21वीं सदी : कितना बदला भारत
नए साल में हम 21वीं सदी के पच्चीसवें पायदान पर खड़े हैं। यह नई सदी का सिल्वर जुबली साल है। क्या 21वीं सदी वैसी है जैसी हमने-आपने कल्पना की थी? नई सदी के 25 वर्षों में भारत कहां पहुंचा? इन वर्षों में भारत कैसे बदला और कितना बदला? नई सदी के शुरुआती 25 वर्षों का एक सफ़रनामा पेश कर रहे हैं ‘दस्तक टाइम्स’ के संपादक दयाशंकर शुक्ल सागर।
21वीं सदी अभी तो शुरू हुई थी जैसे कल की बात हो। प्रयागराज में इस साल की तरह महाकुंभ का मेला लगा था। 2001 में वह नई सदी का पहला महाकुंभ था। संगम न जाने कितनी नई सदियों के महाकुंभ का गवाह रहा है। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 664 ई के महाकुंभ का आंखोंदेखा हाल लिखा है। ह्वेनसांग के आने के 1337 साल बाद मैं एक अखबार के लिए प्रयागराज से महाकुंभ की लाइव रिपोर्टिंग कर रहा था। जनवरी के ठिठुरते जाड़े में संगम का पानी बर्फ की तरह ठंडा था। उस दिन तीन करोड़ श्रद्धालुओं ने संगम में डुबकी लगाई थी। मुझे याद है, उसी दिन 26 जनवरी को गुजरात के भुज में पृथ्वी डोली थी और जलजले में लाखों लोग मारे गए थे। मन में पहला ख्याल आया था कि कितनी मनहूस शुरुआत हुई है इस नई सदी की। अब इन गुजरे 25 साल के बारे में सोचता हूं तो लगता है कि इस अविरल जीवन में कुछ भी शुभ-अशुभ नहीं होता। वक़्त अपनी रफ़्तार से बिलकुल र्निविकार भाव से बस आगे बढ़ जाता है। शुभ-अशुभ घटनाएं वक्त को छू भी नहीं पाती। वह ठहरता नहीं, पीछे पलट कर देखता भी नहीं। कभी-कभी लगता है वक़्त ईश्वर का भेजा हुआ कोई नुमाइंदा है। वह पृथ्वी पर होते हुए भी उससे अलग है। पृथ्वी उसे नहीं पहचानती न वह हमारी पृथ्वी को पहचानता है।
बहरहाल यह 21वीं सदी की खुशनुमा शुरुआत नहीं थी। नई सदी के पहले ही साल 11 सितंबर की शाम मैंने टीवी पर दो हवाई जहाजों को वल्र्ड ट्रेड सेंटर, न्यूयॉर्क शहर के ट्विन टावर्स के साथ टकराते देखा। यह किसी हॉलीवुड के फिल्म जैसा नज़ारा था। पर वह फिल्म नहीं थी, एक आतंकी हमला था। ऐसा भयावह हमला दुनिया ने पहले कभी नहीं देखा था। दुनिया के सबसे ताकतवर और अत्याधुनिक देश में यह सब हुआ तब अंदाजा लग गया कि अब दुनिया पहले जैसी महफूज़ नहीं रही। नई सदी में एक नए दैत्य ने दस्तक दी है जिसे आतंकवाद का नाम दिया गया। इस दैत्य के इतने हाथ और पैर थे कि यह एक पवित्र किताब की आड़ लेकर दुनिया के किसी कोने को कायरों की तरह छुपकर, बम धमाकों से दहला सकता था। वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर हमले को अभी तीन महीने बीते भी नहीं थे कि इस दैत्य ने भारत की संसद पर हमला कर दिया। नई सदी दुनिया का ऐसे स्वागत करेगी, यह किसी की कल्पना में नहीं था। आतंकवाद के इस दैत्य ने आठ साल बाद फिर समन्दर के रास्ते भारत की तरफ भी रुख किया और मुम्बई महानगर को ताज होटल समेत एक के बाद एक कुल बारह बम धमाकों से दहला दिया।
उपभोक्तावाद का राक्षस
