‘निरहुआ’ के जरिए एक बार फिर आजमगढ़ को साधेगी भाजपा
यूपी विधानसभा चुनाव में योगी की प्रचंड जीत के बाद आजमगढ़ की हारी बाजी को जीतने के लिए भाजपा ने जोर आजमाइश शुरु कर दी है। सूत्रों की मानें तो सपा मुखिया अखिलेश यादव द्वारा छोड़ी गयी लोकसभा सीट पर आजमगढ़ में होने वाले उपचुनाव के मद्देनजर भाजपा निरहुआ को हो मैदान में उतारेगी। इसके लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपने शपथ ग्रहण के दौरान ही निरहुआ को जीत का आशीर्वाद दे चुके हैं। खास यह है कि योगी के आशीर्वाद के बाद निरहुआ ने आजमगढ़ से ताल ठोकने की तैयारी शुरु भी कर दी है। पड़ोसी देश नेपाल में चल रही शूटिंग खत्म होते ही निरहुआ आजमगढ़ में ताबड़तोड़ रैलियां करेंगे। इस बार बाजी किसके हाथ लगेगी, यह तो उपचुनाव घोषणा के बाद मैदान में उतरने वाले सपा-बसपा प्रत्याशियों के आने के बाद पता चलेगा, लेकिन निरहुआ के तैयारियों के बीच आजमगढ़ एक बार फिर सुर्खियों में है।
–सुरेश गांधी
‘दुलहिन रहे बीमार, निरहुआ सटल रहे…’ जैसे सुपहरहिट गाने के बूते लोगों के दिलों में राज करने वाले निरहुआ के यूपी विधानसभा चुनाव के दौरान ’यूपी के बच्चा-बच्चा फरमाइश में योगी, अइहें 22 में योगी जी, 27 में भी योगी जी’, ’घुस जाले बिलवा में सांप बिच्छू, गोजर, चलेला जब चाप बाबा का बुलडोजर, यूपी से गायब भइले सूरमा, गजोधर जैसे’ गाने लोगों की जुबान पर है। राजनीतिक पंडितों की मानें तो यूपी में योगी की प्रचंड जीत में निरहुआ की इन दोनों गानों की बड़ी भूमिका है। इसे योगी ही नहीं बल्कि भाजपा भी मानती है और इसी का परिणाम है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने शपथ ग्रहण में किसी बड़े वहदे से नवाजने के बजाय निरहुआ को अखिलेश यादव द्वारा छोड़ी गयी लोकसभा सीट आजमगढ़ में होने वाले उपचुनाव को देखते हुए जीत का आशीर्वाद दिया है। बता दें कि सैकड़ों भोजपुरी फिल्मों में अपने गीत और अभिनय का लोहा मनवा चुके दिनेश यादव उर्फ निरहुआ ने 2019 में लोकसभा चुनाव भाजपा के टिकट पर आजमगढ़ से लड़ा था। आजमगढ़ में दिनेश यादव निरहुआ के सामने सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव थे। अखिलेश यादव ने लोकसभा चुनाव में निरहुआ को आसानी से हरा दिया था। इसके बाद भी निरहुआ लगातार भाजपा से जुड़े हुए हैं। खास यह है कि आजमगढ़ से मैदान में उतरने से पहले निरहुआ ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की मौजूदगी में पार्टी की सदस्यता ग्रहण की थी और एक बार फिर उन्हीं के आशीर्वाद से आजमगढ़ की सीट पर होने वाले उपचुनाव में ताल ठोकेंगे। उनका मुकाबला किससे होगा यह तो चुनाव के दौरान पता चलेगा, लेकिन रूपहले पर्दे से सियासी मैदान में उतरे भोजपुरी फिल्मों के मेगास्टार दिनेश लाल यादव ’निरहुआ’ एक बार फिर सुर्खियों में है।
कहा जा रहा है अखिलेश यादव को कड़ी टक्कर देने वाला सिने स्टार दिनेश लाल उर्फ निरहुआ उस वक्त भले ही हार गया लेकिन मुलायम सिंह यादव से अधिक वोट पाया। शायद यही वजह है 2024 की तैयारी में अभी से जुटी बीजेपी यादव वोटबैंक को अपने पाले में लाने के लिए निरहुआ को कोई बड़ी जिम्मेदारी देते हुए आगे कर सकती है। इसकी बड़ी वजह यह है कि यादव समाज अब समझने लगा है कि अपने जिद के आगे अखिलेश ने न सिर्फ सपा को फर्श से अर्श पर पहुंचाने