जेल की तन्हाइयों में आजम का परिवार
रामपुर की जेल में बंद आजम और अब्दुल्ला के चलते शहर की कानून व्यवस्था की स्थिति खराब न हो, इसलिए प्रशासन ने आजम खान को सीतापुर और अब्दुल्ला को हरदोई जेल में शिफ्ट कर दिया। बाकी की सजा यह दोनों इन्हीं जेलों में काटेंगे। इस तरह से आजम के परिवार के सियासत का ‘सूर्यास्त’ हो गया। इतना सब हो गया है, लेकिन आजम के समर्थन में कही से कोई आवाज नहीं उठी।
–संजय सक्सेना
समाजवादी पार्टी के दिग्गज नेता, मुलायम और अखिलेश सरकार में कैबिनेट मंत्री से लेकर दस बार विधायक और सांसद तक रह चुके आजम खान साहब अपने बेटे और पत्नी के साथ फिर जेल की सलाखों के पीछे पहुंच गये हैं। इसमें कहीं कोई सियासत वाली बात नहीं है। इस परिवार के मुखिया आजम खान ने अपनी हुकूमत के दौरान जैसा बोया था, वैसा आज काट रहे हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कद्दावर नेता और रामपुर के नबावी खानदान के सामने हमेशा चुनौती बनकर खड़े रहने वाले आजम खान ने सत्ता के नशे में रामपुर से लेकर लखनऊ तक ‘गुस्ताखियां’ तो खूब की थीं, जिसकी चर्चा भी खूब होती थी, लेकिन कभी उनका बाल बांका नहीं हुआ क्योंकि समाजवादी पार्टी के मुखिया रहे मुलायम सिंह हों या अब अखिलेश यादव, दोनों को आजम खान मुलसमानों के रहनुमा लगते थे। आजम, पश्चिमी यूपी में समाजवादी पार्टी की सियासी रणनीति का बड़ा चेहरा थे। यहां होने वाले किसी भी चुनाव के समय किस नेता को टिकट देना है और किसे नहीं, यह सपा का केन्द्रीय नेतृत्व नहीं आजम खान तय करते थे।
समाजवादी पार्टी में आजम का कभी ‘सूर्यास्त’ नहीं होता था। उनकी कही बात को नेताजी मुलायम सिंह यादव भी ‘पास’ कर दिया करते थे, लेकिन समय कभी एक सा नहीं रहता है। वर्ष 2014 से उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के कमजोर होने के साथ ही आजम के खिलाफ उन लोगों ने मोर्चा खोल दिया जो आजम के ‘सताये’ हुए थे। इसमें हर वर्ग के लोग शामिल थे। आजम खान ने रामपुर में जौहर विश्वविद्यालय बनाने के नाम पर जिन गरीब मुलसमानों की जमीन हड़पी थी, वह सामने आकर मुकदमे लिखाने लगे तो उनके सियासी विरोधी भी आजम को घुटनों के बल देखने को उतावले हो गये और ऐसे में आजम के खिलाफ हथियार बना उनके बेटे अब्दुल्ला के दो अलग-अलग तिथियों के बनवाये गये जन्म प्रमाण पत्र, जिसके सहारे आजम खान ने अपने नाबालिग बेटे को बालिग दिखाकर विधायक का चुनाव भी जिता दिया था, लेकिन यह बात अब्दुल्ला से हारने वाले भाजपा नेता आकाश सक्सेना को रास नहीं आई और उन्होंने अब्दुल्ला के दो जन्म प्रमाण पत्र के मामले को कोर्ट में चुनौती दे दी। पहले तो इसे किसी ने गंभीरता से नहीं लिया, लेकिन अंतत: रामपुर की एमपी/एमएएलए कोर्ट ने आजम खान, उनके बेटे अब्दुल्ला और पत्नी को सात साल की सजा सुना दी। तीनों को गिरफ्तार करके रामपुर की उस जेल में डाल दिया गया जहां आजम की कभी तूती बोला करती थी। बात यहीं तक नहीं रुकी, रामपुर की जेल में बंद आजम और अब्दुल्ला के चलते शहर की कानून व्यवस्था की स्थिति खराब न हो, इसलिए प्रशासन ने