एक दैत्य और था जो आतंकी धमाकों के बीच तीसरी दुनिया के देशों में आवारा पूंजी के साथ दस्तक दे चुका था। यह था उपभोक्तावाद। खुले बाजार की नीति के साथ इसने देखते ही देखते पूर्रे ंहदुस्तान पर कब्जा कर लिया। अर्थशास्त्र की किताबों में उपभोक्तावाद वह सिद्धांत था जो इंसानों को बड़ी मात्रा में वस्तुओं और सेवाओं का उपभोग करने की आदत डालता है। सरकार का अर्थव्यवस्था में दखल बंद हो गया। तर्क था अर्थव्यवस्था खुद को इस डिमांड और सप्लाई के नियम के अनुसार संभाल लेगी। यहां तक कोई दिक्कत नहीं थी। दिक्कत तब शुरू हुई जब अर्थव्यवस्था ने प्रचार के हथकंडे अपना कर खुद ही डिमांड पैदा करनी शुरू कर दी।
यह प्रचार उपभोक्ताओं को बाजार का सम्राट बताने लगा। लेकिन हक़ीकत यह थी कि ये इंसानों को उन चीजों का गुलाम बना रहा था जिसकी उसे ज़रूरत ही नहीं थी। 21वीं सदी में भारत की तकरीबन आधी आबादी गरीबी रेखा के नीचे थी। उपभोक्तावाद ने इस व्यापक गरीबी के बीच लग्जरी वस्तुओं की होड़ को बढ़ावा दिया। पहले व्यक्तित्व से प्रतिष्ठा जुड़ती थी, अब प्रतिष्ठा आलीशान हवेली, टीवी, फ्रिज और सोफासेट जैसी भौतिक चीजों से जुड़ने लगीं। इन्हें पाने की लालसा ने भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया। भ्रष्टाचार दस्तूर बन गया। जितना है उससे ज्यादा पाने की चाह ने ज्यादातर्र ंहदुस्तनियों को रिश्वतखोर बना दिया। सत्यनिष्ठा, धर्मनिष्ठा और कत्र्वयपरायणता जैसे शब्द किताबों की शोभा बनकर रह गये। अब कोई ‘नमक का दरोगा’ नहीं रहा जो रिश्वत देने के आरोप में किसी पंडित अलोपीदीन के हाथों में हथकड़ी पहना सके। कोई पंडित अलोपीदी भी नहीं रहा जिसके हृदय में ग्लानि व क्षोभ हो और लज्जा से जिसकी गर्दन झुक जाए। अपराधबोध जैसे आत्मा से कहीं विदा हो गया था।
उपभरोक्तावाद ने सबसे पहले अपराधबोध की ही हत्या कर दी। नई सदी में उपभोक्तावादी संस्कृति ने परिवार और समाज के ताने-बाने को तोड़ दिया। इस उपभोक्तावादी संस्कृति ने सबसे पहले नुक्कड़ की परचून की दुकानों को खत्म किया। नई सदी के अंत तक बाजार शानदार शॉपिंग मॉल में तब्दील होते गए। आप टोकरी लेकर जाइए और अपनी पसंद का सामान मॉल में सजी शेल्फों में से खुद खोज लीजिए। इन शेल्फों में हर वस्तु के दर्जनों विकल्प थे। ये विकल्प ब्रांड बनते चले गए। ब्रांड पहले आपके स्टेटर्स सिंबल से जुड़ा, फिर वह सीधे आपकी प्रतिष्ठा से जुड़ गयार्। हिंदुस्तानियों ने पहली बार जाना की टाटा और बाटा के आगे भी एक दुनिया है। वह दुनिया ज्यादा चमकदार है। ब्रांडों की चकाचौंध ने उपभोक्ताओं के अंदर हवस पैदा की। किराने के सामान की लिस्ट में जो ज़रूरत की चीजें थीं उससे कहीं ज्यादा वस्तुएं उस टोकरी में भरने लगीं जो मॉल ने मुहैया कराई थीं। जेब में पैसे की चिन्ता खत्म हो गई क्योंकि आपके पास प्लास्टिक का एक जादुई कार्ड था। इसमें पैसे खर्च होते नहीं दिखते थे। जेब से नोट निकलने का दर्द खत्म हो गया। इसने उपभोक्तावाद को मनचला बना दिया कहें तो अतिश्योक्ति न होगी।
