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भूकंप के रडार पर भारत

इतिहास के सबसे प्रसिद्ध बल्गेरियाई रहस्यवादियों में से एक, बाबा वेंगा ने भविष्यवाणी की है कि 2025 में दुनिया के विभिन्न भागों में कई शक्तिशाली भूकंप और अन्य प्राकृतिक आपदाएं आएंगी। बाबा वेंगा ने इस साल प्राकृतिक आपदाओं के कारण बड़े पैमाने पर विनाश, मौतें और जनसंख्या विस्थापन की भी भविष्यवाणी की है। नए साल के पहले ही हफ्ते में तिब्बत में आए बड़े भूकंप ने दुनिया को डरा दिया। वहीं 17 फरवरी को भूकंप के झटके दिल्ली-एनसीआर के अलावा पड़ोसी राज्यों में भी महसूस किए गए। भूकंप की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 4.0 थी और इसका केंद्र दिल्ली था। ये सब घटनाएं बाबा वेंगा की भविष्यवाणी पर मुहर लगा रही हैं। पढ़िए वरिष्ठ पत्रकार जर्यंसह रावत की यह रिपोर्ट।

हिमालय से सटे तिब्बत में तो हर रोज भूकंप के झटके महसूस हो रहे हैं। 7 जनवरी, 2025 को तिब्बत में आए भूकंप का असर भारत में भी देखने को मिला। भारत के कई राज्यों में झटके महसूस किए गये। इस भूकंप की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 7.1 मापी गई थी। इस भूकंप में तिब्बत में 126 से 400 लोग मारे गए और 338 लोग घायल हुए। फिर फरवरी के पहले ही हफ्ते हिन्दूकुश और हिमालयी क्षेत्र में भूकंप के तीन दर्जन झटके आये। इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइस्मोलॉजी के डैशबोर्ड पर नज़र डालें तो फरवरी के पहले ही सप्ताह तिब्बत में छोटे और मध्यम तीव्रता के 17 झटके आ चुके थे। उससे पहले तिब्बत वासियों ने कभी-कभी तो एक ही दिन में कई झटके महसूस किये। अभी बीती 17 फरवरी को दिल्ली-एनसीआर में कई सेकेंड तक धरती डोलती रही। अपार्टमेंट्स तक पत्ते की तरह झूलते नजर आये। खास बात यह है कि पिछले भूकंपों के उलट यह भूकंप दिल्ली में ही आया और इसकी उत्पत्ति पृथ्वी की सतह से सिर्फ 5 किमी नीचे हुई। दिल्ली-एनसीआर में एक जमाने बाद लोगों ने इतना जोरदार भूकंप महसूस किया। उन्हें धरती के अंदर से गड़गड़ाने की आवाज़ भी सुनाई दी।

इसी प्रकार उत्तराखण्ड के उत्तरकाशी में भी बार-बार आने वाले भूकंप के झटके स्थानीय निवासियों के दिल को दहला रहे हैं। इन झटकों ने सीमान्त जिले के निवासियों के दिलों में 20 अक्टूबर 1991 के उस विनाशकारी भूचाल की भयावह यादें ताजी कर दी हैं जिसमें सैकड़ों लोग मारे गये थे। दरअसल, अफगानिस्तान से लेकर पूर्वोत्तर भारत तक आ रहे ये झटके एक बहुत बड़े गंभीर खतरे का ही संकेत हैं और इस संकेत को बेहद गंभीरता से लिया जाना चाहिये क्योंकि भूवैज्ञानिक मान रहे हैं कि इस क्षेत्र में सौ साल से अधिक समय से कोई बड़ा भूकंप नहीं आने के कारण यहां कभी भी भूगर्भ में जमी ऊर्जा भयंकर भूकंप के साथ बाहर निकल सकती है। इसे देखकर लगता है कि मशहूर रहस्यवादी बाबा वेंगा की कुछ भविष्यवाणियां समय से पहले ही सच होने लगी हैं।

