असम में विधानसभा चुनाव अप्रैल-मई में होंगे, लेकिन वहां अभी से चुनावी शंखनाद की गूँज सुनाई देने लगी है.
पिछले दो हफ़्तों में केंद्रीय मंत्री राजनाथ सिंह और स्मृति ईरानी के दौरे के बाद मंगलवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राज्य के दौरे पर हैं.
भारतीय जनता पार्टी ने चुनाव की तरफ़ पहला बड़ा क़दम उठाते हुए बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट से हाथ मिलाया है.
असल में भाजपा ने असम में चुनाव की तैयारी दिल्ली और बिहार में हुई भारी हार से पहले से ही शुरू कर दी थी. पार्टी ने राज्य में 126 विधानसभा सीटों के लिए लड़ाई में दो-तिहाई बहुमत प्राप्त करने के लिए ‘मिशन 84’ का नारा महीनों से दे रखा है.
पार्टी ने 84 सीटें हासिल करने के अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कांग्रेस और असम गण परिषद (एजीपी) के कुछ अहम नेताओं और विधायकों को अपनी तरफ़ आकर्षित करने में कामयाबी भी हासिल की है
भाजपा को लोकसभा चुनाव (2014) में राज्य की 14 में से 7 सीटें मिली थीं. इससे उसका मनोबल काफ़ी ऊंचा हुआ था. भाजपा को ये भी विश्वास है कि लगातार तीन विधानसभा चुनाव में मिली जीत के बाद अब कांग्रेस पार्टी और मुख्यमंत्री तरुण गोगोई की सरकार से लोग बेज़ार हो चुके हैं.
वो बदलाव चाहते हैं और भाजपा उन्हें एक अच्छी सरकार देने का वादा कर रही है. लेकिन असम की तस्वीर जो दूर से दिखती है वो नज़दीक जाने से अलग नज़र आती है.
असम अपने आप में एक मिनी इंडिया है. यहाँ सांस्कृतिक और भाषाई विविधता है. बराक घाटी और ब्रह्मपुत्र घाटी की सोच भी अलग है और भाषा भी. अपर असम और लोवर असम की उमंगें अलग हैं.
भाजपा ने हमेशा की तरह इस बार भी “अवैध बांग्लादेशी” के ख़िलाफ़ नारे को अपना रखा है. कम से कम अब तक. पार्टी सूत्रों ने हमें बताया कि आगे जाकर प्रधानमंत्री अपने दौरों में “राज्य के विकास” का नारा देने वाले हैं
असम वालों के लिए अवैध बांग्लादेशियों और घुसपैठ के मुद्दे भावुक ज़रूर हैं, लेकिन “मिशन 84” की कामयाबी की गारंटी नहीं. इस मुद्दे पर पिछले चुनाव में (2011) पार्टी को केवल 5 सीटें मिली थीं. ये मसला इस बार भी चुनावी मुद्दा होगा.
लेकिन इसका प्रभाव चुनावी नतीजों पर अधिक नहीं होगा. यहाँ मुस्लिम आबादी 30 फ़ीसदी है जिसमें अधिकतर बंगाली भाषा बोलने वाले हैं. वो कांग्रेस और बदरुद्दीन अजमल की एआईयूडीएफ़ को वोट देते आए हैं और ऐसा कोई बदलाव नहीं आया है जिससे ये समझा जाए की इस बार भी वो इन दोनों पार्टियों को वोट न दें
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के लिए दिल्ली और बिहार में मिली हार के बाद असम एक अहम चुनौती है. पार्टी में उनकी साख बनी रहे इसके लिए ज़रूरी है कि वो असम विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करें, लेकिन ये उन्हें भी मालूम है और पार्टी के अन्य अहम नेताओं को भी कि कांग्रेस को हराना आसान नहीं होगा.
भाजपा को राज्य में कई चुनौतियों और दिक़्क़तों का सामना करना है जिनमें से ख़ास ये हैं:
- फ़िलहाल 126 चुनावी क्षेत्रों में से आधे में भी पार्टी की उपस्थिति नहीं है. बुनियादी ढांचों की कमी है.
- पार्टी के पास मुख्यमंत्री तरुण गोगोई की तरह ऊंचे क़द का कोई नेता नहीं है.
- भाजपा ने एजीपी और कांग्रेस से जिन नेताओं को तोड़ कर पार्टी में शामिल किया है उनमें से विशेषज्ञ कहते हैं कि अधिकतर पार्टी के काम के नहीं हैं.
- पार्टी ने अब तक कोई बड़ा चुनावी गठजोड़ नहीं बनाया है. इसकी एजीपी से बात चल रही है लेकिन विशेषज्ञ कहते हैं कि एजीपी की घटती लोकप्रियता भाजपा के लिए रोड़ा साबित हो सकती है.
- पार्टी ने कांग्रेस सरकार के ख़िलाफ़ ‘विरोधी लहर’ से लाभ उठाने के लिए कोई ठोस रणनीति नहीं बनाई है.
- कांग्रेस ने अब तक ये संकेत दिए हैं कि वो एआईयूडीएफ़ के साथ चुनाव से पहले गठबंधन नहीं करेगी. लेकिन चुनाव के बाद इससे हाथ मिलाने के लिए तैयार है. भाजपा के लिए ज़रूरी है कि वो चुनाव से पहले और बाद में कांग्रेस और एआईयूडीएफ़ को साथ न आने दे. अब तक पार्टी के पास कोई आइडिया नहीं है कि ये कैसे किया जाए.
- कई विशेषज्ञ कहते हैं कि पार्टी के पास अलग-अलग क्षेत्रों के लिए अलग रणनीति होनी चाहिए. अवैध बांग्लादेशियों के मुद्दे बराक घाटी और ब्रह्मपुत्र घाटी दो जगह काम नहीं आएंगे. दोनों इलाक़ों के मुद्दे भिन्न हैं.
असम में सामाजिक और धार्मिक ध्रुवीकरण करना मुश्किल नहीं, लेकिन विशेषज्ञ कहते हैं कि ये रणनीति नहीं चलेगी. इससे “मिशन 84″का लक्ष्य हासिल नहीं होगा.
अब तक भाजपा की जीत मुश्किल लगती है, लेकिन पार्टी के लिए ये एक बड़ा मौक़ा है.
कांग्रेस यहाँ पिछले 15 साल से सत्ता में है. अगर भाजपा ने चुनौतियों पर काम नहीं किया तो कांग्रेस को हरा पाने में उन्हें मुश्किल हो सकती है.