दस्तक-विशेष

साधक को पार करनी होती हैं सतोगुणी,रजोगुणी व तमोगुणी बाधाएं

हनुमान जी ने सात्विक, तामसी और रजोगुणी तीनों बाधाओं पर विजय प्राप्त कर अध्यात्म पथ के पथिकों के लिए मार्गदर्शन प्रस्तुत किया है। पिछले अंक के लेख में सात्विक बाधा पर विस्तार से चर्चा हुई। उससे आगे अब इस लेख में तामसी और रजोगुणी बाधाओं पर प्रकाश डाला जा रहा है। सुरसा रूपी सात्विक बाधा को पार कर हनुमान जी जब आगे बढ़े तो दूसरी बाधा के रूप में सिंघिनी उनके सामने आई जो तमोगुण का प्रतीक है। साधना में विकास के लिए सतत् प्रयत्नशील साधक के समक्ष यह बाधा आती ही है। इसकी विशेषता है-

‘निसिचर एक सिन्धु महुं रहई, करि माया नभु के खग गई।
जीव जन्तु जे गगन उड़ाहीं, जल बिलोकि तिन्ह कै परछाहीं।
गहइ छांह सक सो न उड़ाई, एहि बिधि सदा गगनचर खाई।’

यह सिंघिनी आकाश में उड़ने वाले जीव-जन्तुओं की परछाईं जल में देखकर पकड़ लेती है, जिसका परिणाम यह होता है कि वह फिर उड़ नहीं सकता और उसे वह खींचकर खा जाती है अर्थात जो लोग अपने आत्मिक विकास में तत्पर हैंं, यह तमोगुणी बाधा उसकी परछाईं पकड़ लेती है। वस्तु और उसकी परछाईं एक-दूसरे से अलग नहीं किए जा सकते। परछाईं को पकड़ कर वस्तु नहीं पकड़ी जा सकती क्योंकि परछाईं वस्तु के सापेक्ष होने पर भी वस्तु परछाईं से सर्वथा स्वतंत्र होती है। ठीक उसी प्रकार चेतना (आत्म-सत्ता) के होने पर ही शरीर, मन तथा बुद्धि भी सचेतन अर्थात गतिमान प्रतीत होते हैं। लगता ऐसा है कि आत्मसत्ता (चेतन) शरीर, मन, बुद्धि, जड़ के सापेक्ष है किन्तु यह वास्तविक सत्य नहीं, ऐसा मिथ्या बोध है। फिर भी इस मिथ्या बोध का ज्ञान तमोगुणी बाधा (सिंघिनी) के कारण कठिनाई से हो पाता है।

‘जड़ चेतनहि ग्रन्थि परि गई, जदपि मृषा छूटत कठिनई।’

यह तो साधना के विकास के आरम्भ में ही जानना होगा कि आत्मसत्ता जड़ (शरीर, मन, बुद्धि) से परम स्वतंत्र है। शरीर में सामथ्र्य, मन में रस तथा बुद्धि में अमरत्व की नित्य विभूतियां हैं जो आत्मसत्ता के संग से, संस्पर्श से, मल रहित शरीर में, आसक्ति रहित मन में तथा अहंकार रहित बुद्धि में प्रस्फुटित होती है। इन विभूतियों का आधार भोजन, धन तथा अध्ययन नहीं है। साधक की धारणा में यह सत्य पूर्णरूपेण बैठ जाना चाहिए कि शक्ति, आनन्द तथा ज्ञान का स्रोत चेतनसत्ता है, आत्मसत्ता है या परमेश्वर है। चेतन की संगति से बुद्धि में ज्ञान, मन में आनन्द तथा शरीर में शक्ति आती है। यह जड़ और चेतन की ग्रन्थि, जो अवास्तविक है और तमोगुणी बाधा के कारण है और बिल्कुल ही मार डालने योग्य है। ज्ञानिनामग्रगण्यम् हनुमानजी ने इसे अविलम्ब समझ लिया और

‘सोइ छल हनुमान कहं कीन्हा,तासु कपटु कपि तुरतहि चीन्हा।
ताहि मारि मारुतसुत बीरा, बारिधि पार गयउ मतिधीरा।।’

इसके पश्चात् हनुमानजी सागर पारकर गए जहां उन्हें एक नई धरती तथा आकाश देखने को मिला। जब साधक तमोगुणी बाधा पर विजय प्राप्त कर लेता है तब वह नए आत्मविश्वास को प्राप्त कर निर्भय हो जाता है-

‘सैल बिसाल देखि एक आगे, ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागे।’

अब रावण का साम्राज्य लंका आ गया। जो मोह का प्रतीक है। वह लंका जो सोने का नगर है तथा बहुत ही पेंचीदा बनाया गया है। यही रावण (रुलाने वाला) समस्त विपदाओं का मूल है जहां सीता बन्दिनी है। जिस साम्राज्य के प्रवेश द्वार पर अनेकानेक मायावी निशिचरों का बोलबाला है और साधक के समक्ष यह समस्या उत्पन्न होती है कि वह किस प्रकार नगर में प्रविष्ट हो। हनुमानजी ने सुरसा के साथ किए हुए अपने प्रयोग को पुनरावृत्त करना चाहा और

‘पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह विचार। अति लघु रूप धरौं निसि, नगर करौं पइसार।’

उन्होंने लघु रूप धारण कर नगर में प्रवेश करना चाहा।

‘मसक समान रूप कपि धरी, लंकहि चलेउ सुमिर नरहरी।’
किन्तु वहां रजोगुणी बाधा उपस्थित हो गई।

लंकिनी-तीसरी बाध : रजोगुणी बाधा सतोगुणी तथा तमोगुणी मध्यवर्ती प्रवृत्ति वाली होती है किन्तु सतोगुणी तथा तमोगुणी के पश्चात आती है। यह बाधा प्रलोभन का रूप लेकर साधक के समक्ष उपस्थित होती है और साधक को पथभ्रष्ट करके मोह का विनाश अथवा सीतान्वेषण नहीं करने देती। यही बाधा हनुमानजी के समक्ष यह कहती हुई आती है-

‘जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा, मोर अहार जहां लगि चोरा।’

अर्थात लंकिनी के आहार हनुमान जी लंका में चोर की तरह प्रवेश करने वाले ही हैं। हनुमान जी ने-

‘मुठिका एक महा कपि हनी।’

एक घूंसा उसे मारा और उससे रक्त की धारा बह चली। सुरसा के साथ की गई युक्ति से हनुमानजी ने समझ लिया था कि वह युक्ति यहां नहीं काम करेगी।

(पूज्य सद्गुरु ‘योगीजी’ के प्रवचनों से संकलित)

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