खतरे के जोन में पूरा हिमालय
नेशनल सेंटर फॉर सिस्मोलॉजी ने 1 दिसंबर से 31 दिसंबर 2024 की अवधि में भूकंपों की कुल संख्या 129 रिकार्ड की है, जिनमें से 121 भूकंप भारत और इसके पड़ोसी क्षेत्रों में आए। इस दौरान भारत और उसके आसपास के क्षेत्रों में अधिकांश भूकंर्प ंहदूकुश क्षेत्र, उत्तर भारत (जम्मू-कश्मीर, लद्दाख, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड) और पूर्वोत्तर भारत (अरुणाचल प्रदेश, असम, मेघालय, मणिपुर, नागालैंड और त्रिपुरा) में दर्ज किए गए। कुछ छोटे भूकंप हरियाणा के सोनीपत, गुजरात के कच्छ, तेलंगाना के मुलुगु और महबूब नगर, मध्य प्रदेश के सिंगरौली और उत्तर प्रदेश के सोनभद्र तथा ओडिशा के कालाहांडी और नयागढ़ में भी दर्ज किए गए। इस दौरान भारत में कुल 44 भूकंप दर्ज किए गए, जिनमें से 6 मणिपुर में और 5-5 भूकंप असम और उत्तराखंड में आए। 17 उत्तर भारत और 20 पूर्वोत्तर भारत में दर्ज किए गए। 1 दिसंबर से 31 दिसंबर 2024 के दौरान देश के मध्य, पश्चिमी और दक्षिणी भागों में भूकंपीय गतिविधि अपेक्षाकृत कम रही।

भारतीय उपमहाद्वीप जोर मारता है तिब्बत पर
तिब्बत या यूरेशियन प्लेट का भूकंपों के कारण इतना अधिक अशांत हो जाना हिमालय वासियों के लिए इसलिये भी बड़े खतरे की चेतावनी है, क्योंकि हिमालय के कारण ही तिब्बत अशांत हो रहा है। हिमालय भौगोलिक दृष्टि से सीधे यूरेशियन प्लेट या तिब्बत के मजबूत पठार से लगा हुआ है। भारतीय प्लेट के उत्तर की ओर खिसकने और यूरेशियन प्लेट से टकराने के कारण ही टेथिस सागर के स्थान पर हिमालय जैसा पहाड़ खड़ा है। गौरतलब है कि तिब्बत वाला हिस्सा पुराना, बेहद मजबूत और स्थिर है, जबकि उत्तर की ओर खिसकने वाला भारतीय उपमहाद्वीप वाला भूखण्ड कमज़ोर है। यूरेशियन प्लेट पर लगातार दबाव डालने की वजह से भारतीय प्लेट यूरेशियन प्लेट को नीचे धकेलती जा रही है और हिमालय की ऊंचाई बढ़ रही है। वहीं इस टकराव से भूगर्भ में चट्टानों के टूटने और घर्षण से निरन्तर भूगर्भीय ऊर्जा जमा हो रही है। धरती के गर्भ में चट्टानों के टूटने और खिसकने से धरती तो हिलती ही है, लेकिन जब भूगर्भीय ऊर्जा बाहर निकलती है तो उससे भी धरती डोलती है। दरअसल यही भूकंप धरती के अन्दर की ऊर्जा को बाहर निकालते हैं लेकिन काफी समय से बड़ा भूकंप न आने के कारण धरती के अन्दर काफी ऊर्जा संचित हो चुकी है। भूवैज्ञानिकों के अनुसार छोटे और मध्यम तीव्रता के भूकंप बहुत कम ऊर्जा को बाहर निकालते हैं जबकि बड़ी मात्रा में ऊर्जा भूगर्भ में ही रह जाती है। वैज्ञानिक मानते हैं कि जमा हुई ये ऊर्जा कई एटम बमों से भी अधिक शक्तिशाली है और अगर कहीं अधिक मात्रा में यह ऊर्जा एक साथ बाहर निकली तो उससे होने वाले विनाश की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। इसलिए सावधानी और सतर्कता में ही हमारी खैरियत है।