मनोरंजन का बाजार
इस मनचले उपभोक्तावाद ने सबसे पहले घरों को तोड़ा। दूरदर्शन का पहला टीवी सीरियल हमलोग इसका प्रतीक बन गया। इसे बुद्धू बक्से के नाम से बदनाम किया गया। पर यह इतना भी बुद्धू नहीं था। इसकी पहुंच घर-घर तक थी। इसने बड़ी चालाकी से उपभेक्तावाद से दोस्ती कर ली और उसके प्रचार-प्रसार में जुट गया। संयुक्त परिवार टूटे। बेहद खामोशी से एकाकी परिवारों का चलन बढ़ने लगा। 90 के दशक तक संयुक्त परिवार में एक फ्रिज एक टीवी, एक वाशिंग मशीन, एक टेलीफोन, एक टेलीविजन से काम चल जाता था। अब छोटे-छोटे एकांकी परिवार हो गए। इनकी जरूरतें भी बढ़ने लगीं। बाजार में डिमांड बढ़ी और सप्लाई के लिए तो अंकल सैम पहले से तैयार बैठे थे। फिर शॉपिंग मॉल भी अप्रासंगिक होने लगे। नई सदी के दूसरे दशक के उत्तरार्थ में ऑनलाइन शॉपिंग की दुकानें खुल गईं। अमेजन, फ्लिपकार्ट, मंत्रा जैसी ऑनलाइन मार्केटिंग साइटों ने बाजार को अपने कब्जे में कर लिया। इसी के साथ फ्लैट कल्चर बढ़ा। इंटरटेनमेंट चैनलों के रंग बदल गए और साथ में कंटेंट भी। एक जमाने तक यह एकाकी परिवरों को प्रमोट करते रहे, पर ओटीटी प्लेटफार्म ने दुनिया ही बदल दी। डिजिटल वेब सीरीज व फिल्मों में एकाकी परिवार के बजाय अब लिव इन रिलेशनशिप वाले परिवारों की कहानियां दिखा रहे हैं। लिव इन में स्त्री और पुरुष दोनों ही कमाने वाले हैं, सो वे इस आवारा बाजार के लिए सबसे अच्छे ग्राहक साबित हो रहे हैं। ये संबंध कमज़ोर और नाज़ुक होते हैं, इनके टूटने पर फिर से बाजार में मांग बढ़ने की पूरी गारंटी होती है। रिश्तों में स्थायित्व बाजार के लिए नुकसान का सौदा है।
सिनेमा
90 के दशक के इस बुद्धू बक्से ने केवल तीस साल में सिनेमा को बुद्धू बना दिया। सिनेमा भी 360 डिग्री बदल गया। ओटीटी ने अचानक बाक्स ऑफिस की भीड़ खत्म कर दी। कई-कई साल सिनेमा घरों में चलने वाली बड़े बजट की फिल्में तीन से चार हफ्ते में उतर कर घुटनों के बल ओटीटी की तरफ बढ़ने लगी। ओटीटी बुद्धू बक्से का ही स्मार्ट वजऱ्न है। बड़े स्टार जो टीवी पर आने को खुद की तौहीन समझते थे, अब ओटीटी की तरफ रेंगने लगे। शाहरुख, सलमान और आमिर खान जैसे चाकलेटी सुपरस्टारों की जगह नवाजुद्दीन सिद्दकी, राजकुमार राव, विक्की कौशल जैसे साधारण चेहरे-मोहरे वाले सितारों ने ले ली। यानी दिलीप कुमार का दौर लौटता दिख रहा है जहां अभिनय ही असली कसौटी है। पेड़ के इर्द-गिर्द नायक-नायिकाओं के गीतों और सिनेमा की काल्पनिक उड़ान से लोग ऊब चुके थे। अब उन्हें अपने जैसे किरदारों को पर्दे पर देखना था। अपनी कहानी सुननी थी। नए सिनेमा ने बताया कि काशी के मसान पर देह फूंकने वाले डोम राजा के लड़के की भी गर्लफ्रेंड हो सकती है। बड़े-बड़े स्टूडियो बेमानी हो गए क्योंकि अब सेट बनारस, लखनऊ, मिर्जापुर और झारखंड के धनबाद जिले के छोटे से कस्बे वासेपुर की गलियों में सजने लग गए। बम्बई का बॉलीवुड अब अप्रासंगिक होता जा रहा है। छोटे शहर फिल्म सिटी बनते जा रहे हैं। बॉलीवुड से हिंदी पट्टी के दर्शक इतना ऊब गए कि दक्षिण का सिनेमा उन्हें ज्यादा भाने लगा। बाहुबली, कबाली, रोबोट, आरआरआर से लेकर पुष्पा तक तमाम हिंदी में डब फिल्में बॉक्स ऑफिस में पैसा कमाने लगीं।
