दस्तक-विशेष

आधुनिक समाज को समय से पूर्व रच पायीं अमृता प्रीतम

जयंती 31 अगस्त पर विशेष

कृष्ण कुमार यादव

हिंदी और पंजाबी की जानी-मानी साहित्यकार अमृता प्रीतम ने अपनी कविताओं, कहानियों और उपन्यासों के जरिए जीवन के रंगों को दुनिया के सामने भावात्मक तरीके से प्रस्तुत किया। पंजाब (भारत) के गुजरांवाला जिले में पैदा हुईं अमृता प्रीतम को पंजाबी भाषा की पहली कवयित्री माना जाता है। विभाजन ने पंजाबी संस्कृति को बांटने की जो कोशिश की थी, वह उसके खिलाफ सदैव संघर्ष करती रहीं और उसे कभी भी विभाजित नहीं होने दिया। अमृताजी की रचनाओं में साझी संस्कृति की विरासत को आगे बढ़ाने और समृद्ध करने का पुट शामिल था। अमृता जिंदगीभर जिद और बगावत के साथ अपने भीतर की औरत के जानिब से दुनिया की औरतों के दर्द को बयान करती रहीं। लगभग सौ पुस्तकों की रचनाकार रूप में उन्होंने तत्कालीन समाज के विभिन्न पहलुओं से लेकर वर्तमान में चल रहे तमाम आयामों को भी मुखरता से स्थान दिया। इनमें उनकी चर्चित आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ भी शामिल है। अमृता प्रीतम उन साहित्यकारों में शामिल थीं जिनकी कृतियों का अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ और विदेशों में भी बड़े मनोयोग से पढ़ी गईं। एक समय में तो राजकपूर की फिल्में देखना और अमृता प्रीतम की कवितायें पढ़ना सोवियत संघ के लोगों का शगल बन गया था। साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाली वह प्रथम महिला रचनाकार थीं तो ज्ञानपीठ पुरस्कार से लेकर भारत के दूसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्मविभूषण से भी वे अलंकृत हुईं।

अमृता प्रीतम का जन्म 31 अगस्त, 1919 को पंजाब के गुजरांवाला (अब पाकिस्तान में) में हुआ था। मात्र 11 वर्ष की अल्पायु में, जबकि उन्होंने दुनिया को अपनी नजरों से समझा भी नहीं था मां का देहावसान हो गया। कड़क स्वभाव के लेखक पिता के सान्निध्य में अमृता का बचपन लाहौर में बीता और शिक्षा-दीक्षा भी वहीं हुई। लेखन के प्रति तो उनका आकर्षण बचपन से ही था पर मां की असमय मौत ने इसमें और भी धार ला दी। अपनी आत्मकथा रसीदी टिकट में उन्होंने मां के अभाव को जिया है- ‘सोलहवां साल आया- एक अजनबी की तरह। घर में पिताजी के सिवाय कोई नहीं था- वह भी लेखक जो सारी रात जागते थे, लिखते थे और सारे दिन सोते थे। मां जीवित होतीं तो शायद सोलहवां साल और तरह से आता- परिचितों की तरह, सहेलियों-दोस्तों की तरह, सगे-संबंधियों की तरह, पर मां की गैरहाजिरी के कारण जिंदगी में से बहुत कुछ गैरहाजिर हो गया था। आस-पास के अच्छे-बुरे प्रभावों से बचाने के लिए पिताजी को इसी में सुरक्षा समझ में आई कि मेरा कोई परिचित न हो। न स्कूल की कोई लड़की, न पड़ोस का कोई लड़का।’