सबसे ज्यादा नुकसान उत्तरकाशी में
जनपद उत्तरकाशी को भूकंप के लिहाज से बेहद संवेदनशील माना जाता है। यह क्षेत्र जोन-पांच में आता है। यहां अक्सर भूकंप के झटके महसूस होते हैं। वर्ष 2022 में 12 बार भूकंप के झटके महसूस किए गए। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर के सिविल इंजीनिर्यंरग विभाग के डॉ. सुधीर के. जैन, डॉ. आर.र्पी. ंसह, डॉ.वी.के. गुप्ता, और अमित नागर के एक शोध पत्र के अनुसार 20 अक्टूबर 1991 को, स्थानीय समयानुसार सुबह 2.53 बजे उत्तरकाशी जिले में एक भूकंप आया। इस भूकंप के कारण उत्तराखंड के उत्तरकाशी, टिहरी और चमोली जिलों में जबरदस्त झटके महसूस किए गए। इसमें सर्वाधिक नुकसान उत्तरकाशी में ही हुआ था। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, इस भूकंप से 1,294 गांवों में लगभग 3,07,000 लोग प्रभावित हुए, 768 लोगों की मृत्यु हुई और 5,066 लोग घायल हुए। इसके अलावा, भूकंप के कारण 3,096 पशुओं की मौत हो गई और 42,400 मकान क्षतिग्रस्त हो गए। भूकंप के कारण उत्तरकाशी और गंगोत्री के बीच की सड़कें भी बाधित हो गईं लेकिन यह तो बीती सदी की बात हो गई। नई सदी में हमें ज्यादा अलर्ट रहने की ज़रूरत है।

विनाशकारी साबित हुए हैं भूकंप
प्रकृति के साथ छेड़छाड़ का नतीजा है कि हमें भूकंप और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं से दो-चार होना पड़ रहा है। अगर हम प्रकृति के साथ जीना सीख लें, उसके साथ तालमेल बना लें तो क्या ही भूचाल या क्या ही बाढ़? हम इन आपदाओं की विभीषिका से बच सकते हैं। 30 सितंबर 1993 को महाराष्ट्र के लातूर क्षेत्र में 6.2 मैग्नीट्यूड का भूकंप आया था। उसमें लगभग 10 हजार लोग मारे गये और 30 हजार से अधिक लोग घायल हुए, साथ ही 1.4 लाख लोग बेघर हुए थे। जबकि 28 मार्च 1999 को चमोली में लातूर से भी अधिक तीव्रता वाला 6.8 मैग्नीट्यूड का भूकंप आया था लेकिन उसमें केवल 103 लोगों की जानें गईं और 50 हजार मकान क्षतिग्रस्त हुए। 20 अक्टूबर 1991 के उत्तरकाशी में आए भूकंप में 786 लोग मारे गये और 42 हजार मकान क्षतिग्रस्त हुए जबकि वह चमोली के भूकंप से छोटा केवल 6.1 मैग्नीट्यूड का ही भूकंप था।
इसी तरह जब 26 जनवरी 2001 को गुजरात के भुज में रिक्टर पैमाने पर 7.7 मैग्नीट्यूड का भूकंप आया और उसमें कम से कम 20 हजार मारे लोग गये, 1.67 लाख लोग घायल और 4 लाख लोग बेघर हुए थे। 1 मार्च, 2011 को उत्तरी जापान में 9.0 तीव्रता का तोहोकू भूकंप और उसके बाद आई सुनामी ने तबाही मचाई। फिर भी वहां केवल 15,891 लोग मारे गए। इस विनाशलीला के साथ तीसरा संकट परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के क्षतिग्रस्त होने से विकिरण का रिसाव था। अगर ऐसा तिहरा संकट भारत जैसे देश में आता तो करोड़ों लोग जान गंवा बैठते। नेपाल में ही देखिये, वहां सबसे अधिक तबाही काठमांडू में हुई क्योंकि देश की राजधानी होने के नाते वहां आबादी का घनत्व सबसे ज्यादा है। साथ ही वहां इमारतें भी औसतन अन्य हिस्सों की तुलना में ज्यादा और गगनचुंबी हैं। धरहरा टॉवर इसका एक उदाहरण है।

