेकिन जब भी डाकू राजा पर प्रहार करते वह शस्त्र भगवान की कृपा से पुष्प में परिवर्तित हो जाता। डाकुओं की संख्या अधिक होने के कारण राजा संज्ञाहीन होकर भूमि पर गिर गए। तभी राजा के शरीर से एक दिव्य शक्ति प्रकट हुई और उस दिव्य शक्ति ने समस्त दुष्टों को मार दिया, जिसके बाद वह अदृश्य हो गई। जब राजा की चेतना लौटी तो उसने सभी डाकुओं को मृत्य पाया। यह दृश्य देखकर राजा को आश्चर्य हुआ। राजा के मन में प्रश्न उठा कि इन डाकुओं को किसने मारा. तभी आकाशवाणी हुई कि हे राजन! यह सब दुष्ट तुम्हारे आमलकी एकादशी का व्रत करने के प्रभाव से मारे गए हैं। तुम्हारी देह से उत्पन्न आमलकी एकादशी की वैष्णवी शक्ति ने इनका संहार किया है। इन्हें मारकर वह पुनः तुम्हारे शरीर में प्रवेश कर गई। यह सारी बातें सुनकर राजा को अत्यंत प्रसन्नता हुई, एकादशी के व्रत के प्रति राजा की श्रद्धा और भी बढ़ गई। इसके बाद से राजा चित्रसेन ने वापस लौटकर राज्य में सबको एकादशी का महत्व बतलाया।