आरएसएस मुखिया मोहन भागवत क्यों चाहते हैं अब भारत की आबादी बढ़े
दयाशंकर शुक्ल सागर
स्तंभ: राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भारत को जनसंख्या बढ़ाने की सलाह देकर देश भर में एक नई बहस छेड़ दी है। इस बार आरएसएस प्रमुख ने ये सलाह केवल हिंदुओं को नहीं दी। बल्कि उन्होंने सभी भारतवासियों को मश्विरा दिया है कि वे अब 2 की बजाय 3 बच्चे पैदा करें। भागवत ने आबादी में कमी को चिंता का विषय बताया। उनका मानना है कि किसी भी देश की जनसंख्या वृद्धि दर 2.1% से नीचे नहीं होनी चाहिए। यह संख्या इसलिए जरूरी है, ताकि समाज जिंदा रहे। अगर किसी समाज की जनसंख्या वृद्धि दर 2.1 से नीचे चली जाती है, तो वह समाज अपने आप नष्ट हो जाएगा। नागपुर में कठाले कुल सम्मेलन की एक सभा में उन्होंने कुछ दिन पहले कहा था- कुटुंब समाज का हिस्सा है और हर परिवार एक इकाई है।
भागवत के बयान पर देश में तीखी आलोचना हो रही है। कोई इसे देश के विकास को पीछे ले जाने वाला बयान बता रहा है तो कोई इसे महिला विरोधी कथन कह रहा है। क्योंकि उन्हें लगता है कि इस युग में जबकि महिलाएं घर के बाहर कदम रख कर देश की तरक्की में कदमताल कर रही हैं उन्हें बच्चे पैदा करने की मशीन बनाना ठीक नहीं। फिर आज के जमाने में तीसरे बच्चे का पालना कितना महंगा है। जनसंख्या बढ़ने से सबे बड़ा खतरा बेरोजगारी का है जिससे आज का भारत झेल रहा है। भारत ने कितनी मुश्किल से प्रजनन दर को कम किया है। 1950 में कुल प्रजनन दर प्रति महिला 6 बच्चे थी जो अब 2021 में घटकर 2.2 हो गई है। बावजूद इसके भारत चीन का पीछे छोड़ कर आज दुनिया में सबसे बड़ी आबादी वाला मुल्क बन गया है।
ऐसे में मोहन भागवत के इस बयान का क्या औचित्य है। बताने की जरूरत नहीं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस भारत का एक, हिन्दू राष्ट्रवादी, अर्धसैनिक, स्वयंसेवक संगठन हैं, जो व्यापक रूप से भारत के सत्तारूढ़ दल भारतीय जनता पार्टी का पैतृक संगठन माना जाता हैं। ये मोदी सरकार का एक तरह का थिंक टैंक है। इसलिए इसकी हर कही बात के पीछे गहरा अर्थ छिपा होता है। आरएसएस ने अगर सार्वजनिक मंच से नई जनसंख्या नीति बनाने का जो संदेश दिया है उस पर आज नहीं तो कल मोदी सरकार को संजीदगी से विचार करना होगा।
आखिर आरएसएस की चिन्ता क्या है।
दरअसल किसी भी देश की आबादी दो धारी तलवार है। ये समस्या भी है और समाधान भी। इसमे कोई संदेह नहीं कि मानव आबादी को अब उसी पुराने अनियंत्रित तरीके से बढ़ने की इजाजत नहीं दी जा सकती। अगर हम अपनी जनसंख्या के आकार को नियंत्रित नहीं करेंगे, तो प्रकृति हमारे लिए यह काम कर देगी। और प्रकृति ये काम बेहद बेदर्दी से करती है। इसी तरह जनसंख्या के लगातार कम होने से आने वाले दशकों में देश अलग तरह की मुश्किलों को झेलता है। जन्मदर एकदम से कम हो जाने पर एक वक्त ऐसा आता है जब देश में बुजुगों की आबादी इतनी बढ़ जाती है कि उन्हें संभालना नमुमकिन हो जाता है। उनके साथ देश भी बूढ़ा और अनुत्पादक हो जाता है। भारत और चीन के उदाहरण से इसे ज्यादा बेहतर ढंग से समझा जा सकता है।
