भक्ति मार्ग में सुमिरन ध्यान ही पर्याप्त
महात्मा तुलसीदासजी के ‘मानस’ में एक ओर जहाँ माता पार्वती के चरित्र द्वारा ‘ज्ञान’ या श्रद्धा के मार्ग का दिग्दर्शन कराया गया है वहीं दूसरी ओर शिवजी के चरित्र को ‘भक्ति’ या विश्वास के मार्ग के प्रतीक के रूप में चित्रित किया गया है। यह तो अपने सरल स्वभाव के कारण अदृश्य में प्रत्यक्षवत् विश्वास करके हृदय से मानकर चलने का मार्ग है। भक्ति के मार्ग में साधक अपनी ओर से जरा सा भी प्रयास नहीं करता, यह तो श्रम रहित शरणागति का मार्ग है जैसा कि मानस की इन पंक्तियों से स्पष्ट है-
सेवक सुमिरत नामु सप्रीती।
बिनु श्रम प्रबल मोह दलु जीती।।
भक्ति की साधना श्रवण से प्रारम्भ होती है जो मानस के इस प्रसंग से स्पष्ट है-
रामकथा मुनिबर्ज बखानी।
सुनी महेस परम सुखमानी ।।
इस प्रसंग में यह उल्लेखनीय है कि जब बाल्मीकिजी के आश्रम पर भगवान् राम पधारे और मुनिराज ने उन्हें चौदह स्थान गिनाये जहाँ वे जानकी तथा श्री लखनलालजी सहित निवास किये तो वहाँ भी पहले श्रवण और फिर दर्शन की इच्छा का क्रम मिलता है। भक्ति मार्ग में श्रवण के बाद दर्शन का क्रम आता है। भक्त जब भगवान् का गुणानुवाद सुनता है तो उसके हृदय में उनके दर्शन की प्रबल इच्छा स्वत: जाग्रत हो जाती है और यह स्वाभाविक है। कुंभज ऋषि के आश्रम में भगवान् राम का गुणगान सुनने के बाद शिवजी को उन्हें (श्रीराम को) देखने की उत्कट इच्छा हुई। इस तथ्य को मानस की निम्न पंक्तियों बड़े सुन्दर ढंग से प्रमाणित करती हैं-
हृदय विचारत जात हर केहि विधि दरसन होइ।
भक्त को किसी योग्यता, प्रयास या साधना की आवश्यकता नहीं होती, इसके लिए तो अभीप्सा मात्र ही पर्याप्त है और ‘राम सदा सेवक रुचि राखी।’ के अनुसार शिवजी को श्रीराम के दर्शन भी प्राप्त हुए और वे आनन्द में विभोर हो गये-
संभु समय तेहि रामहि देखा।
उपजा हियँ अति हरषु बिसेशा।।
परंतु भक्त के जीवन में यह आनन्द तब तक स्थाई रूप से निवास नहीं करता जब तक उसका अंत:करण परासक्ति और पराश्रय से सर्वथा रहित न हो जाये। शिवजी अपनी अर्धांगनी सती को अपना मानते थे और उनसे परम प्रेम था। इस संसार में जब तक किसी वस्तु या व्यक्ति से, अपना समझकर, प्यार या सहारा बना रहता है तब तक आनन्द की धारा सतत् प्रवाहित नहीं हो सकती। अत: शिवजी के विकास के लिए यह परम आवश्यक था कि सती के प्रति उनकी यह ममत्व की भावना हटे और इसलिए भगवान् ने सीता का वेश रखकर जो परीक्षा की बात सती के दिमाग में उत्पन्न कराई, इससे एक ओर जहाँ ‘ज्ञान’ मार्गावलम्बी सती ने इन्द्रियजन्य ज्ञान के बाद बुद्धिजन्य ज्ञान और बुद्धिजन्य ज्ञान के बाद आत्मज्ञान की क्रमिक सीढ़ियों पर अपने कल्याण के लिए आरोहण किया, वहीं दूसरी ओर सती द्वारा अपने आराध्यदेव की अर्धांगनी सीता का वेश रखने के कारण शिवजी ने सती से अब अपनी स्त्री के रूप में प्रेम करना भक्ति निष्ठा के दृष्टिकोण से पाप समझा जिसकी पुष्टि निम्न पंक्तियों से होती है-
सती कीन्ह सीता कर बेशा।
सिव उर भयउ बिषाद बिसेशा।।
जौं अब करउँ सती सन प्रीती।
मिटइ भगति पथ होइ अनीती।।
परंतु परम पुनीत न जाइ तजि
किएं प्रेम बड़ पाप।।
