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बिहार के लिए क्यों जरूरी हो गए नीतिश कुमार

बिहार की राजनीति पिछले 25 वर्षों में नीतीश कुमार और लालू यादव एंड संस के इर्द-गिर्द घूम रही है। जंगलराज के दौर के बाद जब नीतीश कुमार सत्ता के केन्द्र बिन्दु बने तो उनकी छवि सुशासन बाबू की बनी और बिहार तरक्की के पैमाने पर देश में तेजी से बढ़ते राज्यों में से एक हो गया। नई सदी में बिहार का सियासी सफरनामा पेश कर रहे हैं पटना के वरिष्ठ पत्रकार दिलीप कुमार।

गुजरे दिसंबर के अंतिम सप्ताह में बिहार सरकार का एक विज्ञापन प्रकाशित हुआ ‘रोजगार मतलब-नीतीश सरकार’। यह विज्ञापन बताता है बिहार के बदलते दौर की कहानी। जंगलराज के दौर के बाद जब 20 वर्ष पहले नीतीश कुमार राज्य की सत्ता में पहली बार आए तो कुछ वर्षों में उनकी छवि सुशासन बाबू की बनी। इस आधार पर वे लगातार जीतते भी रहे। हाल के वर्षों में बेरोजगारी को लेकर सरकार पर सवाल उठने शुरू हुए तो सरकारी भर्तियों का दौर तेजी से शुरू हुआ। एनडीए छोड़ महागठबंधन में जाने और महागठबंधन छोड़ एनडीए में आने के चलते उन्हें ‘पलटूराम’ की भी संज्ञा दी गई, लेकिन नीतीश विचलित नहीं हुए। बिहार हमेशा उनके एजेंडे में रहा। जाहिर है बिहार की जनता ने भी उन्हें बीते बीस साल से अपनी गिरफ्त में रखा। इस रहस्य को समझने के लिए आपको बीस साल पीछे जाना होगा।

यह बीती सदी के वे अंतिम दशक थे जब बिहार जंगलराज के लिए जाना जाता था। इसने नरसंहार का लंबा दौर देखा, जिसमें एक दर्जन से अधिक घटनाएं हुईं। वह लालू-राबड़ी का शासन था। इसके बाद बदलाव की कहानी शुरू हुई जब वर्ष 2005 में नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने। इसे पूरे देश ने महसूस किया। आज सुशासन के नाम की चर्चा होती है। विकास के पैमाने पर देश तेजी से बढ़ते राज्यों में शामिल हो गया। यह एक दिन में नहीं हुआ। बीते 20 वर्षों में नीतीश कुमार ने जो काम किए हैं, वे यहां की कहानी बताते हैं। केन्द्र की राजनीति में बिहार का बड़ा हस्तक्षेप रहा है। लालू व नीतीश के समर्थन के बिना किसी की सरकार केन्द्र में नहीं बनी। देखा जाए तो राज्य से लेकर केन्द्र तक राजनीति बीते 30 वर्षों में नीतीश और लालू के इर्द-गिर्द घूम रही है। अब तो लालू अपने बेटे तेजस्वी यादव को राजनीति में पूरी तरह से स्थापित कर चुके हैं। जबकि भाजपा पिछले ढाई दशक में राज्य में ऐसा कोई नेता खड़ा नहीं कर सकी, जिसका व्यापक जनाधार हो। यही कारण है कि जदयू को साथ लेना उसकी मजबूरी है।

बदलाव लेकर आया वर्ष 2005
बिहार की राजनीति में 2005 का दौर बड़े बदलाव वाला रहा है। लालू-राबड़ी शासन के 15 वर्ष पूरे हो रहे थे। नरसंहार, हत्या, अपहरण, लूट सहित अन्य अपराधों के चलते जंगलराज जैसी स्थिति थी। उस वर्ष विधानसभा के दो चुनाव हुए। पहला फरवरी में। राजद और कांग्रेस गठबंधन को 85 सीटें मिली थीं। इसके मुकाबले भाजपा और जदयू गठबंधन के 92 विधायक जीते थे। सरकार बनाने का 122 का आंकड़ा किसी के पास नहीं था। रामविलास पासवान की लोजपा के 29 विधायक जीते थे। सत्ता की चाबी उनके पास थी, लेकिन वे मुस्लिम मुख्यमंत्री बनाने की बात कहने लगे। कोई दल राजी नहीं हुआ। उस समय केन्द्र में यूपीए की सरकार थी। लालू प्रसाद उसमें ताकतवर नेता थे। उन्होंने विधानसभा भंग करवा दी। इसके बाद नीतीश कुमार महात्मा गांधी की धरती चंपारण से पूरे राज्य की यात्रा पर निकले। एक-एक जिले में गए। लालू-राबड़ी के आंतक भरे शासन से तंग जनता उनके साथ आई। यात्रा में उन्होंने लोगों को बताया कि किस प्रकार प्रदेश को एक और चुनाव में धकेल दिया गया। उन्होंने जनता से न्याय की मांग की और गुड गवर्नेंस का वादा किया। इसके बाद अक्टूबर 2005 में चुनाव हुआ। 139 सीटों पर चुनाव लड़कर नीतीश कुमार की जदयू 88 सीटें जीतीं। वहीं राजद 175 सीटों पर चुनाव लड़ मात्र 54 जीत सकी। फरवरी के मुकाबले राजद को 21 सीटें कम मिलीं। भाजपा 102 सीटों पर लड़ी और 55 सीटें जीती। इस तरह राज्य में पहली बार जदयू-भाजपा ने मिलकर सरकार बनाई। नीतीश कुमार पहली बार मुख्यमंत्री बने। पहले शासनकाल में उन्होंने अपराध और अपराधियों पर जिस तरह से लगाम लगाई, गुड गवर्नेंस के वादे को पूरा किया, उसका लाभ उन्हें आज तक मिल रहा है।