खतरे में हैं मसूरी-नैनीताल
उत्तराखंड में भी मसूरी, नैनीताल और देहरादून जैसे नगरों पर सबसे अधिक खतरा मंडरा रहा है। ये सभी नगर जोन चार में आते हैं। राज्य के आपदा प्रबंधन विभाग द्वारा किये गये एक सर्वेक्षण में कहा गया है कि मसूरी और नैनीताल में सैकड़ों मकान सन् 1900 से पहले के बने हुए हैं। अगर यहां लगभग 6 मैग्नीट्यूड या उससे थोड़ा ज्यादा तीव्रता का भूकंप आता है तो वहां कम से कम 18 प्रतिशत पुराने जीर्ण-शीर्ण मकान जमींदोज हो सकते हैं। नैनीताल के 13 आवासीय वार्डों के 3110 मकानों पर किये गये ताजा सर्वेक्षण के अनुसार वहां बड़े भूकंप की स्थिति में 396 मकान अति जोखिम वाली श्रेणी यानी 5 और 4 में पाये गये हैं। इनमें से 92 प्रतिशत 1950 से पहले के बने हुए हैं। अगर ये मकान ढह गये तो सरोवर नगरी मलवे में बदल जायेगी। देहरादून में भी खुड़बुड़ा और चक्खूवाला जैसे ऐसे क्षेत्र हैं जहां जनसंख्या का घनत्व बहुत अधिक है और अगर कभी काठमांडू जैसी नौबत आती है तो कई दिनों तक रेस्क्यू वर्कर अंदर के क्षेत्रों तक नहीं पहुंच पायेंगे। उत्तरकाशी, चमोली व पिथौरागढ़ की तरह सूबे की राजधानी भी भूकंप की दृष्टि से अति संवेदनशील है। इसकी वजह है दून से गुजरने वाले दो बड़े सक्रिय फॉल्ट। ये हैं मेन बाउंड्री थ्रस्ट (एमबीटी) और मेन फ्रंटल थ्रस्ट (एमएफटी)। भू-वैज्ञानिकों के मुताबिक दोनों सक्रिय थ्रस्ट राजपुर रोड के आसपास एक-दूसरे से करीब 10-12 किमी की दूरी पर गुजरते हैं।

जापानियों ने सीख लिया है भूकंपों के साथ जीना
अगर आप जापान में भूकंपों का इतिहास टटोलें तो वहां बड़े से बड़े भूचाल भी मानवीय हौसले को डिगा नहीं पाये। जापान में 26 नवम्बर सन् 684 (जूलियन कैलेंडर) से लेकर अब तक रिक्टर पैमाने पर 7 से लेकर 9 मैग्नीट्यूड तक के दर्जनों भूचाल आ चुके हैं। आपदा प्रबंधकों के अनुसार इस मैग्नीट्यूड के भूकंप काफी जान-माल को क्षति पहुंचाने वाले होते हैं। खासकर रिक्टर पैमाने पर 8 या उससे बड़े मैग्नीट्यूड के भूकंपों को भयंकर माना जाता है। 9 और उससे अधिक के भूचालों को तो प्रलयकारी माना ही जाता है। फिर भी जपान में जान की हानि बहुत कम होती है। सन् 1950 के बाद जापान में आये भूकंपों पर अगर नज़र डालें तो सन् 1952 से लेकर अब तक जापान में रिक्टर पैमाने पर 7 से लेकर 9 मैग्नीट्यूड तक के 31 बड़े भूचाल आ चुके हैं। उनके अलावा 4 या उससे कम मैग्नीट्यूड के भूकंप तो वहां लोगों की डेली रूटीन का पार्ट बन चुके हैं। इन भूकंपों में से टोहोकू के भूकंप और सुनामी के अलावा वहां कोई बड़ी मानवीय त्रासदी नहीं हुई। वहां 25 दिसंबर 2003 को होक्कैडो में 8.3 मैग्नीट्यूड का भयंकर भूचाल आया फिर भी उसमें मरने वालों की संख्या केवल एक थी। इतनी बड़ी तीव्रता वाले 7 भूकंप ऐसे थे जिनमें एक भी जान नहीं गयी। जाहिर है कि जापान के लोग भूकंप ही नहीं बल्कि प्रकृति के कोपों के साथ जीना सीख गये हैं। वहां के लोगों ने प्रकृति को अपने हिसाब से ढालने का दुस्साहस करने के बजाय स्वयं को प्रकृति के अनुसार ढाल लिया है।