अमृता प्रीतम की प्रथम कविता इंडिया किरण में छपी तो प्रथम कहानी 1943 में कुंजियां में। मोहन सिंह द्वारा प्रकाशित पत्रिका पंज दरया ने अमृता की प्रारम्भिक पहचान बनाई। सन् 1936 में अमृता की प्रथम किताब छपी। इससे प्रभावित होकर महाराजा कपूरथला ने बुजुर्गाना प्यार देते हुए दो सौ रुपये भेजे तो महारानी ने प्रेमवश पार्सल से एक साड़ी भिजवायी। इस बीच जीवन यापन हेतु 1937 में उन्होंने लाहौर रेडियो ज्वाइन कर लिया। जब देश आजाद हुआ तो उनकी उम्र मात्र 28 वर्ष थी। वक्त के हाथों मजबूर हो वो उस पार से इस पार आयी और देहरादून में पनाह ली। इस बीच 1948 में वे उद्घोषिका के रूप में आल इण्डिया रेडियो से जुड़ गयीं। पर विभाजन के जिस दर्द को अमृता जी ने इतने करीब से देखा था, उसकी टीस सदैव स्मृति पटल पर बनी रही और रचनाओं में भी प्रतिबिम्बित हुई। बंटवारे पर उन्होंने लिखा- ‘पुराने इतिहास के भीषण अत्याचारी काण्ड हम लोगों ने भले ही पढ़े हुये थे, पर फिर तब भी हमारे देश के बंटवारे के समय जो कुछ हुआ, किसी की कल्पना में भी उस जैसा खूनी काण्ड नहीं आ सकता…। मैने लाशें देखी थीं, लाशों जैसे लोग देखे थे।’ बंटवारे की टीस और क्रंदन को वे कभी भी भुला नहीं पायीं। जिस प्रकार प्रणय-क्रीड़ा में रत क्रौंच पक्षी को व्याध द्वारा बाण से बींधने पर क्रौंची के करुण शब्द सुन विचलित वाल्मीकि अपने को रोक न पाये थे और बहेलिये को श्राप दे दिया था, जो कि भारतीय संस्कृति का आदि श्लोक बना, ठीक वैसे ही पंजाब की इस बेटी की आत्मा लाखों बेटियों की क्रंदन सुनकर बार-बार द्रवित होती जाती थी।… और फिर यूं ही ट्रेन यात्रा के दौरान उनके जेहन में वारिस शाह की ये पंक्तियां गूंज उठीं- ‘भला मोए ते, बिछड़े कौन मेले…।’ अमृता को लगा कि वारिस शाह ने तो हीर के दु:ख को गा दिया पर बंटवारे के समय लाखों बेटियों के साथ जो हुआ, उसे कौन गायेगा। फिर उसी रात चलती हुई ट्रेन में उन्होंने यह कविता लिखी-

अज्ज आख्यां वारिस शाह नूं,
किते कबरां बिच्चों बोल
ते अज्ज किताबे-इश्क दा
कोई अगला वरका खोल।
इक रोई-सी धी पंजाब दी,
तूं लिख-लिख मारे बैन
अज्ज लक्खां धीयां रोंदियां,
तैनूं वारिस शाह नूं कहन।

यह कविता जब छपी तो पाकिस्तान में भी पढ़ी गयी। उस दौर में इसका इतना मार्मिक असर पड़ा कि लोग इस कविता को अपनी जेबों में रखकर चलते और एकांत मिलते ही निकालकर पढ़ते व रोते… मानो यह उन पर गुजरी दास्तां को सहलाकर उन्हें हल्का करने की कोशिश करती। विभाजन के दर्द पर उन्होंने ‘पिंजर’ नामक एक उपन्यास भी लिखा, जिस पर कालान्तर में फिल्म बनी। अमृता प्रीतम ने करीब 100 पुस्तकें लिखीं, जिनमें कविता, कहानी, उपन्यास, यात्रा संस्मरण और आत्मकथा शामिल हैं। उनकी रचनाओं में पांच बरस लम्बी सड़क, उन्चास दिन, कोरे कागज, सागर और सीपियां, रंग का पत्ता, अदालत, डाक्टर देव, दिल्ली की गलियां, हरदत्त का जिन्दगीनामा, पिंजर (उपन्यास), कहानियां जो कहानियां नहीं हैं, कहानियों के आंगन में, एक शहर की मौत, अंतिम पत्र, दो खिड़कियां, लाल मिर्च (कहानी संग्रह), कागज और कैनवस, धूप का टुकड़ा, सुनहरे (कविता संग्रह), एक थी सारा, कच्चा आंगन (संस्मरण), रसीदी टिकट, अक्षरों के साये में, दस्तावेज (आत्मकथा) प्रमुख हैं।