आभासी दुनिया
21वीं सदी में हम एक आभासी दुनिया यानी वर्चुअल वल्र्ड में आ गए। कंप्यूटर आधारित एक ऑनलाइन सामुदायिक वातावरण है। इसमें लोग एक-दूसरे से बातचीत कर सकते हैं और एक नकली दुनिया में रह सकते हैं। इस दुनिया में लोग अवतार के ज़रिए बातचीत करते हैं। ये विवाह, परिवार, रिश्ते-नातेदारियों के अंत की शुरुआत जैसा है। यहां सबकुछ नकली और बनावटी है। इस वर्चुअल वल्र्ड में सब आभासी है। रिश्ते, सुंदरता, दोस्ती, भावनाएं सब काफी हद तक बनावटी और आभासी।नई सदी के दूसरे दशक में भारत ने अचानक डिजिटल युग में छलांग लगा दी। इस युग ने हमारे जीने, सोचने और समझने के तरीके में क्रांति ला दी। लैंडलाइन टेलीफोन का युग तो सदी के आते ही जाने लगा था। ट्रंककाल और एसटीडी जैसे शब्द अतीत हो गए। हर हाथ में मोबाइल और हर घर में कम्प्यूटर का सपना राजीव गांधी ने 80 के दशक में देखा था। नई सदी में यह सपना तकरीबन पूरा हो गया। 2010 के दशक की शुरुआत से दुनियाभर में स्मार्टफोन सर्वव्यापी हो गए। दुनिया की दो तिहाई से अधिक आबादी ने 2023 तक इंटरनेट तक पहुंच हासिल कर ली। बेहद बातूनी भारतीय इसमें सबसे आगे रहे। देश की करीब 100 करोड़ से ज्यादा आबादी के हाथ में आज मोबाइल फोन पहुंच चुका है। फिलहाल देश की कुल 145 करोड़ की आबादी में से 115.2 करोड़ मोबाइल सब्सक्रिप्शन दिए जा चुके हैं। इनमें कई उन 23 करोड़ लोगों में शामिल हैं जो गरीबी की रेखा से नीचे जिन्दगी बसर कर रहे हैं।
देश के 6,40,131 गांव में से 6,23,622 गांव तक मोबाइल कवरेज पहुंच चुकी है। मोबाइल फोन ने जि़न्दगी आसान कर दी है लेकिन सामाजिक संबंधों में दूरी आ गई। मिलना-जुलना, एक-दूसरे के घर आना-जाना कम हो गया। बातें अब फोन पर हो जाती हैं। वीडियो कर्ॉंलग ने यह जुमला भुला दिया कि यार तुमसे मिले जमाना हो गया। वर्चुअल मेल-मिलाप बढ़ा लेकिन महफिलें सजनी बंद हो गईं। सदी के शुरू में ही खतों की जगह पहले ई-मेल ने ले ली थी। सदी के दूसरे दशक में व्हाट्सएप संदेश लेने पाने का सबसे आसान जरिया बन गया। पेटीएम, जीपे, भीम, पेपल जैसे यूपीआई ऐप ने रुपए का लेन-देन आसान कर दिया। अब बटुए में पैसे रखने की ज़रूरत नहीं रही। सब्जी बेचने वाले से लेकर पान बेचने वाले तक हाई टेक हो गए। डिजिटल लेनदेन ने सिक्कों को चलन से बाहर कर दिया। रोचक बात यह है कि इसका असर रेड लाइट सिग्नल और मंदिरों के बाहर भीख मांगने वालों पर नहीं पड़ा क्योंकि उन्हें अब दानी सीधे दस रुपए के नोट देने लगे। बेशक एक सर्वे में पाया गया कि कई भिखारियों के पास भी मोबाइल फोन थे लेकिन वे उसे छुपाकर रखते थे। एक समाजशास्त्री प्रोफेसर मित्र ने निजी बातचीत में बताया कि पेटीएम या यूपीआई से भीख मांगने का चलन भी जल्द शुरू होने वाला है। इंटरनेट डेटा पैक इतना सस्ता हो गया कि झुग्गी झोपड़ियों तक में वाई-फाई लग गए। मोबाइल में बेशुमार सस्ता डेटा मिलने लगा। इतना सस्ता इंटरनेट डेटा न यूरोप में है न अमेरिका में और न ही मध्य एशिया में।