भारत में जोन चार में ज्यादा तबाही की आशंका
भूकंप की संवेदनशीलता के अनुसार भारत को 5 जोनों में बांटा गया है। इनमें सर्वाधिक संवेदनशील जोन ‘पांच’ माना जाता है जिसर्में ंसधु से लेकर ब्रह्मपुत्र तक का सम्पूर्ण भारतीय हिमालय क्षेत्र है। वैसे देखा जाय तो अफगानिस्तान से लेकर भूटान तक का संपूर्ण हिमालयी क्षेत्र भारतीय उप महाद्वीप के उत्तर में यूरेशियन प्लेट के टकराने से भूगर्भीय हलचलों के कारण संवेदनशील है। इनके अलावा रन ऑफ कच्छ भी इसी जोन में शामिल है। लेकिन इतिहास बताता है कि भूचालों से जितना नुकसान कम संवेदनशील ‘जोन चार’ में होता है, उतना जोन पांच में नहीं होता। उसका कारण भी स्पष्ट ही है। जोन पांच वाले हिमालयी क्षेत्र में जनसंख्या का घनत्व बहुत कम है जबकि जोन चार और उससे कम संवेदनशील क्षेत्रों में जनसंख्या का घनत्व बहुत अधिक है। यही नहीं, हिमालयी क्षेत्र में अधिकांश लोगों के घर हजारों सालों के अनुभवों के आधार पर परंपरागत स्थापत्य कला के अनुसार बने होते हैं। इन हिमालयी क्षेत्र में जनसंख्या भी काफी विरल होती है। इसलिये यहां जनहानि भी काफी कम होती है। त्रिपुरा को छोड़ कर ज्यादातर हिमालयी राज्यों का जनसंख्या घनत्व 125 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी से भी कम है। अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम का जनसंख्या घनत्व तो 50 से भी कम है। उत्तराखंड में ही जहां उच्च हिमालय स्थित सीमांत जिला चमोली का जनसंख्या घनत्व 49 और उत्तरकाशी का 41 है, वही मैदानी भाग हरिद्वार का 817 और उधर्मंसहनगर का 648 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी है। अगर कभी काठमांडू जैसी भूकंप आपदा आती है तो भूकंपीय दृष्टि से अति संवेदनशील सीमांत जिलों से अधिक नुकसान मैदानी जिलों में हो सकता है।

भूकंप घातकता का नक्शा अभी बनना बाकी
देखा जाय तो हमने अभी कोसी की बाढ़, सन् 2004 की सुनामी और लातूर और भुज की भूकंपीय आपदा से सबक नहीं सीखा। हमारे देश में भूकंपीय संवेदनशीलता को देखते हुए जोन के अनुसार वर्गीकरण तो कर दिया है लेकिन घातकता का नक्शा अभी तक नहीं बना। आम आदमी तो सुरक्षा मानकों की उपेक्षा करता ही है, लेकिन सरकार की ओर से भी इस संबंध में ज्यादा जागरूकता नहीं दिखाई जाती। ज्यादातर राज्यों में स्कूल-कॉलेजों और अस्पतालों का निर्माण भूकंपीय संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए नहीं किया जाता है। ज्यादातर सरकारी र्बिंल्डगों के निर्माण में भी भूकंपरोधी मानकों की उपेक्षा की जाती है। पुराने सरकारी भवन तो मामूली झटके से भरभरा सकते हैं। उत्तराखंड में जब देश का पहला आपदा प्रबंधन मंत्रालय बना था तो यहां भवनों के नक्शे पास कराने में भूकंपरोधी मानकों को भी शामिल करने के साथ ही कानून बनाने की घोषणा भी की गयी थी लेकिन ऐसा प्रावधान कभी बना ही नहीं। सिन्धु से लेकर ब्रह्मपुत्र के बीच के सभी राज्यों में अब परंपरागत ढंग से मकान निर्माण नहीं हो रहा है बल्कि मैदानी इलाकों की नकल कर सीमेंट कंक्रीट के मकान बन रहे हैं, जो कि भूकंपीय दृष्टि से बेहद खतरनाक हैं।