अन्य रचनाओं में एक सवाल, एक थी अनीता, एरियल, आक के पत्ते, यह सच है, एक लड़की : एक जाम, तेरहवां सूरज, नागमणि, न राधा-न रुक्मिणी, खामोशी के आंचल में, रात भारी है, जलते-बुझते लोग, यह कलम-यह कागज-यह अक्षर, लाल धागे का रिश्ता इत्यादि प्रमुख हैं। पंजाबी साहित्य को समृद्ध करने हेतु वे ‘नागमणि’ नामक एक साहित्यिक मासिक पत्रिका भी निकालती थीं। उन्होंने पंजाबी कविता की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक अलग पहचान कायम की पर इसके बावजूद वे पंजाबी से ज्यादा हिन्दी की लेखिका रूप में जानी जाती थीं। यहां तक कि विदेशों में भी उनकी रचनाएं उतने ही मनोयोग से पढ़ी जाती थीं। पचास के दशक में नागार्जुन ने अमृता की कई पंजाबी कविताओं के हिन्दी अनुवाद किए। सन् 1957 में साहित्य अकादमी पुरस्कार (‘सुनहुड़े’ कविता संकलन पर) पाने वाली वह प्रथम महिला रचनाकार बनीं तो 1958 में उन्हें पंजाब सरकार ने पंजाब अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया। 1982 में ‘कागज़ ते कैनवस’ के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया तो पद्मश्री और पद्मविभूषण जैसे सम्मान भी उनके आंचल में आए। 1973 में दिल्ली विश्वविद्यालय ने अमृता को डी. लिट की आनरेरी डिग्री दी तो पिंजर उपन्यास के फ्रेंच अनुवाद को फ्रांस का सर्वश्रेष्ठ साहित्य सम्मान भी प्राप्त हुआ। 1975 में अमृता के लिखे उपन्यास ‘धरती सागर और सीपियां’ पर कादम्बरी फिल्म बनी और कालान्तर में उनके उपन्यास ‘पिंजर’ पर चन्द्रप्रकाश द्विवेदी ने एक फिल्म का निर्माण किया। अमृता प्रीतम राज्यसभा की भी सदस्य रहीं।

विवाद और अवसाद अमृता के साथ बचपन से ही जुड़े रहे। मां की असमय मौत ने उनके जीवन को अंदर तक झकझोर दिया था। इस घटना ने उनका ईश्वर पर से विश्वास उठा दिया। जिन्दगी के अवसादों के बीच जूझते हुए उन्होंने कई महीनों तक मनोवैज्ञानिक इलाज भी कराया। डॉक्टर के ही कहने पर उन्होंने अपनी परेशानियों और सपनों को कागज पर उकेरना आरम्भ किया। इस बीच अमृता ने फोटोग्राफी, नृत्य, सितार वादन, टेनिस… न जाने कितने शौकों को अपना राहगीर बनाया। उनका विवाह लाहौर के अनारकली बाजार में एक बड़ी दुकान के मालिक सरदार प्रीतम सिंह से हुआ पर वो भी बहुत दिन तक नहीं निभ सका। इस बीच ‘शमा’ पत्रिका हेतु उनकेउपन्यास डॉ.देव के इलस्ट्रेशन बना रहे चित्रकार इमरोज से 1957 में मुलाकात हुई और 1960 से वे साथ रहने लगे। इमरोज के बारे में अमृता ने लिखा कि ‘मैंने अपने सपने को कभी उसके साथ जोड़कर नहीं देखा था, लेकिन यह एक हकीकत है कि उससे मिलने के बाद फिर कभी मैंने सपना नहीं देखा।’ अपने उपन्यास ‘दिल्ली की गलियां’ में नासिर के रूप में उन्होंने इमरोज को ही जिया था। अगर इमरोज के साथ उनका सम्बंध विवादों में रहा तो ‘हरदत्त का जिन्दगी नामा’ नाम के कारण ‘जिन्दगीनामा’ की लेखिका कृष्णा सोबती ने उनके विरुद्ध अदालत का दरवाजा भी खटखटाया। अपने अन्तिम दिनों में अमृता अतिशय आध्यात्मिकता, ओशो प्रेम, मिस्टिसिज्म का शिकार हो गई थीं पर अन्तिम समय तक वे आशावान और ऊर्जावान बनी रहीं। अपने अन्तिम दिनों में उन्होंने इमरोज को समर्पित एक कविता ‘फिर मिलूंगी’ लिखी-