हिन्दुत्व का उफान
इस परिदृश्य से देश में धार्मिक-राजनीतिक ध्रुवीकरण की एक तेज प्रक्रिया शुरू हुई। देश में बहुसंख्यक हिंदूवादी ताकतें प्रभावााली हो गईं। ऐसे में स्वाभाविक रूप से हिंदू जनता की भावनाएं धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्त के खिलाफ हो गई क्योंकि धर्मनिरपेक्षता धार्मिक सहिष्णुता और सांस्कृतिक विविधता की वकालत करती है, जबकि हिंदू राष्ट्रवादियों का मानना है कि एक समान पहचान राष्ट्रवाद का एक ज़रूरी आधार है और केवल एक साझा सांस्कृतिक दृष्टिकोण से ही इस तरह का सामंजस्य पैदा किया जा सकता है। इनका सिर्फ एक एजेंडा बन गया- भारत की सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था र्में हिंदू जीवनशैली को स्थापित करना जिसका सपना वीर सावरकर ने काले पानी की सजा काटते हुए देखा था। यह एक तरह से अल्पसंख्यकों की कथित तुष्टीकरण की नीति का तीखा रिएक्शन था जिसे कांग्रेस ने अपने वोट बैंक की खातिर पाल-पोस कर बड़ा किया था। मुसलमानों में पहली बार खौफ पैदा हुआ। 21वीं सदी के दूसरे दशक में मुसलमानों को वही नज़ारा नजर आया जिसकी आशंका 19वीं सदी के अंतिम वर्षों में सर सैय्यद अहमद खान और 20वीं सदी के शुरू में मुहम्मद अली जिन्ना जैसे मुस्लिम नेताओं ने की व्यक्त की थी। जिन महात्मा गांधी ने जिन्ना के सिर से हिंदू-मुस्लिम एकता का झंडाबरदार होने का ताज छीना था उन्हीं गांधी और उनके गांधीवाद को नई पीढ़ी ने खारिज कर दिया।
साइबर स्पेस
डेटा सस्ता होने से इंस्टाग्राम, फेसबुक, ट्वीटर जैसे सोशल मीडिया ऐप इस्तेमाल करना बहुत आसान हो गया। यह कुछ ऐसा था जैसे गूंगों को अचानक आवाज़ मिल गई हो। अब लोग खामोश नहीं थे। सबको अभिव्यक्ति का एक छोटा सा प्लेटफार्म मिल गया। इंटरनेट किसी भी विचारधारा को रिप्रजेन्ट नहीं करता। इसका इस्तेमाल ज्यादातर पर्सनल तौर पर होता है। फेसबुक ने पहली बार इंसान को साइबर स्पेस में एक अलग पहचान दी। इस साइबर स्पेस में इंसान ने पहली बार अपना एकाउंट खोल कर अपने लिए एक पर्सनल स्पेस क्रिएट किया जहां वह अपने बेहद निजी विचारों और भावनाओं को पब्लिक फोरम पर शेयर कर सकता है। उसने साइबर स्पेस में एक खिड़की खोली जिसके जरिए वह दुनिया की तरफ देख सकता है और खुद को घुटनभरे कमरे से आजाद कर सकता है। इसलिए दुनियाभर में क्या हो रहा है, इस पर अपडेट रहना आसान हो गया। चाय का ठेला लगाने वाले की भी अब अपनी एक राय थी जिसे वह बेबाकी से अभिव्यक्त कर सकता था। उसे अपनी रुचि के मामलों पर बोलने का अधिकार मिल गया। यह इंटरनेट क्रान्ति सिर्फ विचारों तक महदूद नहीं रही। मठ टूटने लगे। मठाधीशों की जमीन खिसकने लगी। साहित्य, सिनेमा और संगीत तकरीबन हर क्षेत्र में नई प्रतिभाओं को सोशल मीडिया ने एक मंच दे दिया। अब कोई आगे बढ़ने के लिए गॉड फादर का मोहताज नहीं रहा।