वाले मुलायम सिंह यादव की अनदेखी की है बल्कि पार्टी को भी गर्त में पहुंचा दिया है। इसके चलते यूपी की सियासत में बड़ी जिम्मेदारी निभाने वाले यादव समाज की अब साख भी गिरने लगी है। यादव समाज को अब निरहुआ में भविष्य दिखता है। भोजपुरी बिरहा सम्रांट गायक बल्लू यादव के लड़के संतोष यादव उर्फ पहलवान कहते है अखिलेश यादव समाज का नहीं सिर्फ अपना विकास चाहते है। उनके अंदर अब मुलायम की सोच नहीं है। वे चाहते तो यादव समाज में उभरते निरहुआ को पार्टी में जगह दे सकते थे। लेकिन पार्टी में जगह देना तो दूर जब निरहुआ आजमगढ़ से लड़ा तो पूरी खानदान चाहे वो धर्मेंद्र यादव हो या डिम्पल या अन्य सभी के सभी उसे हराने के लिए अपनी सीट छोड़कर डेरा डाल दिया। वैसे भी अखिलेश हमेशा ग्वाल यदुवंशियों की हमेशा से उपेक्षा करते आएं है। उन्हें पनपने का मौका नहीं दिया। वे सिर्फ अपने समाज घड़ोर यदुवंशियो को ही बढ़ाने में लगे रहते है। जबकि अपने लाल निरहुआ को पूर्वांचल का ग्वाल समाज दिल से चाहता है कि वो हम सबका नेतृत्व करें।
फिरहाल, यादव व मुस्लिमों के सहारे अपनी बची-खुची वोटबैंक बचाने के लिए हार का ठिकरा भले ही इवीएम की गड़बड़ी व साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण पर फोड़ रहे है, लेकिन सच जनता को मालूम है कि उनके कार्यकाल की गुंडागर्दी आज भी लोगों के जेहन में कौध रहा है। मतलब साफ है यूपी में बीजेपी की बंपर जीत ने अखिलेश को फिर से अपनी रणनीति पर विचार करने को मजबूर कर दिया है। एक तरफ जहां बीजेपी 2024 का महाजंग जीतने के लिए अभी से रणनीति पर काम करना शुरू कर चुकी है तो दूसरी ओर अखिलेश व मायावती हार का मातम मनाने में मशगूल है। लेकिन बड़ा सवाल तो यही है कि आखिर क्या वजह है कि यूपी की सियासत में यादव क्यों इतने अहम हैं और इनकी राजनीति क्यों सिर्फ एक परिवार तक सिमट जाती है। जबकि यादव वो हैं जिन्होंने ब्राह्मण-ठाकुर राजनीतिक नेतृत्व को यूपी की सत्ता से न सिर्फ बेदखल किया बल्कि मंडल आंदोलन के बाद मायावती को छोड़ दें तो सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य की सत्ता में लगातार बने रहे। 2014 में मोदी की आंधी आई और यूपी की यादव सत्ता सिर्फ मुलायम परिवार के कुछ सांसदों तक ही सिमट गई। 2017 व 2022 का विधानसभा चुनाव ज्यादा बुरे नतीजे लेकर आया।
एक सर्वे के मुताबिक 2009 के लोकसभा चुनाव में सबसे ज्यादा 73 फीसदी यादव सपा के साथ थे। जबकि 2014 के चुनाव तक इसमें बीजेपी सेंधमारी कर चुकी थी और यह घटकर सपा के पक्ष में सिर्फ 53 फीसदी ही रह गया। बीजेपी को 27 फीसदी यादवों के वोट हासिल हुए। जबकि 2009 में उसे इस जाति के सिर्फ 6 फीसदी ही वोट मिले थे। कांग्रेस ने जहां 2009 में 11 फीसदी यादवों का समर्थन हासिल किया था वहीं 2014 में वह और कम होकर सिर्फ आठ फीसदी ही रह गया। सर्वे का दिलचस्प पहलू ये है कि पिछले दो चुनावों में बसपा के पक्ष में पांच फीसदी से अधिक यादव नहीं आए। बात 2007 और 2012 के विधानसभा चुनाव की करें तो कांग्रेस को इस जाति के सिर्फ 4 फीसदी वोट मिले। सपा को 2007 में 72 फीसदी जबकि 2012 में घटकर सिर्फ 66 फीसदी यादवों का मत हासिल हुआ। बीजेपी लगातार इस जाति में पैठ बनाने की कोशिश करती नजर आ रही है। लेकिन योगी सरकार में सिर्फ एक यादव मंत्री ही बनाया गया है। अन्य जातियों की