वर्ष 1971 में इन दोनों देशों में प्रजनन का स्तर तकरीबन समान था। देश में औसत रूप से प्रति महिला लगभग छह बच्चों का जन्म हो रहा था और ये सिलसिला 21वीं सदी तक जारी रहा। चीन और भारत दुनिया में सबसे ज्यादा आबादी वाले देश थे। लेकिन चीन ने खुद को सचेत किया। वहां तानाशाही थी इसलिए सरकार का हर फरमान पत्थर की एक लकीर बन गया। 1970 के दशक के अन्त तक चीन में प्रजनन दर में 50 फ़ीसदी की गिरावट आई और यह प्रति महिला तीन बच्चों के जन्म तक पहुँच गई। लेकिन भारत में इस स्तर तक पहुँचने में तीन दशकों से भी अधिक वक्त लगा। 1980 के दशक में, चीन ने तथाकथित ‘एक बच्चा नीति’ को भी अपनाया था, जिसके तहत हर एक परिवार केवल एक बच्चे तक सीमित हो गया। अब हाल ये है कि वर्ष 2022 तक, चीन, विश्व में सबसे कम प्रजनन दर वाले देशों में है, जहां जीवनकाल में औसतन प्रति महिला 1.2 बच्चों का जन्म होता हैं।
चीन बूढ़ों का देश
लेकिन चीन को दस साल पहले ही लगने लगा कि कुछ गलत हो गया है। चीन ने हर एक परिवार केवल एक बच्चे की नीति को 2016 में खत्म कर दिया। और चीनी सरकार ने मोहन भागवत की तरह एलान कर दिया कि चीनी नागरिक अब ज्यादा बच्चे पैदा करें। अब आलम ये है कि चीन में बुज़ुर्गों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है। साल 2022 के अंत तक, चीन में 65 साल और उससे ज़्यादा उम्र के कोई 21 करोड़ लोग थे, जो देश की आबादी का 14.9 प्रतिशत है। यह फ़्रांस, यूनाइटेड किंगडम, और थाईलैंड की कुल आबादी से ज़्यादा है। समस्या अभी थमी नहीं है। अब हालत यह है कि साल 2040 तक, चीन में 60 साल और उससे ज़्यादा उम्र के लोगों की संख्या 40 करोड़ तक पहुंच जाएगी। यह चीन की कुल आबादी का 28 प्रतिशत होगा।
साल 2030 तक, चीन ‘सुपर-एज्ड’ समाज बनने की राह पर है। यानी कम से कम 20 प्रतिशत आबादी 65 साल और उससे ज़्यादा उम्र की होगी। अब चीन बढ़ती बुज़ुर्ग आबादी से जुड़ी समस्याओं से जूझ रहा है। वहां बुज़ुर्ग लोगों की बढ़ती संख्या के कारण, वरिष्ठ देखभाल की मांग बढ़ गई है। चीन को बुज़ुर्ग देखभाल कर्मियों की भर्ती में दिक्कत हो रही है। बूढों की देखभाल करने वाले लोगों का समूह भी तेज़ी से बूढ़ा हो रहा है। जाहिर है मोहन भागवत नहीं चाहते की भारत का भी वही हाल हो जो आज चीन का है।
जनसंख्या विस्फोट का दौर खत्म
भारत में जनसंख्या वृद्धि को चार चरणों में समझा जा सकता है। इसके साथ देश की तरक्की और स्वास्थ्य सुविधाओं की प्रगति भी जुड़ी हुई है। 1891 से 1921 तक के चरण को जनसंख्या वृद्धि का प्रथम चरण कहा जा सकता है। इन तीस सालों में भारत की जनसंख्या 23 करोड़ से बढ़कर 25 करोड़ हो गई। ये “स्थिर जनसंख्या”का दौर था। जनसंख्या में इस तरह की निराशाजनक वृद्धि का एक मुख्य कारण स्वास्थ्य संबंधी बुनियादी ढांचे और सेवाओं की कमी थी। प्रति 1000 जनसंख्या पर 47 बच्चे जन्म लेते थे जिनमें केवल 2 बच्चे जिन्दा रह पाते थे। 1890 के दशक में कुख्यात प्लेग या 1920 के दशक में स्पेनिश फ्लू जैसी महामारी के प्रकोपों ने एक साथ लाखों लाख जाने ले लीं।
1921-1951 तक जनसंख्या वृद्धि के इस चरण को “स्थिर वृद्धि” अवधि कहा जाता है। इस अवधि के दौरान जनसंख्या 1921 में 25 करोड़ से बढ़कर 1951 में 36 करोड़ हो गई। इस चरण में भारतीय जनसांख्यिकी का एक नए युग में संक्रमण देखा गया, जो देश में हो रहे सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों का नतीजा था। देश आजाद भारत में तब्दील हो चुका था। जन्म दर प्रति 1000 जनसंख्या 42 पर स्थिर रही, लेकिन मृत्यु दर में भारी गिरावट देखी गई, जो 45 प्रति 1000 जनसंख्या से घटकर 27 प्रति 1000 जनसंख्या हो गई। भारत जनसांख्यिकीय संक्रमण के दूसरे चरण में प्रवेश कर चुका था, जिसमें जन्म दर उच्च थी, जबकि मृत्यु दर में कमी जारी थी। 1951-1981 के तीसरे चरण में भारत की जनसंख्या 36.1 करोड़ से लगभग दोगुनी होकर 68.3 करोड़ हो गई। भारतीय जनसंख्या की वृद्धि दर 2.14% तक पहुंच गई जो अब तक का सबसे तेज उछाल था। ,इसलिए इस चरण को “तेज उच्च वृद्धि” चरण के रूप में माना जाता है।