आया एआई
21वीं सदी के इस पड़ाव पर अब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी एआई ने दस्तक दे दी है। यह एक कृत्रिम बुद्धि है जो प्राकृतिक बुद्धि के विपरीत मशीनी दिमा़ग है जो इंसानों के ‘संज्ञानात्मक’ कार्यों की नकल करता है। यह इंसानों के दिमाग़ से सीखकर इंसानों को ही मात दे रहा है। यह एक हजार इंसानी दिमाग़ का काम अकेले कर सकता है। वो भी कम वक्त में और ज्यादा कुशलता और सलीके से। दुनियाभर की तमाम कंपनियां इंसानों को नौकरी से निकाल कर एआई को अपना गुलाम बना रही हैं। यह इंसानी रोबोट से अलग है। यह इंसानों की तरह सोच सकता है और अपनी भावनाएं भी साझा कर सकता है। इसे बस एक हाड़-मांस के शरीर की ज़रूरत है। इसके लिए भी सिलिकॉन यानी एक तरह र्के ंसथेटिक रबर को लैबों में प्राकृतिक मांसलता का आभास देकर और बेहरीन बनाने के प्रयोग चल रहे हैं। कोई हैरत वाली बात नहीं होगी अगर अगले पचास वर्षों में इंसान के पास हूबहू उस जैसा एक दूसरा क्लोन या इंसान हो। कहने की ज़रूरत नहीं कि उसके पास अपने सशरीर पार्टनर से बेहतर दिमा़ग होगा। उसके पास वह सब होगा जो इंसानों को ईश्वर ने देकर भेजा है, लेकिन उस एआई जनित हमशक्ल के पास आत्मा नहीं होगी। लेकिन तब आप पाएंगे कि आत्मा तो आपके पास भी नहीं है।
बदली राजनीति
राजनीति के क्षेत्र में देखें तो नरेंद्र दामोदर दास मोदी का देश का प्रधानमंत्री बनना भी नई सदी की सबसे महत्वपूर्ण घटना रही। 1984 में इंदिरा गांधी के जाने के बाद भारत की राजनीति में नेतृत्व का संकट आ गया था। इंदिरा के जाने और मोदी के आने के बीच के तीस वर्षों में देश ने नौ प्रधानमंत्री बदले। राजनीतिक अस्थिरता देश की किस्मत बन गई थी लेकिन रेलवे स्टेशन पर चाय बेचने वाले लड़के नरेन्द्र के नसीब में कुछ और लिखा था। नरेंद्र मोदी आजाद भारत में जन्म लेने वाले पहले प्रधानमंत्री बने। 2024 का चुनाव जीतकर उन्हें सबसे लंबे समय तक सेवा करने वाले गैर-कांग्रेसी प्रधान मंत्री का तमगा मिल गया। 1962 के बाद लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बनकर उन्होंने पंडित जवाहर लाल नेहरू की बराबरी कर ली। मोदी के आक्रामक तेवरों ने भारत की राजनीति की दशा और दिशा दोनों बदल दिया। मोदी की दो बड़ी उपलब्धियां ऐसी हैं जिसके लिए हिंदुस्तान उन्हें लंबे वक्त के लिए याद रखेगा। एक जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले भारतीय संविधान का अनुच्छेद 370 को खत्म करना और दूसरा सदियों से चले आ रहे रामजन्म भूमि बाबरी मस्जिद विवाद को खत्म करना।
