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चुनावी बॉण्ड नहीं बन सका मुद्दा

देवव्रत

लोकसभा चुनाव 2024 की घोषणा के कुछ दिनों पहले ही सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र की भाजपा नेतृत्व वाली एनडीए सरकार द्वारा लाये गए चुनावी बॉण्ड को असंवैधानिक करार देते हुए समाप्त करने का आदेश सुनाया था। न्यायालय के इस फैसले के बाद विपक्षी दलों की बांछें खिल गयी थीं उन्हें लग रहा था कि यह विषय चुनावों में एक बड़ा मुद्दा बनेगा लेकिन अब जबकि चुनावी सरगर्मियां तेज हो गयीं हैं, तब चुनावी बॉण्ड की चर्चा दिन प्रति दिन कम होती जा रही है। यानि दूसरे शब्दों में यह कहें कि अब तक यह चुनावी मुद्दा नहीं बन पाया है। विपक्ष इसी मुद्दे को उछाल कर केन्द्र सरकार और भाजपा को भ्रष्टाचारी साबित करना चाह रहा था। फिलहाल यह मुद्दा राजनीतिक दलों के आरोप-प्रत्यारोप तक सिमट कर रह गया है। दरअसल, चुनावी बॉन्ड के जरिए 1300 संस्थाओं ने 12,000 करोड़ रुपये से अधिक के बॉन्ड खरीदे थे। इन बॉन्डों को 23 राजनीतिक दलों को दिया गया।

चुनावी बॉण्ड को लेकर विपक्ष के आरोपों पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी अब अपनी चुप्पी तोड़ दी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनावी बॉन्ड योजना के खारिज होने को अपनी सरकार के लिए झटका मानने से इनकार कर दिया। तमिलनाडु के एक टीवी चैनल को दिए एक साक्षात्कार में पीएम मोदी ने पहली बार चुनावी बॉन्ड योजना को लेकर अपनी बात रखी। इस दौरान यह पूछे जाने पर कि क्या इस योजना के कोर्ट से खारिज होने को सरकार के लिए झटका माना जाए, पीएम ने कहा, 2014 से पहले चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों को मिले पैसे का कोई हिसाब नहीं मिलता था। मुझे बताइये ऐसा क्या हुआ है जिससे यह माना जाए कि यह मेरी सरकार के लिए झटका है। मैं पक्का मानता हूं कि जो लोग इसे लेकर आज नाच रहे हैं वो पछताने वाले हैं। पीएम ने कहा, मैं पूछना चाहता हूं उन सभी विद्वानों से कि 2014 से पहले जितने भी चुनाव हुए, उनमें पैसा तो खर्च हुआ ही होगा, तो कौन सी ऐसी एजेंसी है जो बता पाए कि पैसा कहां से आया, कहां गया? मोदी ने चुनावी बॉन्ड बनाया, इसके कारण आज आप ढूंढ पा रहे हो कि बॉन्ड किसने लिया, किसे दिया। इसके कारण पैसे का ट्रेल पता चल रहा है। कोई व्यवस्था पूर्ण नहीं होती, कमियां हो सकती हैं लेकिन उन्हें सुधारा जा सकता है।

वहीं, दूसरी ओर बड़े कॉरपोरेट घरानों का कहना है कि चंदा देने की परंपरा कोई नई थोड़े ही है। मेरे परदादा भी चंदा देते थे। पहले कैश देते थे, बॉन्ड आने के बाद बैंक के जरिये दिए गए। इसमें गलत क्या किया? हां, यह जरूर है कि घाटे वाली कंपनियां कैसे भारी भरकम चंदा दे रही हैं। संदिग्ध लोगों के चंदों की जांच होनी चाहिए। चुनावी बॉन्ड से पहले राजनीतिक पार्टियों को चेक से चंदा दिया जाता था। चंदे में दी गई राशि की पूरी जानकारी उनके सालाना खाते में होती थी। राजनीतिक पार्टियां चुनाव आयोग को चंदा देने वाले का नाम और मिली राशि की जानकारी देती थीं। बड़े चंदे इस रास्ते से नहीं मिलते थे, क्योंकि इसकी पूरी जानकारी आयोग को देनी होती थी। 40 साल पहले सभी राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता रसीद लेकर घर-घर चंदा लेते थे। वर्ष 2004 से वर्ष 2014 के बीच राजनीतिक दलों को कुल मिले चंदे में से करीब 70 फीसदी का स्रोत अज्ञात था।

दरअसल, चुनावी बॉण्ड में यह व्यवस्था थी कि राजनीतिक दल जिसने पिछली लोकसभा या विधानसभा चुनाव में कम से कम एक फीसदी वोट हासिल किया हो, वह इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये चंदा ले सकता है। इस प्रावधान के जरिये उन चंदों पर रोक लगाने की मंशा है, जो उन दलों को दिए जाते हैं जो चुनाव में हिस्सा नहीं लेते। इलेक्टोरल बॉन्ड किसी भी वित्त वर्ष की एक तिमाही में केवल 10 दिनों के लिए जारी किए जाते हैं। लोकसभा चुनाव के साल में 30 दिन का अतिरिक्त समय दिया जाता है। एसबीआई की कुछ र्चुंनदा शाखाओं से जारी होने वाले चुनावी बॉन्ड की वैधता, जारी करने के 15 दिनों तक रहती है। चंदा देने वाले को इन्हीं 15 दिनों के दौरान अपने पसंदीदा राजनीतिक दल के खाते में बॉन्ड को कैश कराना होता है। ये बॉन्ड कम से कम एक हजार और अधिकतम एक करोड़ रुपये के हो सकते हैं। चुनावी बॉन्ड के खरीदार को सभी केवाईसी नियमों को पूरा करना होता है, ताकि अवैध खाते से इन बॉन्डों की खरीद न हो सके। वास्तव में चुनावी बॉन्ड एक तरह का वचन पत्र है। इसकी खरीदारी भारतीय स्टेट बैंक की र्चुंनदा शाखाओं पर किसी भी भारतीय नागरिक या कंपनी की ओर से की जा सकती है। यह बॉन्ड नागरिक या कॉरपोरेट कंपनियों की ओर से अपनी पसंद के किसी भी राजनीतिक दल को दान करने जरिया है।

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