यूपी में पेंडुलम की तरह झूलते ओबीसी वोटर!
–डी.एन. वर्मा
भारत दुनिया का सबसे बड़ी आबादी वाला लोकतांत्रिक देश है। यहां 543 सांसदों का चुनाव करने के लिए लोकसभा चुनाव में करीब 97 करोड़ मतदाता हिस्सा लेंगे। अपने देश में होने वाले चुनाव पूरी दुनिया के लिए किसी अजूबे से कम नहीं होते हैं। पूरी दुनिया की नजर हिन्दुस्तान के चुनावों पर इसलिए भी लगी रहती है क्योंकि यहां चुनाव विकास के नाम से अधिक जाति, धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर होते हैं। कोई पार्टी मुस्लिमों को लुभाने में लगी रहती है तो कोई दल दलितों को अपने पाले में खींचने में लगा रहता है। लेकिन इन सबके बीच किसी भी चुनाव में जनसंख्या के लिहाज से सबसे ज्यादा दबदबा अन्य पिछड़ा वर्ग का रहता है, जिसकी संख्या करीब 50 प्रतिशत है, लेकिन ओबीसी हमेशा से वोट बैंक नहीं रहा था। भारत की सियासत में ओबीसी की राजनीति में बड़ा उलटफेर तब आया, जब 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बने और उन्होंने मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू किया। दिसंबर 1980 में मंडल आयोग ने अपनी रिपोर्ट सौंपी थी, जिसमें ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण देने की सिफारिश की गई थी। सिफारिशें लागू होने के बाद आरक्षण विरोधी उग्र प्रदर्शन हुए, आगज़नी और कई लोगों की मौत भी हुई। इसी के बाद तमाम सियासतदारों के लिए ओबीसी एक वोट बैंक बन गया। बाद में ओबीसी की सियासत में कई नेताओं ने ही नहीं जातियों के प्रमुखों ने भी अपने हाथ सेंके। आज जाट समाज ओबीसी आरक्षण मांग रहा है, लेकिन एक वक्त था जब यही समाज मंडल कमिशन का खुलकर विरोध कर रहा था। वीपी सिंह अक्सर कहा करते थे कि पिछड़ों को सहूलियत नहीं सत्ता में शिरकत चाहिए। अप्रैल 2018 तक केन्द्रीय ओबीसी सूची में कुल 2,479 जातियां शामिल थीं। ये जातियां अब तक अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग पार्टियों की समर्थक रही हैं।
खैर, मंडल का फायदा वीपी सिंह को तो नहीं हुआ लेकिन बाद में ओबीसी वोट बैंक के सहारे तमाम दलों के नेताओं ने अपने-अपने राज्यों में राज किया। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव, बिहार में लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाने से लेकर नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने तक में ओबीसी की अहम भूमिका रही हैं। देश से अलग उत्तर प्रदेश की बात की जाये तो यहां भीं अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) हमेशा बड़ा सियासी वोट बैंक रहा है। ओबीसी में जो जातियां आती हैं, उनके बारे में कहा जाता है कि यूपी में भी इनकी आबादी करीब पचास फीसदी है। ओबीसी वोटर समय-समय पर अपना सियासी स्वभाव बदलता रहता है। यह वर्ग कांग्रेस से लेकर समाजवादी पार्टी तक का मजबूत वोट बैंक रहा है। आज के सियासी माहौल की बात की जाये तो पिछले करीब एक दशक से ओबीसी समाज की एक-दो जातियों को छोड़कर इस वर्ग की अधिकांश जातियों के वोटरों का झुकाव भारतीय जनता पार्टी की तरफ दिखाई दे रहा है। इसी के चलते यूपी में बीजेपी लगातार मजबूती हासिल कर रही है। यह बात समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के नेताओं को बिल्कुल भी रास नहीं आ रही है। इसीलिए चाहे कांग्रेस के नेता राहुल गांधी हों या फिर समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव लगातार लगातार ओबीसी वोटरों पर डोरे डालने में लगे हैं। इन दोनों दलों द्वारा जातीय जनगणना की मांग भी इसीलिए की जा रही है, ताकि वह इन वोटरों को अपनी तरफ आकर्षित कर सकें। इसी तरह से राहुल गांधी बार-बार यह बताने से नहीं चूकते हैं कि प्रशासनिक स्तर पर ओबीसी अधिकारियों की नुमांइदगी कितनी कम है। राहुल गांधी तो हर जगह जातीय विद्वेष फैलाने में लगे हैं।
