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काशी में त्रिपिंडी श्राद्ध : पितरों की मुक्ति और वंशजों का कल्याण

काशी, जिसे अनंत मुक्तिधाम कहा जाता है, भारतीय संस्कृति और धर्म के गहन रहस्यों का केंद्र है। यहां का पिशाचमोचन कुंड विशेष रूप से पितरों की शांति और मोक्ष के लिए प्रसिद्ध है। इसी कुंड पर संपन्न होने वाला त्रिपिंडी श्राद्ध अपने आप में अद्वितीय है, जो न केवल पितरों को प्रेतबाधा और अकाल मृत्यु की पीड़ा से मुक्त करता है, बल्कि वंशजों को भी पितृ ऋण से मुक्ति प्रदान करता है. मतलब साफ है काशी केवल भारत ही नहीं, बल्कि समूचे विश्व के हिंदुओं के लिए मोक्षधाम है। यहां मृत्यु होने पर महादेव स्वयं आत्मा को मुक्त करते हैं। पिशाचमोचन कुंड में त्रिपिंडी श्राद्ध कराने से पितरों को शीघ्र मुक्ति मिलती है। विदेशी हिंदू भी अपने पितरों का श्राद्ध कराने काशी आते हैं। यह अनुष्ठान पीढ़ियों के लिए आध्यात्मिक सेतु का कार्य करता है।

सुरेश गांधी

वाराणसी : केवल एक नगर नहीं, बल्कि वह तीर्थ है जहां जीवन और मृत्यु की सीमाएं धुंधली हो जाती हैं। यहां मृत्यु कोई भय का विषय नहीं, बल्कि मुक्ति का उत्सव है। काशी में अंतिम प्राण त्यागने वाला शिव की करुणा का अधिकारी बनता है। मतलब साफ है काशी में मृत्यु स्वयं महाकालेश्वर शिव के अधीन है। यहां कालभैरव रक्षक हैं और विश्वनाथ मुक्तिदाता। स्कंद पुराण कहता है कि काशी वह भूमि है जहां मृत्यु भी मोक्षदायिनी हो जाती है। इसी काशी में एक अद्भुत स्थल है, पिशाचमोचन कुंड। यह केवल जल का स्रोत नहीं, बल्कि शास्त्रों में वर्णित उन दुर्लभ तीर्थों में से एक है, जहां पितरों की प्रेतबाधा और अकाल मृत्यु से पीड़ित आत्माओं की मुक्ति का उपाय मिलता है।

श्राद्ध और पिंडदान की परंपरा भारत की आत्मा में रची-बसी है। क्योंकि हमारे ऋषियों ने माना कि जीवित पीढ़ियां केवल अपनी मेहनत से नहीं, बल्कि पूर्वजों के आशीर्वाद से भी फलती-फूलती हैं। यदि पितरों की आत्मा असंतुष्ट हो, तो वह वंशजों के जीवन में बाधा डालती है। इसी पितृ शांति के लिए त्रिपिंडी श्राद्ध का विधान है, और वह भी विशेष रूप से काशी के पिशाचमोचन कुंड पर। लोकश्रुति है कि गंगा जब तक धरती पर नहीं उतरी थी, तब तक काशी के इस कुंड का जल पितरों की तृप्ति का साधन बना हुआ था। यह कुंड मानो देवताओं की करुणा का मूर्त रूप है, जिसने मृतात्माओं को मुक्ति का मार्ग दिखाया।

कुंड के पास स्थित है एक प्राचीन पीपल वृक्ष। इस वृक्ष की जड़ में सिक्का अर्पित करने की परंपरा है। विश्वास है कि यह सिक्का केवल धातु का टुकड़ा नहीं, बल्कि पितृऋण से मुक्ति का प्रतीक है। जैसे ही यजमान सिक्का अर्पित करता है, पितर संतुष्ट हो जाते हैं और उनके आशीर्वाद से कुल में शांति और समृद्धि लौट आती है। शास्त्रों में कहा गया है कि यह स्थल इतना पवित्र है कि स्वयं प्रेतात्माएं भी यहां आकर अपनी व्यथा का अंत करती हैं। यही कारण है कि इसे पिशाचमोचन कहा गया, अर्थात वह स्थान जहां प्रेतबाधा समाप्त होती है। वैसे भी श्राद्ध केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि स्मृति और कृतज्ञता का संस्कार है। पीढ़ियों को जोड़ने वाली आध्यात्मिक डोर है। ब्राह्मण भोज और दान से सामाजिक समरसता बढ़ती है। यही वजह है महाकवियों और पुराणों में भी पितृकर्म को धर्म और नीति का अंग बताया गया है. कालिदास ने रघुवंश में पितरों को अन्न-जल अर्पित करने का उल्लेख किया है। तुलसीदास ने रामचरितमानस में श्राद्ध को धर्म और नीति का अंग बताया। लोकगीतों और कथाओं में पितृपक्ष को ‘कातिके बरखा’ की तरह भावुकता से जोड़ा गया है।