मैं तुम्हें फिर मिलूंगी
कहां, किस तरह? पता नहीं।
शायद तुम्हारी कल्पनाओं का चिह्न बनकर
तुम्हारे कैनवस पर उतरूंगी
सर फिर तुम्हारे कैनवस के ऊपर
एक रहस्यमयी लकीर बनकर
खामोश तुम्हें ताकती रहूंगी।

ठेठ पंजाबियत के साथ रोमांटिसिज्म का नया मुहावरा गढ़कर दर्द को भी दिलचस्प बना देने वाली अमृता कहीं न कहीं सूफी कवियों की कतार में खड़ी नजर आती हैं। आज स्त्री विमर्श, महिला सशक्तिकरण, नारी स्वातंत्र्य और लिव इन रिलेशनशिप जैसी जिन बातों को नारे बनाकर उछाला जा रहा है, अमृता प्रीतम की रचनाओं में वे काफी पहले ही स्थान पा चुकी थीं। शायद भारतीय भाषाओं में वह प्रथम ऐसी जनप्रिय लेखिका थीं, जिन्होंने पिंजरे में कैद छटपटाहट की कलात्मक अभिव्यक्तियों को मुखर किया। ज्वलंत मुद्दों पर जबरदस्त पकड़ के साथ-साथ उनके लेखन में विद्रोह का भी स्वर था। उनकी कहानी ‘दिल्ली की गलियां’ में जब कामिनी नासिर की पेंटिग देखने जाती है तो कहती है- ‘तुमने वूमेन विद फ्लॉवर, वूमेन विद ब्यूटी या वूमेन विद मिरर को तो बड़ी खूबसूरती से बनाया पर वूमेन विद माइंड बनाने से क्यों रह गए।’ निश्चित यह वाक्य पितृसत्तात्मक समाज की उस मानसिकता को दर्शाता है जो नारी को सिर्फ भावों का पुंज समझता है, एक समग्र व्यक्तित्व नहीं। सिमोन डी बुआ ने भी अपनी पुस्तक ‘सेकेण्ड सेक्स’ में इसी प्रश्न को उठाया है। ऐसा नहीं है कि इन सबके पीछे मात्र लिखने का जुनून था बल्कि बंटवारे के दर्द के साथ-साथ अपने व्यक्तिगत जीवन की रूसवाइयों और तन्हाइयों को भी अमृता ने इन रचनाओं में जिया। ‘अमृता प्रीतम’ शीर्षक से लिखी एक कविता में उन्होंने अपने दर्द को यूं उकेरा-

एक दर्द था, जो सिगरेट की तरह
मैंने चुपचाप पिया है, सिर्फ कुछ नज्में हैं
जो सिगरेट से मैंने राख की तरह झाड़ी हैं।

अमृता प्रीतम एक साथ ही मानवतावादी, अस्तित्ववादी, स्त्रीवादी और आधुनिकतावादी थीं। जब विभाजन के दर्द को वे जीती हैं तो मानवतावादी, जब तमाम दुख-दर्दों और आलोचनाओं से परे स्वत:स्फूर्त वे स्व में से उद्भूत होती हैं तो अस्तित्ववादी, जब पुरुष की दकियानूसी मानसिकता पर चोट कर उसे स्त्री को समग्र व्यक्तित्व रूप में अपनाने की बात कहती हैं तो स्त्रीवादी एवं जब समय से आगे परम्पराओं के विपरीत अपने हमसफर को बिना किसी बंधन के समाज में स्वीकारती हैं तो आधुनिकतावादी रूप में उनका व्यक्तित्व सामने आता है। अमृता प्रीतम ने परम्पराओं को जिया तो दकियानूसी से उन्हें निजात भी दिलायी। आधुनिकता उनके लिए फैशन नहीं, जरूरत थी। यही कारण था कि वे समय से पूर्व ही आधुनिक समाज को रच पायीं।

(लेखक अहमदाबाद परिक्षेत्र के पोस्ट मास्टर जनरल हैं।)

Related Articles

Back to top button