तरह ही यादवों में भी उपनामों के हिसाब से उनमें एक दूसरे से कुलीन और श्रेष्ठ होने की बात सामने आती है। ग्वाल, ढढोर के नाम पर खासतौर पर इनमें सियासी बेचैनी देखने को मिलती है। इसी का फायदा बीजेपी निरहुआ के जरिए उठाने का प्रयास कर रही है। वो इसमें कामयाब भी दिख रही है। यादव वोटबैंक में सेंध लगाने में वो इसलिए कामयाब है क्योंकि यादवों की हिंदू धर्म में गहरी आस्था है। वे श्रीकृष्ण को अपना आराध्य मानते हैं, ऐसे में बीजेपी धर्म और आस्था के बल पर आसानी से उनके नजदीक हो जाती है। ग्वाल, ढढोर को लेकर जो स्पेस बन रहा है उसमें भी वो सेंध लगा रही है। एक और बड़ा तर्क ये है कि मुलायम सिंह और अखिलेश पूरे यूपी के यादवों को बराबरी की नजर से शायद नहीं देख पाए। इसलिए वो यादव बीजेपी की तरफ गए। इसके अलावा यादवों और कुर्मियों को 7 फीसदी आरक्षण देने की तैयारी है। जबकि अखिलेश का 17 ओबीसी जातियों को अनूसूचित जातियों में शामिल करने का दांव धरा का धरा रह गया।
अखिलेश का यादव प्रेम सिर्फ अपने परिवार तक
इलाहाबाद हाईकोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस सभाजीत यादव कहते हैं कि मुलायम सिंह हो अखिलेश उनका यादव प्रेम सिर्फ अपने परिवार तक सीमित है। ये बात सच है कि ज्यादातर यादव सपा के साथ जुड़े हैं लेकिन इसमें उसका नुकसान भी है। अब देखिए वर्तमान सरकार में वे कहां हैं? दूसरी पार्टी को आप वोट नहीं देते तो फिर आपको वो क्यों टिकट देगी और सपा जिसे आप सबसे ज्यादा वोट देते हैं वो सिर्फ अपने परिवार के यादवों को टिकट देगी। फिलहाल यूपी की पॉलिटिक्स में यादवों की पहचान सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव और उनके परिवार से ही है, जबकि बिहार में लालू प्रसाद यादव और उनके परिवार से। सियासी विश्लेषक मानते हैं कि इन दोनों ने यादवों के वोट बैंक से सिर्फ अपनी तिजोरी भरी है, समाज अब भी पिछड़ा ही है। और यही वो चोर दरवाजा है जिसकी चाभी बीजेपी के हाथ लग गई है। यादव समाज में निरहुआ की बढ़ती पैठे से बीजेपी ने यादवों को अपने पाले में लाने के लिए निरहुआ को कोई बड़ी जिम्मेदारी देकर यादव समाज का विकास करना चाहती है। क्योंकि यूपी में ज्यादातर यादव सपा से जुड़े हैं। विश्लेषकों के मुताबिक यादव वोटबैंक का एक हिस्सा सपा से बीजेपी में शिफ्ट हुआ है। इसीलिए बीजेपी निरहुआ सहित कई बड़े यादवों को पार्टी में जिम्मेदारी देना चाहती है। वैसे भी निरहुआ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बेहद करीबी है। यूपी के एटा, इटावा, फ़र्रुखाबाद, मैनपुरी, कन्नौज, आजमगढ़, फ़ैज़ाबाद, बलिया, संत कबीर नगर और कुशीनगर जिले को यादव बहुल माना जाता है। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भी यूपी के ग्वाल यादवों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था।