ये दो नासूर थे जिनसे आजाद भारत पिछले 77 वर्षों से जूझ रहा था। नई सदी की दूसरी अहम घटना कांग्रेस का पतन रही। कोई साढ़े चार दशक तक हिंदुस्तान पर एकछत्र राज करने वाली देश की सबसे पुरानी और सबसे बड़ी पार्टी को उसके ही अहंकार ने डुबो दिया। 90 के दशक में मंडल और कमंडल की राजनीति ने कांग्रेस के सारे किले ध्वस्त कर दिए। नई सदी का पहला दशक जरूर कांग्रेस के नाम रहा। राहुल गांधी 2004 में चुनावी राजनीति में आए। संयोगवश उसी साल कांग्रेस का केंद्रीय सत्ता से दस साल का वनवास समाप्त हुआ लेकिन यह सत्ता आर्गेनिक तरीके से हासिल नहीं हुई थी। सोनिया गठबंधन को साधने में कामयाब हो गईं। मनमोहन सिंह दस साल प्रधानमंत्री ज़रूर रहे लेकिन उन्हें जनता ने सीधे अपना प्रतिनिधि नहीं चुना था जैसे कि नेहरू, इंदिरा या मोदी को चुना गया था। सच पूछिए तो पिछले तीस वर्षों में राजीव, अटल और मोदी के अलावा ऐसा कोई प्रधानमंत्री नहीं बना जिसे सीधे जनता ने चुना हो। जिन क्षत्रपों की मदद से कांग्रेस ने नई सदी में दस बरस राज किया उन्होंने बड़े सलीके से कांग्रेस की जमीन हथिया ली। कांग्रेस देखते-देखते इंडियन नेशनल कांग्रेस जैसे अपने ही क्षत्रपों के हाथों की कठपुतली बन गई।
अमीरी-गरीबी बढ़ा फासला
21वीं सदी में एक और ट्रेंड साफ तौर पर दिख रहा है, वह है अमीर गरीब के बीच बढ़ती खाई। उदारीकरण के दौर में आवारा पूंजी ने अपना कमाल दिखाया। अमीर और अमीर होते गए और गरीब और गरीब। 20वीं सदी के अंतिम दशकों में इतनी गैर बराबरी नहीं थी। तब टाटा-बिरला जैसे चंद उद्योगपति हुआ करते थे लेकिन उदारीकरण के बाद निजी उद्यम में इज़ाफा हुआ। पूंजी बाजारों में पैसा बढ़ा और ऊपर के कुछ ही लोगों के हाथों में संपत्ति इकट्ठी होनी शुरू हो गई। इनकम एंड वेल्थ इनइक्वेलिटी इन इंडिया के एक सर्वे से पता चलता है कि सिर्फ एक फीसद भारतीयों के पास देश की आय का 22 फीसदी और संपत्ति का 40 फीसदी हिस्सा है। खास बात यह है कि आय का यह हिस्सा दुनिया में सबसे अधिक है। औसत हिंदुस्तानी की सालाना इनकम 2.3 लाख रुपए है जबकि इस एक फीसदी लोगों की सालाना इनकम औसतन 53 लाख रुपए है। इसमें सबसे बुरा हाल इनकम टैक्स के दायरे में आने वाले नौकरी पेशा लोगों का रहा। उनकी तनख्वाहें बढ़ी लेकिन उसी हिसाब से खर्च भी बढ़े। अस्सी फीसदी सरकारी कर्मचारी भ्रष्ट हो गए। उन्हें भ्रष्ट बनाने में सत्तारुढ़ दल के मंत्री नेताओं की बड़ी भूमिका रही। दोनों ने जनता को मिल बांटकर लूटा। पार्टी फंड जुटाने और निजी दौलत कमाने की भूख के चलते सरकारों ने बड़े उद्योगपतियों से दोस्ती गांठ ली। उनके कर्जे माफ हुए और उन्हें सरकारी ठेके मिले। केन्द्र या राज्य में किसी दल की सरकार हो इससे उन पर कोई फर्क नहीं पड़ा। सबने चुनाव जीतने की कीमत वसूल की। रिपोर्ट कहती है कि करोना महामारी ने इस अंतर को और बढ़ा दिया। पैसे वालों को आपदा में अवसर मिल गया। निजी अस्पतालों के मालिकों ने खूब कमाया। भारत में करोड़पति बढ़े।
