–राव शिवराज पाल सिंह ‘इनायती’
“कुछ भक्त कवि अपने अपने आराध्य देव की आराधना या गुणगान कर उनके साथ इतने एकाकार से हो गए हैं कि उन कवियों द्वारा अपने आराध्य देव से अलग कहीं किसी अन्य अवतार की लीला गान करने का सहज ही विश्वास नहीं होता।सूरदास, जोकि कृष्ण लीला गान के लिए जगत प्रसिद्ध हुए हैं ने उसी भक्ति भाव से किया है जिस श्रद्धा से उन्होंने कृष्ण लीला का बखान किया। तुलसीदास जी और सूरदास जी दोनों के श्रद्धा भाव को देखने से ज्ञात होता है कि एक तरफ तुलसीदास जी ने भक्त नाभा जी के वृंदावन स्थित मंदिर में कृष्ण से जिद्द पकड़ ली कि …
‘तुलसी मस्तक तब नवे, जब धनुष बाण लेओ हाथ।’ वहां पर आज भी धनुष बाण लिए कान्हा के दर्शन किए जा सकते हैं। किंतु सूरदास जी ने भगवान राम का जस भी उसी भक्ति भाव से गाया जिस भाव से श्रीकृष्ण का गाया। सूर के श्याम जहां गोपियों और सखाओं के साथ तरह तरह की लीला करने में भी संकोच नहीं करते, वहीं सूर के राम ने एक बार जो अपने मुखारविंद से कह दिया वह अटल है …
‘आई विभीषण सीस नवायो।
देखत ही, रघुबीर धीर, कहि लंकापति बुलायो।
कह्यो सो कह्यो नहीं रघुबर, यहै बिरदि चलि आयो।
भक्त-वछल करुनामय प्रभु को, सूरदास जस गायो।’
तुलसी के राम भगवान हैं, आराध्य हैं लेकिन सूर के राम तो सखा ही रहेंगे, राम जन्म प्रसंग पर आशीर्वचन देते हुए कहते हैं कि ..
देत असीस ‘सूर’, चिरजीवो राम रणधीर” और साथ ही खुद भी वहीं से दाद भी पा लेते हैं;
“चारि पुत्र दशरथ के उपजे, तिहूं लोक ठकुराई।
सदा सर्वदा राज राम के, ‘सूर’ दाद तहां पाई।”
बाल क्रीड़ा का भी वर्णन सूरदास ने बड़े ही मनोयोग से किया है, उनके आराध्य चाहे कृष्ण रूप हों या राम रूप, माखन तो खाना ही पड़ेगा…
“घुटरून चलत कनक आंगन में, कौशल्या छबि देखत।
नील नलिभ तन पीत झंगुलिया, घन दामिनी दुति पेखत।
कबहुं माखन ले के खावत, खेल करत पुनि मांगत।”
बाल क्रीड़ा में सूर के राम कहीं कहीं तुलसी के राम जैसे भी लगते हैं, जब वे बालपन में भी हाथ में धनुष बाण लेकर खेलते हैं, मानो उस बाली उमर में भी घोष कर रहे हों कि मेरा अवतार हुआ ही इस धरा को निसिचर विहीन करने के लिए हुआ है। लक्ष्मण तो सूर के भी उतने ही उग्र हैं, अन्य सभी राजाओं द्वारा धनुष उठाने में विफल रहने पर राजा जनक ने जब क्षोभ व्यक्त किया तब लक्ष्मण हठात ही बोल पड़ते है कि यह भगवान शंकर के धनुष की क्या बात कही, यह सारा संसार ही हाथों में उठा सकने वाले सूर्यवंशी यहां मौजूद हैं।
“यह सुनि लछमन भए क्रोध जुत, विषम वचन यों बोले।
सूरज वंश नृपति भूतल पर, जाके बल बिनु तोले।
केतिक बातब्येह धनुष रूद्र को, सकल बिस्व कर लैहों।”
तुलसी दास जी एक गूढ़ प्रसंग को केवल भगवान राम और सीता माता के मध्य ही गोपनीय रखते हैं:
” सुनहु प्रिया व्रत रुचिर सुसीला। मैं कछु करब ललित नरलीला।।
तुम्ह पावक महुं करहु निवासा। जौं लगि करौं निसाचर नासा।।
मगर सूरदास कहते हैं कि संसार को भले ही भगवत लीला का पता नहीं रहा हो, रावण को तो यह तथ्य भलीभांति मालूम था कि राम स्वयं भगवान विष्णु के साक्षात अवतार हैं और वह स्वयं पूर्वजन्म के शाप वश यहां पर है। रावण मंदोदरी के समझाने पर उत्तर देता है कि …
” सुनि प्रिया तोहि कथा सुनाऊँ।
… अधरम करत ही गए जनम शत, अब कैसे सिर नाऊं।
… जो सनकादिक श्राप न देते, तौ ना कनकपुर आऊं।”
और अब जब में श्राप वश इस सोने की लंका में आ ही गया हूं तो यहां से मेरे उद्धार का एक ही रास्ता है, और वह यही है कि अंत समय तक राम से बैर निबाह कर उन्हीं के हाथों मारा जाकर मुझे परम पद प्राप्त हो। सूरदास तो रावण के मुंह से मंदोदरी से यहां तक कहलवाते हैं कि सीता जी कोई साधारण स्त्री नहीं हैं। वह जगजननी एकनाइस जहाज के समान हैं कि जिसके अवलंबन से रावण जैसा पापी भी तर जाएगा, क्योंकि जगज्जननी रूपी जहाज के खिवैया स्वयं भगवान राम जो ठहरे….