1922 में गोरखपुर में हुए चौरीचौरा आंदोलन में हिस्सा लेने वाले ज्यादातर लोग दलित एवं पिछड़ी जाति के थे और इनका नेतृत्व भी भगवान अहीर कर रहे थे। भगवान अहीर को इसके लिए फांसी की सजा भी सुनाई गई थी। चौधरी रघुबीर सिंह भी एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी थे। आज़ादी से पहले ही यादव नेता चौधरी नेहाल सिंह, चौधरी गंगाराम, बाबूराम यादव और लक्ष्मी नारायण ने यूपी, दिल्ली और मध्य भारत के कुछ हिस्सों में उपजातियों में बंटे हुए यादवों को एक करना शुरू कर दिया था। 1908 में ही इन नेताओं ने यादव सभा बनाई। इसके बाद यादवों के संघर्ष और जागरूकता की वजह से ही उन्हें सत्ता में अच्छी भागीदारी मिली। यादवों का भी यूपी की राजनीति में क़द बढ़ता गया। चौधरी चरण सिंह ने 1967 में ही यूपी में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनाई और मुलायम सिंह यादव इस सरकार में सहकारिता मंत्री बनाए गए। 1977 में रामनरेश यादव ने यूपी में जनता पार्टी की सरकार बनाई। इसके बाद तो मुलायम सिंह यादव तीन बार सीएम बने और बाद में 2012 में अखिलेश यादव ने भी यूपी की सत्ता संभाली। लेकिन समाज का विकास होने के बजाय उन्हीं का विकास हुआ। एमवाई समीकरण मतलब यादव-मुस्लिम वोट। यह मुलायम सिंह की सियासी गणित का फार्मूला था। इसके बाद 1992 की बाबरी विध्वंस की घटना के बाद मुलायम का ’एम’ समीकरण और मजबूत होकर उभरा और उन्होंने लगातार इसकी सियासी फसल काटी। आज भी समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव को एमवाई वोटबैंक के गणित पर काफी भरोसा है। लेकिन सफलता नहीं मिली।
अपने कार्यकाल में एक बार भी नहीं आएं आजमगढ़
एक सवाल के जवाब में निरहुआ ने कहा कि अखिलेश ने सैफई को स्वर्ग बनाया लेकिन अपने पिता के संसदीय क्षेत्र में ना ही मुख्यमंत्री रहते अखिलेश ने कोई काम किया और अपने सांसद कार्यकाल में काम तो दूर आजमगढ़ में पांच साल तक कदम ही नहीं रखा। निरहुआ ने कहा कि प्रत्येक यादव का मानना है कि आज वे ‘अखिलेश भक्त‘ नहीं हैं क्योंकि वे यादव हैं, वे ‘देश भक्त‘ हैं। हमारे अपने विचार हैं, हम जानते हैं कि क्या देश के लिए उचित है। हमें जातिगत राजनीति से ऊपर उठना होगा, लोग इसे समझ रहे हैं। मोदी के खिलाफ अखिलेश यादव जो बोलते हैं वे मेरे समझ में नहीं आती हैं। निरहुआ ने कहा कि आजमगढ़ की जनता के दम पर एक बार फिर अपनी किस्मत आजमायेंगे। उन्होंने हमेशा मुश्किल डगर ही चुनी है और विचारों की इस जंग में जीत उनकी ही होगी।
योगी के आर्शीवाद से ‘आजमगढ़’ जीतेंगे
यह पूछे जाने पर कि फिल्मी हस्तियां अक्सर अपने कॅरियर और राजनीति के बीच तालमेल नहीं बैठा पाती है, भोजपुरी स्टार ने कहा ’’तालमेल नहीं बैठा पाते हैं, क्योंकि वे फिल्म जगत का मोह नहीं छोड़ पाते, मैं पूरी तरह यहीं रहूंगा। एक-दो अच्छी फिल्में बनानी होंगी तो यहीं बना लूंगा। अगर मैं सांसद बना तो आजमगढ़ को फिल्म निर्माण का गढ़ बनाऊंगा।’’ उन्होंने कहा कि पूर्वांचल उनका घर है और वह यहां की मूल समस्याओं से वाकिफ हैं। उनका दर्शक वर्ग गरीब तबका है। उसे कहीं ना कहीं जाति, धर्म के नाम पर सिर्फ इस्तेमाल किया जाता है। जब उसको सम्मान देने की बात आती है तो हर पार्टी पीछे हट जाती है। राजनीति में उनकी इंट्री उसी वक्त हो चुकी थी जब निरहुआ ने साल 2013 की तपती जून में मुलायम सिंह यादव की सभा में गाना गाएं थे। खास बात यह है कि समाजवादी पार्टी द्वारा आयोजित इस मंच पर केंद्र में सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव विराजमान थे और दाहिनी तरफ सबसे किनारे की कुर्सी पर निरहुआ को जगह दी गयी थी। निरहुआ ने कहा कि बाबा योगी आदित्यनाथ के आर्शीवाद के बाद ही उसने भोजपुरी गानों की शुरुवात कर पूरी दुनिया में सोहरत पाई अब मोदी और योगी के आर्शीवाद से ‘आजमगढ़’ जीतेंगे।