कभी गूंजता था ‘खून का बदला खून’
बिहार ने वह दौर भी देखा है जब यहां खून का बदला खून का नारा गूंजता था। शाम होने के बाद कोई घर से बाहर नहीं निकलता था। जातीय विद्वेष इस कदर था कि एक के बाद एक नरसंहार की घटनाएं होने लगीं। खासतौर से मध्य बिहार इसके लिए जाना जाता था। सामंतवाद के विरुद्ध हिंसक रास्ता अख्तियार कर नक्सलवादी आंदोलन की शुरुआत हुई। भोजपुर में नक्सलवादी आंदोलन की नींव पड़ी। यहां के जगदीश मास्टर साहब के नेतृत्व में वंचित तबके के लोग एकजुट हुए। धीरे-धीरे इसने पूरे बिहार को अपनी चपेट में ले लिया। 1990 में लालू प्रसाद सत्ता में आए तो दलितों और पिछड़ों को राजनीतिक बल मिला। उनका उत्थान हुआ। इस कालखंड में इस वर्ग ने प्रतिरोध करना शुरू कर दिया। इस बढ़ाने का काम लालू ने किया। विवादास्पद बयान दिया कि ‘भूरा बाल साफ करो’। इसका मतलब भूमिहार, ब्राह्मण, राजपूत और लाला था। इससे जातीय संघर्ष को हिंसक हवा दी। अगड़ों के नरसंहार की घटनाएं हुईं। इसी दौरान ब्रह्मेश्वर मुखिया ने वर्ष 1994 में रणबीर सेना बनाई। इस सेना पर मध्य बिहार और विशेषकर भोजपुर में दलितों और पिछड़ों पर नरसंहार का आरोप लगा। दिसंबर 1997 में लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार अनुसूचित जाति के 58 लोगों की हत्या हुई थी। राज्य में खूनी संघर्ष के इस दौर में 16 जून 2000 को औरंगाबाद जिले के मियांपुर गांव में हुए नरसंहार को भी याद किया जाता है। तब इस घटना में यादव जाति के 33 लोग मारे गए थे। इसके बाद से इस तरह की घटनाएं कम हुईं। फिर जब नीतीश सत्ता में आए तो इस पर लगाम लग गई।

स्थायी दोस्त न स्थायी दुश्मन
बीच में दो बार छोड़ दिया जाए तो नीतीश कुमार लगातार भाजपा के साथ मिलकर राज्य की सत्ता चला रहे हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में जब नरेंद्र मोदी को भाजपा ने प्रधानमंत्री पद का चेहरा घोषित किया तो नीतीश कुमार भाजपा से अलग हो गए। अकेले चुनाव लड़ा, लेकिन पार्टी महज दो सीटों पर ही जीत सकी। 17 मई 2014 को उन्होंने लोकसभा चुनाव में अपने पार्टी के खराब प्रदर्शन की जिम्मेदारी लेते हुए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था। उन्होंने जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया था। बाद में फरवरी 2015 में वे पुन: मुख्यमंत्री बन गए थे। नवंबर 2015 का विधानसभा चुनाव लालू के साथ मिलकर महागठबंधन के बैनर तले लड़ा। उनका गठबंधन जीता और वे मुख्यमंत्री बने। जुलाई 2017 में गठबंधन सहयोगी राजद से मतभेद के चलते नीतीश कुमार इस्तीफा देकर फिर भाजपा के साथ आ गए थे। इसके बाद 2020 में पुन: उन्होंने एनडीए के साथ चुनाव लड़ा और जीतकर मुख्यमंत्री बने। 2022 में एक बार फिर एनडीए से अलग होकर राजद के साथ मिल सरकार बना ली थी। 2024 में, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक बार फिर से अपनी निष्ठा बदल ली। यह उनका पांचवां यू-टर्न था। और वे महागठबंधन को छोड़कर भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन में शामिल हो गए।

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