” सुनि बावरी! मुगधि मति तेरी, जनक सुता तैं तिय कर जानी।
यह सीता निरभै को बोहित, सिंधु सुरूप विषै को पानी।
मोहि गवन सुरपुर को करिबे, अपने काज को मैं हर आनी।
सूरदास स्वामी केवट बिन, क्याें उतरे रावन अभिमानी।”
और जब भगवान राम रावण वध के उपरांत माता सीता के साथ अयोध्या लौटते हैं, तो सब को सुख मगन देख कर सूरदास स्वयं भी मन में अपार सुखी होते हैं :
” जथा जोग भेंटे पुरवासी, गए सूल सुख सिंधु नहाए।
सियाराम लछिमन मुख निरखत, सूरदास के नैन सिराए।”
तथा
” निज मंदिर मैं आनि तिलक दे, द्विज गण मुदित असीस सुनाई।
सिया सहित सुख बसों इहां तुम, ‘सूरदास’ नित उठि बलि जाई।”
किंतु यहीं पर सूरदास जी को अपने राम की व्यवस्था से शिकायत भी हो जाती है, जिसकी गौस्वमी तुलसीदास जी के दास्य भाव में तो कहीं जगह ही नहीं थी, पर सूरदास जी की आराधना तो साख्य भाव की ठहरी, वे तो शिकायत करे बिना नहीं मानेंगे कि आप सदा ही इतने व्यस्त रहते हैं कि मेरी प्रार्थना आपको कब सुनाऊं ? ऐसा नहीं करें कि मैं आपको अर्जी लिख कर भेज दूं और आप अपनी सुविधानुसार उसे बांच लें ।
” विनती केहि विधि प्रभुहि सुनाऊं।
महाराज रघुबीर धीर को, समय ना कबहुं पाऊं।
जाम रहति जामिनी के बीतें, तिही अवसर उठि धाऊं।
सकुच होत सुकुमार नींद तें, कैसे प्रभुहि जगाऊं।
दिनकर किरण उदित ब्रह्मादिक , रूद्रादिक इक पाऊं।
अगनित भीर अमर मुनि गन की, तिही ते ठौर ना पाऊं।
उठत सभा दिन मध्य सियापति, देखि भीर पुनि आऊं।
न्हात खात सुख करत साहिबी, कैसे करि अनखाऊं।
रजनी मुख आवत गुन गावत, नारद तुंबरू नाउं।
तुम ही कहौ, कृपण हो रघुपति, किही विधि दुख समझाऊं।
एक उपाय करौ कमलापति, कहौ तो कहि समझाऊं।
पतित उधारण ‘सूर’ नाम प्रभु लिखी कागद पहुंचाऊं।”
और अंत में अपने लेख का समापन मैं उस पद के साथ करता हूं जिसमें अपने प्रयास की लघुता को रेखांकित करते हुए सूरदास कहते हैं कि ..
” राम बिहार करेउ नाना विधि, बाल्मीकि मुनि गायो।
बरनत चरित विस्तार कोटि सत, तऊ पार नहीं पायो।
‘सूर ‘ समुद्र की बूंद भई यह, कवि बरनन कहा करिहैं।
कहत चरित रघुनाथ, सरस्वती बौरी मति अनुसरिहै।
अपने धाम पठाय दिए तब, पुरवासी सब लोग।
जै जै जै श्रीराम कलपतरु, प्रगट अजोध्या भोग।।”
जय श्री राम!