रणजी के रणछोड़: यूपी के लिए खोने-पाने को अब कुछ नहीं
कानपुर। संजीव मिश्र। रणजी ट्रॉफी से पहले ही बाहर होने के बाद यूपी टीम अब दूसरे चरण के शेष दो मुकाबलों में सीजन समाप्त करने की औपचारिकता निभाएगी। यहां उसके खिलाड़ियों के सामने न तो 19 साल का सूखा खत्म कर ट्रॉफी जीतने का लक्ष्य होगा और न ही नॉक आउट की रेस में बने रहने का दबाव, क्योंकि ये सारा दबाव तो वह पहले दौर में ही खत्म करके आ रहे हैं।
उत्तर प्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन (यूपीसीए) ने वैसे भी पिछले कई सालों से अपनी टीम को इस तरह के प्रेशर से मुक्त कर रखा है। हर सीजन रणजी में नये चेहरे आते हैं और किसी तस्वीर की तरह एक दो मैचों के बाद बदल जाते हैं। फिर नये चेहरे आते हैं, फिर बदल जाते हैं और फिर, और फिर….। यह सिलसिला चलता रहता है और शायद आगे भी चलता रहे, क्योंकि टीम के अधिकांश खिलाड़ी भली भांति जानते हैं कि वे कैसे आए हैं और किस मकसद को पूरा करने के लिए रणजी में अपना संक्षिप्त किरदार निभाने आए हैं।
आईपीएल ने क्रिकेट की क्लास और खिलाड़ियों के कॅरिअर को तो कतर ही डाला, साथ ही स्टेट क्रिकेट को भ्रष्टाचार के काकरोचों से भी भर दिया है। अब रणजी खेल लेने का मतलब ट्रेन के बाद आप हवाई यात्रा की पात्रता भी हासिल कर चुके हैं। यही वजह है कि पूंजीपतियों के बेटे (रिंकू सिंह और यशस्वी जयसवाल जैसे कुछ अन्य अपवाद छोड़) सिर्फ रणजी का लेवल लगाने के लिए आते हैं। इनका लक्ष्य भी यही होता है, क्योंकि इसके बाद उनको आइपीएल में खेलने का लाइसेंस मिल जाता है। ऐसे में कोई रणजी ट्रॉफी जीतने के बारे में सोचे भी तो क्यों सोचे, क्योंकि सारी गणित तो करोड़पति बनाने वाली लीग के लिए लगाई होती है।
चलिए मौजूदा रणजी सीजन पर आते हैं। भूल गए हों तो याद दिला दें कि यूपी ने पहले चरण में अपना अंतिम लीग मुकाबला कर्नाटक के खिलाफ लखनऊ के इकाना स्टेडियम में खेला था, जहां सिर्फ 89 रनों पर सिमटने के बाद कर्नाटक से पहली पारी में मेजबान टीम लीड खा गई थी। यूपी ने इस मैच की अगली पारी में 446 रन जरूर बनाए थे लेकिन दूसरी पारी में उसके गेंदबाज कर्नाटक के सिर्फ 5 विकेट ही गिरा पाए और यह मुकाबला फर्स्ट इनिंग में लीड लेने वाली मेहमान टीम को महत्वपूर्ण अंक दे गया था।
23 जनवरी से शुरू हो रहे दूसरे चरण में यूपी को अपने अंतिम दोनों मैच विपक्षी टीमों के विकेटों पर ही खेलने हैं। पहला मुकाबला बिहार के खिलाफ पटना के मोइनुलहक स्टेडियम में है। हालांकि इस सीजन के बारे में कुछ लिखने को बचा ही नहीं है, क्योंकि खोने को कुछ है नहीं और दोनों मैच जीत जाएं तब भी यूपी के लिए इस टूर्नामेंट में कोई क्रांति नहीं होने वाली है।
वैसे भी डर की कोई बात है ही नहीं, क्योंकि बिहार ही एकमात्र ऐसी टीम है, जो प्वाइंट टेबल में यूपी से नीचे है। बिहार का सिर्फ एक अंक है, जबकि यूपी जो सातवें नम्बर पर है, उसके 5 मैचों से 6 अंक हैं। इसके बाद यूपी को मध्य प्रदेश के खिलाफ इन्दौर के होलकर स्टेडियम में खेलना है। इसी मैच के साथ यूपीसीए की टेंशन और एक और सीजन भी खत्म। पिछले पांच मैचों से चार में यूपी की हालत रणछोड़ टीम जैसी ही रही है।
अच्छे खिलाड़ियों को न चुनना यूपी क्रिकेट को लगातार नीचे ले जा रहा है। फिक्र की बात यह है कि यूपी क्रिकेट के लिए हालात आगे भी बदलते नहीं दिख रहे हैं। इस राज्य का क्रिकेट सालों से एक ही ढर्रे पर जो चल रहा है । खिलाड़ियों को बड़े सपने बेचने के लिए अगले सीजन के पैकेज पर फिर बात शुरू हो जाएगी। पर्दे के पीछे से खेल के बड़े सौदागर अपनी तैयारी में जुट जाएंगे। उनके एजेंट यूपी के साथ ही दिल्ली एनसीआर में बड़े घरों की मछलियां फंसाने के लिए काम पर लग जाएंगे। एक कमजोर टीम फिर खड़ी हो जाएगी और यूपी का क्रिकेट इनके मकड़जाल में फंसकर अगले सत्र के अंत में भी ऐसे ही दम तोड़ रहा होगा।
दिखावे के लिए यूपीसीए कुछ कसरत जरूर करेगा। 50 लाख का कोच बदल दिया जाएगा और नये सीजन के लिए संभावनाओं की नई स्क्रिप्ट गढ़ कर और पढ़ कर सुना दी जाएगी। लेकिन बदलेगा घंटा कुछ नहीं, क्योंकि पिछले दो दशकों से यही तो हो रहा है। हैरानी की ही तो बात है जिस राज्य के पास ज्ञानेंद्र पांडेय, मोहम्मद कैफ, सुरेश रैना और आरपी सिंह जैसे पूर्व क्रिकेटर उपलब्ध हों, वहां बाहर के राज्यों से टीम पर “यस मैन” कोच थोपे जाते हैं, जो टीम सलेक्शन में मुंह सिले रहें। अपना कान्ट्रैक्ट पूरा करें, मोटी धनराशि लें और चलते बनें।
चयनकर्ताओं को जीशान अंसारी की याद तब आई जब यूपी के लिए टूर्नामेंट में कुछ भी नहीं बचा। जीशान अच्छी फाॅर्म के बावजूद चयनकर्ताओं को खुश नहीं कर सके। उनकी बजाय पीयूष चावला आईपीएल में बिक सकें, इसलिए टीम में डाला गया। यहीं से पता चल जाता है कि चयनकर्ताओं और टीम प्रबंधन की प्राथमिकता में ट्रॉफी जीतना तो टूर्नामेंट की शुरुआत से ही नहीं था। सौरभ कुमार और नीतीश राणा जैसे खिलाड़ी लगातार खराब प्रदर्शन के बावजूद टीम में शामिल रहते हैं। बाहर के खिलाड़ी टीम में घुसपैठ करते रहते हैं जबकि यूपी की प्रतिभाएं आत्महत्या करने को मजबूर हो जाती हैं। खैर! इससे किसी को क्या फर्क पड़ने वाला है। यहां तो ऐसा ही चलता रहेगा।