शिवजी के जिस हृदय में श्रीराम को देखकर आनन्द की धारा प्रवाहित हो चली थी, उसी में अब ‘अधिक संताप’ आ गया। इसका कारण वही ममत्व था जिसे मिटाने के लिये भगवान् ने यह परिस्थिति पैदा कर दी।
ऐसी समस्या उपस्थित होने पर भक्त सिवाय भगवान की शरण में जाने के और कोई दूसरा उपाय नहीं करता और हम देखते हैं कि शिवजी ने भी सिर्फ श्रीराम का ध्यान किया जिससे उनके भीतर सती त्याग का आदेश और उसके लिए पर्याप्त मनोबल मिला जैसा कि निम्नलिखित चौपाई से स्पष्ट है-
तब संकर प्रभुपद सिर नावा।
सुमिरत राम हृदयँ अस आवा।।
एहिं तन सतिहि भेट मोहि नाहीं।
सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं।।
ऊपर कहा जा चुका है कि भक्ति मार्ग के साधक को अपनी ओर से कोई प्रयास या परिश्रम नहीं करना पड़ता। इस मार्ग में तो भगवान् का सुमिरन, ध्यान मात्र ही पर्याप्त है। अत: शिवजी ने अपनी समस्या का हल प्राप्त करने के लिए भगवान् का चिंतन- सुमिरन किया जिसमें उन्हें आदेश हुआ कि वे उस शरीर से सती के त्याग का संकल्प करें और त्याग की पूरी सामथ्र्य भी उन्हें मिली। प्रकरण लम्बा है मगर संक्षेपत: सती ने अपने पिता के यज्ञ में अपने शरीर का परित्याग किया तो शिवजी के भीतर वैराग्य जाग्रत हो गया-
जब तें सती जाइ तनु त्यागा।
तब तें सिव मन भयेउ बिरागा।।
वैराग्य के उदय होते ही भक्त सतत् नाम-जप एवं सत्संग का सहारा लेता है जो भक्तिमार्ग में अनिवार्य है-
जपहिं सदा रघुनायक नामा।
जहँ तहँ सुनहिं राम गुन ग्रामा।।
इससे हृदय में आनन्द और बुद्धि में ज्ञान का संचार होता है और मोह का आत्यान्तिक नाश हो जाता है। इसके पश्चात भक्त इस प्राप्त ज्ञान व आनन्द को भगवान के नाते जिज्ञासुओं एवं भक्तों को उनकी योग्यता एवं आवश्यकतानुसार वितरण करने के लिए भ्रमण करता है। इस वितरण में अधिकार-भेद के आधार पर विचार या ज्ञान मार्गावलम्बियों को ज्ञान का उपदेश तथा भक्ति या विश्वास मार्ग वाले साधकों को भगवान का गुणानुवाद सुनाया जाता है। इसके कालान्तर में भक्ति निष्ठा प्रगाढ़ होती है और श्रीराम का सम्यक दर्शन प्राप्त होता है जैसा कि निम्न पंक्तियों से सिद्ध है।
प्रेमु संकर कर देखा।
अबिचल हृदयँ भगति कै रेखा।।
प्रगटे रामु कृतग्य कृपाला।
रूप सील निधि तेज बिसाला।।
इस दर्शन के पश्चात भक्ति-मार्गावलम्बियों के हृदय में किसी प्रकार की कामना नहीं रहती। इस स्थिति के प्राप्त कर लेने पर भक्त भगवान् का निमित्त बन जाता है और उसकी (ईश्वर की आज्ञा से ही सब कार्य करने लगता है। इसका प्रमाण मानस के उस प्रकरण में मिलता है जहां श्रीराम शिवजी के समक्ष पार्वती से विवाह करने का प्रस्ताव रखा है-
अब बिनती मम सुनहु सिव जौं मो पर निज नेहु।
जाइ बिबाह सैलजहि यह मोहि मार्गे देहु।।
जिसे शिवजी ने यह कहकर स्वीकार किया कि ऐसा करना उचित तो नहीं है फिर भी आपकी आज्ञा टाली नहीं जा सकती- इस प्रकार हम देखते हैं कि जहाँ विचार, श्रद्धा या ज्ञान के मार्ग में इन्द्रियजन्य ज्ञान, बुद्धिजन्य ज्ञान और आत्मज्ञान के द्वारा साधक को सत्य का अनुभव होता है वहीं भक्ति या विश्वास के मार्ग में साधक के क्रमिक विकास की सीढ़ियां हैं।
(पूज्य ‘योगीजी’ के प्रवचनों से संकलित)