भारतीय जनसंख्या में 32 करोड़ की रिकॉर्ड वृद्धि हुई, जो पिछले चरण की वृद्धि से लगभग 3 गुना अधिक थी। जबकि मृत्यु दर 27 प्रति 1000 जनसंख्या से घटकर 15 प्रति 1000 जनसंख्या हो गई। इस दौर में इमरजेंसी भी आई जिसमें परिवार नियोजन पर सख्ती बरतने की कोशिश की। दो बच्चों पर स्लोगन लिखकर गांव गांव दीवारों पर चिपकाए जाने लगे। इ युग में निरोध नाम के कंडोम का खूब प्रचार प्रसार हुआ। इसी चरण में भारत ने विभिन्न सामूहिक टीकाकरण कार्यक्रमों पर काम करना और विकसित करना शुरू किया, जिससे मृत्यु दर में कमी लाने में मदद मिली। और इस सबके बावजूद जब जन्म दर लगातार ऊंची बनी रही, तो इससे देश की जनसंख्या में भारी विस्फोट हुआ।
1981-2011 जनसांख्यिकीय परिवर्तन का चौथा चरण था। जब जन्म दर में गिरावट और मृत्यु दर में कमी होने लगी। इससे जनसंख्या स्थिर हो जाती है। लेकिन चूंकि जन्म दर मृत्यु दर से बहुत अधिक है, इसलिए देश की जनसंख्या 1981 में 68.3 करोड़ से बढ़कर 2011 में 121 करोड़ हो गई, जो कुल मिलाकर 77% की वृद्धि है। इस चरण को “धीमी गति के स्पष्ट संकेतों के साथ उच्च वृद्धि चरण” के रूप में जाना जाता है। 1991-2001 के दशक के दौरान जनसंख्या 84.4 करोड़ से बढ़कर 100.2 करोड़ हो गई, और 2001-2011 के दौरान यह 100.2 करोड़ से बढ़कर 121 करोड़ हो गई, जो 18.1 करोड़ की वृद्धि है।
2011-2031 जनसांख्यिकीय परिवर्तन का ये पांचवा चरण चल रहा है। 2021 में करोना के कारण देश में जनसंख्या का दस साला सर्वे नहीं हुआ। लेकिन जो आंकड़े सामने आए हैं वह आने वाले वक्त के लिए चेतावनी बन गए हैं। भारत की जनसंख्या साल 2024 में 1,45 करोड़ हो गई है। अगर जनसंख्या वृद्धि की रफ्तार इसी तरह की रही, तो अगले 77 सालों में भारत की आबादी दोगुनी हो जाएगी। यानी भारत की आबादी 2062 में अपने पीक पर होगी। तब देश में 1.701 अरब लोग होंगे। साल 2062 में जनवरी और जुलाई के बीच जनसंख्या में गिरावट शुरू हो जाएगी। 2062 में जनसंख्या में करीब 2.22 लाख लोग जुड़ेंगे।
2063 में देश में करीब 1.15 लाख लोगों की मौत होगी। 2064 में यह आंकड़ा 4.37 लाख होगा और 2065 में 7.93 लाख होगा। देश में महिलाओं की औसत आयु 74 वर्ष और पुरुष की 71 साल है। एक महिला पर कुल प्रजनन दर 2 है, यानी औसतन एक महिला दो बच्चों को जन्म देती है। हालांकि भारत में प्रजनन दर में गिरावट आई है, लेकिन जो आबादी है वो धीरे-धीरे बड़ी हो रही है। लड़कियां प्रजनन की उम्र में प्रवेश करती जाती हैं, इसलिए प्रजनन दर कम होने के बावजूद भी जनसंख्या वृद्धि जारी रहती है। भारत की जनसंख्या में वृद्धि की एक और बड़ी वजह मृत्यु दर में कमी आना है। संस्थागत प्रसव यानी डाक्टर की देखरेख में प्रसव की संख्या में वृद्धि होने की वजह से भी जनसंख्या में वृद्धि दर्ज हो रही है।
जनसंख्या वृद्धि दर में भारी कमी
जनसंख्या वृद्धि का मतलब है कि किसी खास इलाके में रहने वाली आबादी में समय के साथ बदलाव आना है। इसकी दर को प्रतिशत में बताया जाता है। साल 2021 में भारत की जनसंख्या वृद्धि दर 0.80% से गिरकर 2024 में 0.68% रह गई है। साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, भारत की सालाना जनसंख्या वृद्धि दर 1.64% थी। यूएन वर्ल्ड पॉपुलेशन प्रॉस्पेक्टस 2024 की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2024 में भारत की आबादी 145 करोड़ होने का अनुमान है। यनी भारत में जनसंख्या वृद्धि दर में लगातार गिरावट आ रही है। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, और बिहार में जनसंख्या वृद्धि दर सबसे ज़्यादा है। नागालैंड में जनसंख्या वृद्धि दर सबसे कम है।