बहरहाल, आज जिस लाइन पर राहुल गांधी चल रहे हैं, उसे उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव ने लगभग चार दशक पहले ही भांप लिया था। इसी लाइन पर बढ़ते हुए मुलायम ने सियासत के फार्मूले को पलट दिया था। आज भी उनकी पार्टी पुरानी लीक पर चलते हुए प्रासंगिक बनी हुई हैं, जिसकी काट के लिए ही भाजपा ने बिहार के पूर्व सीएम कर्पूरी ठाकुर को भारतरत्न व हरियाणा में ओबीसी के नायब सिंह सैनी को सीएम बना बताया है। यादवों बिरादरी को खुश करने के लिए मुलायम सिंह यादव को मरणोपरांत पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। जहां तक मुलायम सिंह यादव को सम्मान देने का सवाल है, तो बीजेपी एक तीर से दो निशाने साधना चाहती है। एक ओर वह बचे-खुचे अन्य पिछड़े वर्गों को अपनी ओर मिलाने में लगी है, तो दूसरी ओर यूपी में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी को एक ऐसी स्थिति में डाल देना चाहती है कि वह बीजेपी सरकार के कार्यों की प्रशंसा करने पर विवश हो जाए। हालांकि, इससे पहले भी बीजेपी कांग्रेस पार्टी के बड़े नेताओं का सम्मान करके और कांग्रेस पार्टी से जुड़े महापुरुषों का सम्मान करके उन पर अधिकार जताने की कोशिश कर चुकी है।
मुलायम सिंह को सम्मान देकर भाजपा ने यादवों को अपने पाले में लाने की कोशिश की है। मुलायम सिंह यादव लंबे समय तक पिछड़ी जातियों के सर्वमान्य नेता रहे थे। अखिलेश यादव की वह स्थिति नहीं है। बीजेपी ने इससे बड़ा संदेश देने का काम किया है। सबसे बड़ी बात यह भी है कि कैसे अखिलेश यादव को धर्म संकट में डाला जाए। चुनाव से पहले बीजेपी अक्सर ऐसा करती है कि संदेश भी चला जाए और भ्रम भी बना रहे। इस एक कदम से उसके दोनों मकसद सिद्ध हो गए। बात यहीं तक सीमित नहीं है, इससे आगे बढ़ते हुए बीजेपी मध्य प्रदेश में डा.मोहन यादव को सीएम बनाकर उत्तर प्रदेश के ओबीसी वर्ग को लुभाने के प्रयास में है। प्रदेश में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) एक बड़ा मतदाता वर्ग है। सपा जैसी समाजवादी पार्टियों के साथ आगे बढ़ रही कांग्रेस लगभग दो वर्ष से सामाजिक न्याय के मुद्दे को उछाल कर केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा को घेरने का प्रयास कर रही है। विपक्ष के संयुक्त अभियान का अघोषित नेतृत्व कर रहे राहुल गांधी देशभर में घूम-घूमकर आबादी के अनुरूप सत्ता में सबकी हिस्सेदारी का नारा लगा रहे हैं तो इसकी वजह है कि ओबीसी के बड़े वोटबैंक पर विपक्ष की नजर है।
उधर, विपक्ष की ओबीसी काट के लिए चुनाव की घोषणा से कुछ दिन पहले बीजेपी ने हरियाणा में मनोहर लाल के बदले ओबीसी समुदाय के नायब सिंह सैनी को सरकार की कमान देकर साफ संकेत दे दिया है कि उसके तरकश में तीरों की कमी नहीं है। मध्य प्रदेश के नए मुख्यमंत्री डा. मोहन यादव पहले से ही बिहार व उत्तर प्रदेश के ओबीसी वर्ग को लीक बदलने को प्रोत्साहित कर रहे है। मगर राजनैतिक पंडितों को लगता है कि कांग्रेस ने देर से इस लीक पर कदम रखा है। आजादी के वक्त ही यदि वह राजनीतिक करवट का अंदाजा लगा लेती तो आज शायद उसका ऐसा हाल नहीं होता। गर्दिश में जी रही अन्य जातियों की पहचान के लिए काका कालेलकर की अध्यक्षता में आयोग बनाया गया था। आयोग ने 1955 में रिपोर्ट भी सौंप दी थी, लेकिन इसे तहखाने में डालकर छोड़ दिया गया। कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व चाहता तो सिफारिशों को लागू कर वोट में तब्दील कर सकता था। दूसरी पहल, 1977 में कांग्रेस के विरोध में बनी जनता सरकार ने बीपी मंडल की अध्यक्षता में आयोग बनाकर की। आयोग ने 1980 में रिपोर्ट सौंपी, किंतु कांग्रेस की इंदिरा गांधी एवं राजीव गांधी की सरकारों ने उसे भी फाइलों में दबा दिया। तीसरी पहल बनी वीपी सिंह की सरकार ने 1990 में मंडल आयोग की उन सिफारिशों को लागू कर की, जो दशकभर से किसी उद्धारक का इंतजार कर रही थी। कांग्रेस फिर चूक गई। यहां तक कि प्रतिपक्ष के नेता के रूप में राजीव गांधी ने सदन में इसका विरोध किया।
बहरहाल, केन्द्र में नरेन्द्र मोदी को शीर्ष तक पहुंचाने में ओबीसी की बड़ी भूमिका है। राज्यों में मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद एवं नीतीश कुमार की राजनीति भी ओबीसी की फैक्ट्री से ही निकली। आज भी कई राज्यों में राजनीतिक दलों का भविष्य ओबीसी वोटरों के मूड पर निर्भर करता है। यह तब है जबकि चुनाव आयोग के पास ऐसा कोई आंकड़ा नहीं है, जो बता सके कि किस वर्ग ने किस दल को वोट किया, किंतु लोकनीति सीएसडीएस का सर्वे बताता है कि 2009 से कांग्रेस का ओबीसी वोट घट रहा एवं भाजपा का बढ़ रहा। 2009 में भाजपा को सिर्फ 22 प्रतिशत ओबीसी वोट मिला था, जो 2014 में बढ़कर 41 प्रतिशत और 2019 में 48 प्रतिशत हो गया। कुल मिलाकर तमाम चुनावों में यूपी के ओबीसी वोटर पेंडुलम की तरह इधर-उधर झूलते रहे हैं,लेकिन जिसकी तरफ भी यह झुके, उसका बेड़ा पार हो गया।