कौन हैं बाबा वेंगा
प्रसिद्ध बल्गेरियाई रहस्यवादी बाबा वेंगा का जन्म 1911 में उत्तरी मैसेडोनिया में हुआ था। महज 12 साल की उम्र में वेंगा ने अपनी आंखें खो दीं। इसके बाद वह छोटी-छोटी भविष्यवाणी करने लगीं, जो सच होने लगीं। जल्द ही वह आसपास के इलाके में प्रसिद्ध हो गईं। धीरे-धीरे वह बुल्गारिया में एक रहस्यवादी और हर्बलिस्ट के रूप में प्रसिद्ध हो गईं। उनका दावा था कि जिस तूफान के कारण वह अंधे हो गई थीं, उसके आघात ने उन्हें भविष्य की घटनाओं को देखने की क्षमता दी। उन्होंने कई भविष्यवाणियां कीं जिनमें से कई बेहद सटीक साबित हुईं। जल्द ही वह ‘बाल्कन का नास्त्रेदमस’ के नाम से सारी दुनिया में मशहूर हो गईं। वेंगा ने अमेरिका में 9/11 हमले, 2000 में कुस्र्क पनडुब्बी आपदा और ग्लोबल वार्मिंग से जुड़े जलवायु परिवर्तन के बारे में भविष्यवाणी की थी जो सही साबित हुई। उन्होंने संभावित तृतीय विश्व युद्ध की भी चेतावनी दी है और 2025 में वैश्विक संघर्ष की उनकी भविष्यवाणी को इन दिनों विश्वभर में हो रहे घटनाक्रम के कारण अधिक तवज्जोह मिल रही है। प्रसिद्ध बल्गेरियाई रहस्यवादी बाबा वेंगा ने 2025 में बड़े भूकंप से भारी तबाही और इस साल सीरिया के पतन की भविष्यवाणी की है। उनकी इन भविष्यवाणियों ने कई लोगों को चिंतित कर दिया है। जब दुनिया इज़रायल-फिलिस्तीन के बीच चल रहे संघर्ष, रूस-यूक्रेन युद्ध और सीरिया में अशांति जैसे बढ़ते संकटों को देख रही है, तो वेंगा की भविष्यवाणी पहले से कहीं ज़्यादा प्रासंगिक लगती है। उनकी भविष्यवाणी है- ‘जब सीरिया गिरेगा, तो पश्चिम और पूर्व के बीच एक बड़ा युद्ध छिड़ जाएगा। बसंत में, पूर्व में संघर्ष भड़केगा, जिससे तीसरा विश्व युद्ध शुरू होगा- एक ऐसा युद्ध जो पश्चिम को नष्ट कर देगा’ उनकी भविष्यवाणियों में एक रहस्यमय संदेश भी शामिल है- ‘सीरिया विजेता के चरणों में गिर जाएगा, लेकिन विजेता वह नहीं होगा।’

खतरे वाले 5 जोन
भारत में भूकंपीय क्षेत्रों की अलग-अलग कैटेगरी बनाई गई है। इसे जोखिम के आधार पर एक से पांच जोन में बांटा गया है।
जोन 1 : चूंकि भारत के भूकंप प्रभावित क्षेत्रों में वर्तमान विभाजन जोन 1 का उपयोग नहीं करता है, इसलिए इसके किसी भी क्षेत्र को जोन 1 के रूप में वर्गीकृत नहीं किया गया है।
जोन 2 : जोन 2 को कम क्षति व जोखिम वाले क्षेत्र के रूप में वर्गीकृत किया गया है। यह भूकंप की कम संभावना वाला क्षेत्र है। इसमें बैंगलोर, हैदराबाद, कोरोमंडल तट, मध्य भारत का कुछ क्षेत्र और तिरुचिरापल्ली जैसे शहर शामिल हैं।
जोन 3 : इस क्षेत्र को मध्यम क्षति व जोखिमभरे क्षेत्र के रूप में वर्गीकृत किया गया है। इसमें समुद्र के किनारे बसे चेन्नई, मुंबई, कोलकाता और भुवनेश्वर जैसे कई बड़े शहर आते हैं।
जोन 4 : इस क्षेत्र को सबसे ज्यादा जोखिम वाला क्षेत्र कहा जाता है। जोन 4 में जम्मू और कश्मीर, लद्दाख, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम, भारत-गंगा के मैदानी हिस्से जैसे उत्तरी पंजाब, चंडीगढ़, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, तराई, बिहार का एक बड़ा हिस्सा, उत्तरी बंगाल, सुंदरवन और देश की राजधानी दिल्ली आती है।
जोन 5 : जोन 5 में अधिक तीव्रता वाले भूकंपों का सबसे अधिक जोखिम है। इसमें कश्मीर के क्षेत्र, पश्चिमी और मध्य हिमालय, उत्तर और मध्य बिहार, उत्तर-पूर्वी भारतीय क्षेत्र, कच्छ का रण और अंडमान व निकोबार द्वीप समूह आते हैं।

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