आजम खान को सीतापुर और और अब्दुल्ला को हरदोई जेल में शिफ्ट कर दिया। बाकी की सजा यह दोनों इन्हीं जेलों में काटेंगे। इस तरह से आजम के परिवार का सियासत का ‘सूर्यास्त’ हो गया। इतना सब हो गया है, लेकिन आजम के समर्थन में कही से कोई आवाज नहीं उठी। सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने भी आजम के प्रति संवेदना की औपारिकता निभा कर पूरे मामले से पल्ला झाड़ लिया, क्योंकि शायद अब आजम समाजवादी पार्टी के लिए मुस्लिम वोट बटोरने का माध्यम ही नहीं रह गये हैं।
खैर, एक समय जिस समाजवादी नेता की भैंस को तलाशने के लिए सैकड़ों पुलिस वाले जमीन-आसमान एक कर देते थे जिसके गुस्से से नेताजी मुलायम सिंह यादव तक परेशान हो जाते थे, जो शख्स अपने गृह जनपद रामपुर की चुनावी सभाओं में उनकी पार्टी की सरकार बनने पर तनखइयों (तनख्वाह पाने वाले आईएएस/ पीसीएस अफरस) से अपने जूते साफ कराने का सपना पाला करता था। सेना में विद्वेष पैदा करना, महिलाओं के अंडर गारमेंट का कलर बता देने की हिमाकत करना, हिन्दुओं को गाली देना, गरीबों की जमीन हड़प लेना आदि कृत्य करना अपना जन्मसिद्व अधिकार समझता था, जिसने ताउम्र दोस्त कम दुश्मन ज्यादा बनाये आज वह अपने कर्मों की वजह से एक बार फिर जेल की सलाखों के पीछे पहुंच गया है। बात समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव आजम खान की गुस्ताखियों की हो रही है, वैसे तो सत्ता के नशें में आजम ने कई बार कानून को ठेंगा दिखाया होगा, लेकिन उसमें से एक गुस्ताखी ने न केवल उनका सियासी करियर तबाह दिया बल्कि जेल की सलाखों के पीछे भी पहुंचा दिया। आजम को तो जेल जाना ही पड़ा, उनकी बीवी तजीन फात्मा और बेटा अब्दुल्ला भी उनके साथ ‘सरकारी हवेली’ में पहुंच गया।
दशकों पूर्व वकालत छोड़कर राजनीति में उतरे आजम खान को अपनी ताकत का इतना गुमान था कि वह बेटे को कम उम्र में चुनाव लड़ा बैठे, जिसके सबूत उनके विरोधियों को मिल गए और फिर आजम खान कोर्ट-कचहरी में फंसते चले गए। उन पर और उनसे परिवार पर एक के बाद एक मुकदमे दर्ज होते गए। इसी क्रम में बेटे अब्दुल्ला के दो जन्म प्रमाण पत्र मामले में आजम खां के साथ ही उनकी पत्नी और बेटे को भी रामपुर के एमपी/एमएलए कोर्ट से सात साल की सजा मिलने के बाद जेल भेज दिया गया। आज भले ही समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव अपनी पार्टी के धोखाधड़ी करने वाले नेता आजम खान और उनके परिवार को मिली सजा में मुस्लिम एंगिल तलाश रहे हों, लेकिन सच्चाई यही है कि आजम के परिवार को उनके कर्मों की सजा मिली है। यह सजा इसलिए नहीं मिली क्योंकि वह मुसलमान थे, बल्कि अदालत में साक्ष्यों के आधार पर तीनों गुनाहागार साबित हुए हैं। अखिलेश यादव को यदि लगता है कि कभी आतंकवादियों तो अब गुनहगार आजम खान के बचाव में खड़े होकर वह मुस्लिम वोटों के रहनुमा बने रहेंगे तो यह मुसलमानों के सोचने का विषय है कि क्या वह ऐसे नेता अखिलेश यादव के साथ खड़ा रहना पसंद करेंगे जो आतंकवादियों/ गुनहगरों को मुलसमानों के साथ जोड़कर उनके समाज की छवि को लम्बे समय से दागदार और धूमिल करते रहे हैं। कोर्ट ने आजम पर सख्त टिप्पणी करते हुए कहा ‘जब लोकसेवक ही जनता से धोखाधड़ी कर गलत तथ्यों के आधार पर अपना प्रतिनिधित्व दर्शाता है तो ऐसे में लोकसेवक से जनता के हित की अपेक्षा करना संभव नहीं है।’