साल 2021 में 1.30 लाख लोगों ने इनकम टैक्स डिपार्टमेंट को खुद के करोड़पति होने की सूचना दी। ऐसे लोगों की गिनती बढ़ी जिनकी आय 10 लाख से एक करोड़ रुपये के बीच थी। कृषि सेक्टर में हालात ज्यों के त्यों रहे। यानी खेती किसानी में लगी देश की 50 फीसदी आबादी के हालात में कोई सुधार नहीं हुआ। पीढ़ी दर पीढ़ी उनके खेत ज़रूर छोटे होते चले गए। फिर भी पूंजी के सरकुलेट होने से ज्यादातर लोगों को उदारीकरण का फायदा मिला। 1991 में जहां देश में प्रति व्यक्ति जीडीपी 301 डालर थी, वह 2021 में बढ़कर 2,277 डालर हो गई। साल 2005-06 से 2015-16 के दौरान भारत में 27.1 करोड़ लोग बेहद गरीबी रेखा से बाहर आने में सफल रहे। उपभोक्तावाद के इसी टोटके से दुनिया की अर्थव्यवस्था जो 2000 में $42 ट्रिलियन थी 2022 में बढ़कर $101 ट्रिलियन हो गई। इस बहती गंगा में भारत की इकोनॉमी को डुबकी लगाने का मौका मिल गया। 2010 में पहली बार भारतीय अर्थव्यवस्था ने 1 ट्रिलियन डॉलर का आंकड़ा छुआ। 2017 तक यह दो ट्रिलियन डॉलर पर पहुंचा, तीन साल में यानी 2020 में इसने तीन ट्रिलियन डॉलर का निशान भी पार कर लिया। इस साल भारतीय अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन डॉलर की बनाने का लक्ष्य है। सरकार कहती है कि भारत 2030 तक जापान को पीछे छोड़कर दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। अभी हम दुनिया की 5वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश बनने की तैयारी कर रहे हैं लेकिन प्रति व्यक्ति आय के मामले में हम टॉप 10 देशों में सबसे नीचे हैं। देश की तरक्की का मतलब सभी देशवासियों की तरक्की होना चाहिए न कि कुछ मुट्ठी भर लोग अमीर और अमीर होते जाएं।
और अंत में
इस तरह तमाम खट्टे-मीठे अनुभव देकर 21वीं सदी के 24 साल गुजर गए। जैसे यह किसी ट्रेन का कभी न खत्म होने वाला सफर हो। और ये 2001, 2002, 2003… 2024 नाम के स्टेशन हों। और वक्त की ट्रेन अब 2025 नम्बर स्टेशन पर आकर अब खड़ी हो गई है। फलसफे के अंदाज़ में कहें तो इस ट्रेन में वापसी का कोई टिकट नहीं है। हम सबको किसी न किसी स्टेशन पर उतरना है। कौन-सा यात्री किस स्टेशन पर उतरेगा यह कोई नहीं जानता। यात्री खुद भी नहीं जानता कि उसे किस स्टेशन पर उतरना है। हाल में उस्ताद जाकिर हुसैन और मनमोहर्न ंसह को भी आगे का सफर मुल्तवी करके 2024 के स्टेशन पर उतरना पड़ा। नई सदी में अटल जी 2018 और नरसिम्हा राव 2004 में ही विदा हो गए। दलितों के मसीहा कांशीराम, मिसाइल मैन एपीजे अब्दुल कलाम, अहमद पटेल, प्रणव मुखर्जी, जसवंत सिह, ट्रेजर्डी किंग के नाम से मश्हूर दिलीप कुमार, कमाल के अभिनेता इरफान सब इसी सदी में अपने अपने तय स्टेशनों पर उतर गए। व़क्त अपनी रफ्तार से भाग रहा है और उसके पीछे हम इंसान। इसी सदी में कभी किसी दिन किसी शाम हम सभी किसी न किसी स्टेशन पर उतर जाएंगे। पीछे कुछ शब्द रह जाएंगे और इंटरनेट के सर्वर के किसी क्लाउड में ये सफरनामा सुरक्षित रहेगा, जो शायद अगली पीढ़ी को सबक दे जाए कि नई सदी के इन 25 सालों को हम थोड़ा और बेहतर ढंग से जी सकते थे।