भारत भी चीन की राह पर
जनसंख्या वृद्धि में इस भारी कमी के कारण बुजुर्गों के मामले में अब भारत की चीन की राह पर है। संयुक्त राष्ट्र की जनसंख्या कोष की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2022 में भारत में 60 साल से ज़्यादा उम्र के लोगों की संख्या 14.9 करोड़ थी। यह आबादी कुल जनसंख्या का 10.5% थी। साल 2050 तक भारत में बुज़ुर्गों की संख्या 34.7 करोड़ होने का अनुमान है यानी, उस समय भारत की आबादी में 20.8% लोग बुज़ुर्ग होंगे। जबकि, इस सदी के अंत तक यानी 2100 तक भारत की 36 फीसदी से ज्यादा आबादी बुजुर्ग होगी।
रिपोर्ट बताती है कि 2021 से 2036 के बीच बुजुर्गों की आबादी और तेजी से बढ़ेगी। बुजुर्गों की आबादी दक्षिण भारत में ज्यादा बढ़ेगी और 2036 तक यहां हर पांच में से एक व्यक्ति बुजुर्ग होगा। रिपोर्ट के मुताबिक, 2036 तक भारत की आबादी में बुजुर्गों की हिस्सेदारी 15 फीसदी होगी। ज्यादातर दक्षिणी राज्य और पंजाब-हिमाचल जैसे राज्यों की आबादी में बुजुर्गों की आबादी राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है। और 2036 तक ये अंतर और ज्यादा होने का अनुमान है।
यही वजह है कि मोहन भागवत से पहले आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के मुख्यमंत्रियों ने भी की लोगों से ज्यादा बच्चे पैदा करने की अपील की थी। यूएन की रिपोर्ट पर चिंता जताते हुए तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्रियों ने भी लोगों को ज्यादा बच्चे पैदा करने को कहा था। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने बूढ़ी होती जनसंख्या को लेकर चेतावनी देते हुए कहा था कि उनकी सरकार बड़े परिवारों को प्रोत्साहन देने और पुराने जनसंख्या रोधी उपायों को पलटने के लिए कानून बनाने पर विचार कर रही है। उन्होंने कहा कि बुजुर्ग आबादी में बढ़ोतरी के चलते राज्य की इकोनॉमी पर बोझ पड़ सकता है, जैसा कि जापान, चीन और यूरोप के कई हिस्सों में हो रहा है, जहां युवाओं से ज्यादा बुजुर्गों की संख्या है।
नायडू ने यह भी कहा कि दक्षिणी राज्यों में प्रजनन दर 1.6 हो गई है, जो राष्ट्रीय औसत 2.1 से कम है। इसी तरह तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने भी राज्य के लोगों को ज्यादा बच्चे पैदा करने को कहा। चेन्नई में एक शादी समारोह में उन्होंने कहा कि लोगों को 16 तरह के धन का संचय करने की जगह 16 बच्चे पैदा करने पर ध्यान देना चाहिए।
तकलीफ की बात ये है कि भारत में चीन या अन्य देशों के मुकाबले बुजुर्ग ज्यादा लाचार हैं। एनएसओ के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस) के 2017-2018 के आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में 70 प्रतिशत बुजुर्ग अपने दैनिक जीवन के लिए दूसरों पर निर्भर हैं। महिलाओं के लिए स्थिति और भी खराब है। ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में क्रमशः केवल 10 प्रतिशत और 11 प्रतिशत महिलाएँ आर्थिक रूप से स्वतंत्र थीं, जबकि ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में 48 प्रतिशत और 57 प्रतिशत पुरुष आर्थिक रूप से स्वतंत्र थे।