दस्तक-विशेष

गोविंद बल्लभ पंत का व्यक्तित्व और उनकी बहुआयामी भूमिकाएं ( जयंती विशेष) :

देहरादून ( दस्तक ब्यूरो) : आज यानी 10 सितंबर को भारत रत्न गोविंद बल्लभ पंत की जयंती है।  वह एक महान स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्होंने महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए आंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभाई थी। उनका जन्म 10 सितंबर ,1887 को अल्मोड़ा में खूंट गाव में हुआ था। वर्तमान उत्तराखंड के काशीपुर में उन्होंने एक वकील के रूप में अपने करियर की शुरुआत की थी और 1921 में राजनीति में प्रवेश किया। 1930 में उन्हें कई बार नमक सत्याग्रह को आयोजित करने के आरोप में अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार किया गया था। उन्होंने ही हिंदी को राष्ट्रीय भाषा के रूप में मान्यता देने के आंदोलन को आधार प्रदान किया था । उन्होंने 1905 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया था और 1909 में उन्होंने कानून की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके पूर्व उन्होंने अल्मोड़ा में हैप्पी क्लब का गठन किया था। 

गोविन्द बल्लभ पंत के पिता का नाम श्री ‘मनोरथ पन्त’ था और मां का नाम गोविंदी बाई था। श्री मनोरथ पंत गोविन्द बल्लभ के जन्म से तीन वर्ष के भीतर अपनी पत्नी के साथ पौड़ी गढ़वाल चले गये थे। बालक गोविन्द दो-एक बार पौड़ी गए परन्तु स्थायी रूप से अल्मोड़ा में रहे। उनका लालन-पोषण उनकी मौसी ‘धनीदेवी’ ने किया था। गोविन्द वल्लभ ने 10 वर्ष की आयु तक शिक्षा घर पर ही ग्रहण की। 1897 में गोविन्द को स्थानीय ‘रामजे कॉलेज’ में प्राथमिक पाठशाला में दाखिल कराया गया। 1899 में 12 वर्ष की आयु में उनका विवाह ‘पं. बालादत्त जोशी’ की कन्या ‘गंगा देवी’ से हो गया, उस समय वह कक्षा सात में थे। गोविन्द ने लोअर मिडिल की परीक्षा संस्कृत, गणित, अंग्रेज़ी विषयों में विशेष योग्यता के साथ प्रथम श्रेणी में पास की थी। गोविन्द इण्टर की परीक्षा पास करने तक यहीं पर रहे। इसके पश्चात् इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया तथा बी.ए. में गणित, राजनीति और अंग्रेज़ी साहित्य विषय लिए।

इलाहाबाद उस समय भारत की विभूतियां पं० जवाहरलाल नेहरु, पं० मोतीलाल नेहरु, सर तेजबहादुर सप्रु, श्री सतीशचन्द्र बैनर्जी व श्री सुन्दरलाल सरीखों का संगम था तो वहीं विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के विद्वान् प्राध्यापक जैनिग्स, कॉक्स, रेन्डेल, ए.पी. मुकर्जी सरीखे विद्वान् थे। इलाहाबाद में नवयुवक गोविन्द को इन महापुरुषों का सान्निध्य एवं सम्पर्क मिला साथ ही जागरुक, व्यापक और राजनीतिक चेतना से भरपूर वातावरण मिला।

उन्होंने अपने करियर की शुरुआत काशीपुर में एक वकील के रूप में की थी। काकोरी मुकद्दमें ने एक वकील के तौर पर उन्हें पहचान और प्रतिष्ठा दिलाई थी। वर्ष 1921 में उन्होंने राजनीति में प्रवेश किया और वर्ष 1921 में ही  वे आगरा और अवध के यूनाइटेड प्रोविंस के विधान सभा के लिए चुने गए थे। इस बीच 1914 में काशीपुर में ‘प्रेमसभा’ की स्थापना पंत ने करवाई और इन्हीं की कोशिशों से ही ‘उदयराज हिन्दू हाईस्कूल’ की स्थापना हुई। 1916 में पंत काशीपुर की ‘नोटिफाइड एरिया कमेटी’ में लिए गए। 1921, 1930, 1932 और 1934 के स्वतंत्रता संग्रामों में पंत लगभग 7 वर्ष जेलों में रहे। साइमन कमीशन के आगमन के खिलाफ 29 नवंबर 1927 में लखनऊ में जुलूस और प्रदर्शन करने के दौरान अंग्रेजों के लाठीचार्ज में पंत को चोटें आईं, जिससे उनकी गर्दन झुक गई थी। 

उत्तराखंड के कुमाऊँ क्षेत्र में वे कुली बेगार प्रथा के खिलाफ लड़े। कुली बेगार कानून में था कि लोकल लोगों को अंग्रेज अफसरों का सामान फ्री में ढोना होता था। पंत इसके विरोधी थे।  काकोरी कांड में बिस्मिल और खान का केस उन्होंने लड़ा था । 1933 में चौकोट के गांधी कहे जाने वाले हर्ष देव बहुगुणा के साथ वे 7 माह तक गिरफ्तार हुए।  बाद में कांग्रेस और सुभाष चंद्र बोस के बीच डिफरेंस आने पर मध्यस्थता भी की।  1942 के भारत छोड़ो प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करने के चलते वे गिरफ्तार हुए और  तीन साल अहमदनगर फोर्ट में नेहरू के साथ जेल में रहे। नेहरू ने उनकी हेल्थ का हवाला देकर उन्हें जेल से छुड़वाया था। इससे पहले 1932 में पंत एक्सिडेंटली नेहरू के साथ बरेली और देहरादून जेलों में रहे। उस दौरान ही नेहरू से इनकी मित्रता हो गई थी। 

वर्ष 1937 में पंत जी संयुक्त प्रांत के प्रथम प्रधानमंत्री बने और 1946 में उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री बने।  1951 में हुए यूपी विधानसभा चुनाव में वो बरेली म्युनिसिपैलिटी से जीते थे।  10 जनवरी, 1955 को उन्होंने भारत के गृह मंत्री का पद संभाला। गृहमंत्री के रूप में उनका मुख्य योगदान भारत को भाषा के अनुसार राज्यों में विभक्त करना तथा हिन्दी को भारत की राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करना था। सन 1957 में गणतन्त्र दिवस पर महान देशभक्त, कुशल प्रशासक, सफल वक्ता, तर्क के धनी एवं उदारमना पन्त जी को भारत की सर्वोच्च उपाधि ‘भारतरत्न’ से विभूषित किया गया। हिन्दी को राजकीय भाषा का दर्जा दिलाने में भी गोविंद वल्लभ पंत जी का महत्वपूर्ण योगदान रहा।  7 मार्च, 1961 को गोविंद बल्लभ पंत का निधन हो गया।

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