त्रिपिंडी श्राद्ध केवल पूर्वजों की आत्मा की शांति नहीं कराता, बल्कि वंशजों को भी पितृ ऋण से मुक्ति दिलाता है। यह संस्कार जीवन और मृत्यु के बीच सांस्कृतिक सेतु का काम करता है। काशी के पिशाचमोचन कुंड में होने वाला त्रिपिंडी श्राद्ध पितरों की संतुष्टि और वंशजों के जीवन में सुख-शांति सुनिश्चित करता है। यह हमें हमारी जड़ों से जोड़ता है, कृतज्ञता का पाठ पढ़ाता है और भविष्य की पीढ़ियों के कल्याण का मार्ग दिखाता है. इस कर्मकांड में तीन पीढ़ियों के पिंडदान का दिव्य अनुष्ठान होता है. तीन पिंड, तीन ध्वज और तीन देवता : ब्रह्मा, विष्णु और महेश की विशेष साधना की जाती है. त्रिपिंडी श्राद्ध विशेषतः उन पितरों की शांति हेतु किया जाता है, जिनकी अकाल मृत्यु हुई हो या जिनका विधिपूर्वक श्राद्ध-संस्कार न हो पाया हो। इसका विधान गृह्यसूत्रों से लेकर पुराणों तक में विस्तृत रूप से वर्णित है।

काशी में पिशाचमोचन कुंड का उल्लेख सबसे पवित्र स्थलों में होता है। मान्यता है कि यहां किया गया त्रिपिंडी श्राद्ध पितरों को पिशाचयोनि से मुक्त कर देता है और उन्हें परमगति प्रदान करता है। यहां हर साल भाद्रपद शुक्ल पक्ष से पितृपक्ष तक दूर-दराज़ से लोग पिंडदान हेतु पहुंचते हैं। काशी खंड में वर्णित है कि यहां एक बार किया गया श्राद्ध पितरों को अनंत तृप्ति प्रदान करता है। त्रिपिंडी श्राद्ध में तीन पिंड बनाए जाते हैं- एक पितरों के लिए, दूसरा मातामह कुल के लिए, और तीसरा अनजाने पितरों (अज्ञात, अपुत्रिक, अकाल मृत) के लिए। इनमें जौ, तिल, कुशा और जल मिलाकर अर्पण किया जाता है। साथ ही, ब्राह्मणों को भोजन और दक्षिणा देकर श्राद्ध पूर्ण किया जाता है। इस कर्म से पितरों की आत्मा को शांति और वंशजों को सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।

त्रिपिंडी और नारायण बलि दोनों ही कर्म अकाल मृत्यु या अधूरे संस्कारों की शांति के लिए होते हैं, किंतु दोनों में अंतर है। नारायण बलि में विष्णु स्वरूप नारायण को विशेष बलि अर्पित कर पितरों की मुक्ति कराई जाती है, जबकि त्रिपिंडी में तीन पिंड अर्पण कर पितरों का पिशाचयोनि से उद्धार कराया जाता है। गया में पिंडदान की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। गयामाहात्म्य में वर्णन है कि स्वयं भगवान राम और श्रीकृष्ण ने भी यहां पितृकर्म किया था। दूसरी ओर काशी को मुक्तिक्षेत्र कहा गया है। यहां पितृकर्म करने से पितरों की मोक्षप्राप्ति के साथ-साथ पितृऋण से मुक्ति भी मिलती है। इसीलिए श्रद्धालु प्रायः काशी और गया दोनों स्थानों पर पिंडदान की परंपरा निभाते हैं।

आज भी प्रवासी भारतीय विशेषत: अमेरिका, यूरोप और मॉरीशस जैसे देशों से काशी व गया आकर त्रिपिंडी श्राद्ध करते हैं। यह केवल धार्मिक आस्था नहीं, बल्कि अपनी जड़ों से जुड़े रहने की चेतना भी है। श्राद्ध पर्व के समय काशी की गलियां और घाट पितृमोक्ष की प्रार्थनाओं से गूंज उठती हैं। त्रिपिंडी श्राद्ध केवल पितरों की तृप्ति का अनुष्ठान नहीं, बल्कि वंशजों के लिए कर्तव्य का स्मरण भी है। यह परंपरा सिखाती है कि जीवन का अर्थ केवल वर्तमान में सुख भोगना नहीं, बल्कि अतीत और भविष्य के बीच सेतु बनना है। “पितरों की तृप्ति ही वंशजों का कल्याण है।”

कौन कर सकता है त्रिपिंडी श्राद्ध?
ज्येष्ठ पुत्र, पौत्र, भ्राता या निकट संबंधी, अविवाहित पुरुष और पति-पत्नी जोड़ी, विधुर पुरुष व आवश्यक स्थिति में कन्या या पुत्री भी कर सकती है. किंतु महिलाओं द्वारा अकेले यह श्राद्ध करने की परंपरा नहीं है। यह अनुष्ठान उन परिवारों के लिए विशेष आवश्यक है जिस व्यक्ति के कुल में पितृदोष है, अथवा जिसकी वंश परंपरा में अकाल मृत्यु की घटनाएं अधिक हुई हों, उसे जीवन में एक बार अवश्य त्रिपिंडी श्राद्ध कराना चाहिए।

त्रिपिंडी का फल
कुल में पितृदोष का शमन होता है। परिवार में संतान, स्वास्थ्य और समृद्धि का आशीर्वाद मिलता है। वंश में अकाल मृत्यु और संकट दूर होते हैं। आत्मा और पूर्वजों के बीच अदृश्य बंधन मजबूत होता है। पितरों की तृप्ति से कुल की ऊर्जा संतुलित होती है, परिवार में शांति आती है और संतान के जीवन में नई दिशाएं खुलती हैं। धर्मग्रंथों में कहा गया है कि त्रिपिंडी श्राद्ध करने वाला अपने पितरों को ‘स्वर्ग मार्ग’ का दीप देता है।

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