बहरहाल, कुल मिलाकर लगता है कि रामपुर की सियासत में आजम का सितारा डूब चुका है। अब उनको रामपुर से चुनाव जीतने में लाले पड़ जाते हैं, किसी और को चुनाव जिताने की बात तो दूर की कौड़ी हो गई है। अतीत के पन्नों को पलटा जाये तो यह साफ हो जाता है कि एक समय आजम खान समाजवादी पार्टी के फायर ब्रांड नेता और मुस्लिम चेहरा हुआ करते थे। अपने करीब 40 वर्षों के सियासी कैरियर के दौरान आजम रामपुर शहर से 10 बार विधायक रहे। साल 2019 में लोकसभा सदस्य भी बने। इससे पहले वह राज्यसभा सदस्य और प्रदेश के नेता प्रतिपक्ष भी रहे। प्रदेश में जब भी सपा की सरकार बनी, तब वह कई-कई विभागों के मंत्री रहे। सपा सरकार में उनकी तूती बोलती थी। पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलामय सिंह यादव के बाद पश्चात नंबर दो पर आजम खान का नाम आता था, यहां तक की आजम के रुतबे के चलते शिवपाल यादव तक पार्टी में तीसरे नंबर पर रहते थे, आजम के आगे पीछे अफसरों की लाइन लगी रहती थी। दर्जनों पुलिस वाले उनकी सुरक्षा में मुस्तैद रहते थे। वह जिधर से गुजरते थे, सड़कें अतिक्रमण मुक्त होकर चमचमाने लगती थी। बड़े-बड़े अधिकारियों की उनके सामने बोलने की हिम्मत नहीं थी। अफसरों पर गुर्राना और उन्हें जनता के बीच जलील करना आजम की आदत में शामिल था। साल 2005 में नगर विकास मंत्री रहते तत्कालीन नगर मजिस्ट्रेट नवाब अली खां को इतनी बुरी तरह हड़काया कि वह बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े थे। आजम सबसे अधिक भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ही नहीं, उनके कार्यकर्ताओं और वोटरों तक से अदावत रखते थे। बसपा सुप्रीमो मायावती के लिए भी आजम उलटा-सीधा बोलते समय मर्यादा की सीमा लांघ जाया करते थे। साम्प्रदायिकता उनके खून में रची-बसी थी।
मुजफ्फरनगर दंगों के समय सरकार में रहते आजम ने खुलकर एक मुस्लिम पक्ष के दंगाइयों का साथ दिया और पुलिस को भी ऐसा करने के लिए मजबूर कर दिया। अगर आजम खान के खिलाफ स्टिंग नहीं होता तो कभी सच्चाई सामने ही नहीं आती। स्टिंग से यह साफ हो गया था कि मुजफ्फरनगर के दंगे बिल्कुल सरकार की स्क्रिप्ट के मुताबिक चल रहे थे। बीजेपी के विधायक पहले से ही कटघरे में थे और कुछ ही दिन की बात थी कि वे सलाखों के पीछे भी पहुंच जाते, लेकिन, कहानी में तब अप्रत्याशित मोड़ आ गया जब एक टीवी चैनल के गुप्त ऑपरेशन में पुलिस ने दावा किया कि दंगाइयों पर धीमी गति से कार्रवाई करने का राजनीतिक दबाव था। स्टिंग में पुलिस वाले दावा करते दिखे कि मुजफ्फरनगर के प्रभारी मंत्री आजम खान दंगों के दौरान पुलिस को निर्देश दे रहे थे। इसके पश्चात निष्पक्ष जांच के सरकारी दावों पर और संदेह जताते हुए स्टिंग में शामिल दो पुलिसकर्मियों का तबादला कर दिया गया था।
