आज ही के दिन राजा राम मोहन की अगुवाई में हुई थी ब्रम्ह समाज की पहली बैठक
देहरादून ( विवेक ओझा) : इतिहास के पन्नों में आज का दिन यानी 20 अगस्त का दिन आधुनिक भारत के सामाजिक धार्मिक पुनर्जागरण और उससे जुड़े सुधारों के लिए विशेष अहमियत रखता है। 20 अगस्त का ही दिन था जब सामाजिक धार्मिक क्रांति के अग्रदूत राजा राम मोहन राय की अगुवाई में ब्रम्ह समाज की पहली बैठक बुलाई गई थी। राजा राम मोहन राय ने साल 1828 में ब्रह्म सभा की स्थापना की जिसे बाद में ब्रह्म समाज का नाम दिया गया था। इसका मकसद एक कर्मकांड मुक्त समाज की स्थापना था। एक ऐसे समाज की स्थापना जो अंधविश्वास से मुक्त हो , तर्क और औचित्य की कसौटी पर खरा हो ।
ब्रह्म समाज पुरोहिती, अनुष्ठानों और बलि आदि के खिलाफ था। राजा राममोहन राय का मानना था कि हिन्दू धर्म में प्रवेश कर चुकी बुराईयों को दूर करने के लिए और उसके शुद्धिकरण के लिए उस धर्म के मूल ग्रंथों के ज्ञान से लोगों को परिचित करना आवश्यक है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए ही उन्होनें वेदों व उपनिषदों का बंगाली भाषा में अनुवाद कर प्रकाशित करने का कठिन कार्य किया। वे एक ऐसे सार्वभौमिक धर्म के समर्थक थे जोकि एक परम-सत्ता के सिद्धांत पर आधारित था। उन्होनें मूर्ति-पूजा और अंधविश्वासों व पाखंडों का विरोध किया।ब्रम्ह समाज प्रार्थना, ध्यान और शास्त्रों को पढ़ने पर केंद्रित था। यह सभी धर्मों की एकता में विश्वास करने की बात को लेकर चलता था।
यह आधुनिक भारत में पहला बौद्धिक सुधार आंदोलन था जिससे भारत में तर्कवाद और प्रबोधन का उदय हुआ जिसने अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रवादी आंदोलन में योगदान दिया। साल 1866 में ब्रम्ह समाज दो भागों में विभाजित हो गया भारत के ब्रह्म समाज का नेतृत्व केशव चन्द्र सेन ने और आदि ब्रह्म समाज का नेतृत्व देबेंद्रनाथ टैगोर ने किया।
ब्रह्म समाज के प्रमुख सिद्धांतो में शामिल हैं: ईश्वर एक है, वह सर्वशक्तिमान है, अजर, अमर और अनश्वर है।ईश्वर की दृष्टि मे नस्ल, वर्ण, जाति आदि का कोई भेदभाव नही है। ईश्वर की कृपा से मोक्ष संभव है। अतः सबको ईश्वर की आराधना करनी चाहिए।कर्म प्रधानता पर बल देना चाहिए। मनुष्य कर्म के अनुसार ही फल पाता है।बाल-विवाह, बहुविवाह , सती प्रथा आदि प्रथाएँ अनुचित है और विधवा विवाह उचित है। मूर्ति पूजा और कर्मकांड का त्याग कर देना चाहिए और ब्रह्म की उपासना करनी चाहिए।