आजम खान उस सियासी ताकत के गुमान में थे, जो कभी स्थायी नहीं रहा है। सत्ता के नशे में चूर आजम मनमाने फैसले लेते रहे। धोखाधड़ी करके बेटे को भी उन्होंने कम उम्र में ही चुनाव लड़ा दिया। उनके छोटे बेटे अब्दुल्ला आजम साल 2017 में पहली बार स्वार टांडा से सपा के टिकट पर विधानसभा चुनाव लड़े। तब उनके मुकाबले चुनाव लड़ रहे पूर्व मंत्री नवाब काजिम अली खां उर्फ नवेद मियां ने नामांकन के दौरान ही आपत्ति दाखिल की थी कि अब्दुल्ला की उम्र चुनाव लड़ने की योग्य नहीं है, इसलिए उनका पर्चा खारिज कर दिया जाए, लेकिन उनके पास उम्र कम होने का कोई सबूत नहीं था। इस करण अब्दुल्ला का पर्चा खारिज नहीं हो सका। चुनाव के बाद नवेद मियां ने हाईकोर्ट में याचिका दायर की। उन्होंने अब्दुल्ला की हाईस्कूल की मार्कशीट की कापी भी ले ली, जिसमें उनकी उम्र एक जनवरी 1993 दर्ज थी। इसके हिसाब से साल 2017 में चुनाव के समय अब्दुल्ला की उम्र 25 साल पूरी नहीं थी, बल्कि 11 महीने कम थी। फिर भी वह चुनाव लड़ गए। उन्होंने 30 सितंबर 1990 को लखनऊ के अस्पताल में पैदा होना दर्शाते हुए दूसरा जन्म प्रमाणपत्र बनवा लिया। इस तरह उन्होंने एक जन्म प्रमाणपत्र रामपुर नगर पालिका से बनवाया तो दूसरा लखनऊ से। तमाम शैक्षिक प्रमाण पत्रों में अब्दुल्ला की जन्मतिथि एक जनवरी 1993 लिखी गई थी। हाईकोर्ट ने कम उम्र में चुनाव लड़ने के आरोप में उनकी विधायकी भी रद्द कर दी। इसे लेकर वह सुप्रीम कोर्ट गए, लेकिन वहां से भी राहत नहीं मिल सकी। रामपुर की सियासत के पुराने पन्नों को पलटा जाये तो पता चलता है कि आजम खान के दुश्मनों की लिस्ट में एक नाम रामपुर के बीजेपी नेता शिव बहादुर सक्सेना उर्फ शिब्बू का भी था, जिनका आजम से छत्तीस का आंकड़ा रहता था, अब शिबू इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनका बेटा भी आजम की नाक में दम किये हुए है।
आजम खां के धुरविरोधी शहर विधायक आकाश सक्सेना उर्फ हनी ने अब्दुल्ला के दो जन्म प्रमाण पत्र को लेकर आजम खान, उनकी पत्नी डा.तजीन फात्मा और बेटे अब्दुल्ला के खिलाफ मुकदमा दर्ज करा दिया। इसी मामले में कोर्ट ने तीनों को सात साल की सजा सुनाई। दरअसल अब्दुल्ला का जन्म प्रमाण पत्र बनवाने के लिए आजम खान और उनकी पत्नी ने ही शपथ पत्र दिया था। बीजेपी नेता और विधायक आकाश सक्सेना ने दो जन्म प्रमाण पत्र के अलावा अब्दुल्ला के दो पासपोर्ट और दो पैन कार्ड के मामले में भी रिपोर्ट दर्ज कराई। ये दोनों मुकदमे भी कोर्ट में विचाराधीन हैं। अब्दुल्ला ने अपने पैन कार्ड और पासपोर्ट में पहले एक जनवरी 1993 जन्म तिथि दर्ज कराई थी, लेकिन बाद में संशोधित कराकर दूसरा पैन कार्ड और पासपोर्ट बनवाया, जिसमें जन्मतिथि 30 सितंबर 1990 दर्ज कराई। आजम के परिवार के खिलाफ मुकदमों की शुरुआत यहीं से हुई। लब्बोलुआब यह है कि आजम खान, बीवी और बेटे के साथ जेल पहुंच गये हैं और अब उन्हें ऊपरी अदालतों से राहत की उम्मीद है, लेकिन जिस तरह के पुख्ता सबूत आजम परिवार के खिलाफ कोर्ट में आये हैं, उसके आधार पर लगता नहीं है कि आजम को कोई बड़ी राहत मिल पायेगी।