
सृष्टि की प्रथम किरण से प्रलय तक अमर है मां विन्ध्यवासिनी का त्रिकोण
मां विन्ध्यवासिनी केवल एक तीर्थ नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति की उस शाश्वत धारा का प्रतीक हैं, जो भौतिक और आध्यात्मिक दोनों लोकों को एक साथ जोड़ती है। इस पुण्यभूमि में एक ऐसा अनुभूति है, जहां भक्ति और प्रकृति, कथा और इतिहास, पर्वत और गंगा, सब मिलकर यह कह उठते हैं : “मां विन्ध्यवासिनी की महिमा अनादि है, अनंत है, और युगों तक अमर रहेगी।” गंगा की कलकल ध्वनि, घंट-घड़ियालों की गूंज और धूप-आरती की सुगंध में डूबा विन्ध्याचल आज भी साधक को वह अनुभूति देता है जहां समय ठहर जाता है। यहां शक्ति और शिव का संगम है, जहां हर भक्त का मस्तक स्वतः झुक जाता है। मान्यता है कि सृष्टि के प्रारंभ से लेकर प्रलय तक इस धाम का अस्तित्व अविनाशी रहेगा। यहां आने वाला हर श्रद्धालु न केवल मनोकामना पूर्ण करता है, बल्कि अपने भीतर छिपी दिव्यता को भी पहचानता है। यही कारण है कि विन्ध्याचल धाम युगों-युगों से भक्तों, साधकों और तांत्रिकों का अद्वितीय केंद्र बना हुआ है।
–सुरेश गांधी
उत्तर प्रदेश के मिर्ज़ापुर में गंगा की पावन लहरियों और विंध्य पर्वतमाला की गोद में अवस्थित विन्ध्याचल धाम, भारत की सनातन परंपरा का ऐसा दिव्य स्थल है, जहां आस्था, तांत्रिक साधना और आध्यात्मिक चेतना का अद्भुत संगम साक्षात् अनुभव किया जा सकता है। शास्त्रों में वर्णित 51 शक्तिपीठों में यह अकेला धाम है, जिसे पूर्णपीठ कहा गया है, क्योंकि यहां मां भगवती के किसी अंग की नहीं, बल्कि संपूर्ण विग्रह की पूजा होती है। यही अद्वितीयता विन्ध्याचल को अन्य सभी शक्तिपीठों से विलग करती है। पुराणों में वर्णित है कि सृष्टि के आरंभ से पहले और प्रलय के पश्चात् भी इस क्षेत्र का अस्तित्व अक्षुण्ण रहेगा। शिवपुराण में मां विंध्यवासिनी को सती स्वरूप माना गया है, जबकि श्रीमद्भागवत में उन्हें नंदजा देवी कहा गया है। कभी कृष्णानुजा तो कभी वनदुर्गा, शास्त्रों में इनके अनेक नाम मिलते हैं। आस्थावान श्रद्धालु मानते हैं कि यह वही त्रिकोण है, जहां महालक्ष्मी, महाकाली और महासरस्वती तीनों रूपों में देवी विराजमान हैं। त्रिकोण यंत्र पर स्थित यह धाम सृष्टि के उद्भव, स्मृति और संहार का प्रतीक है। खास यह है कि त्रिकोण पीठ पर विराजती मां के तीन स्वरूप महाकाली, महासरस्वती और महालक्ष्मी, भक्तों को लौकिक और अलौकिक दोनों सुख प्रदान करते हैं। मंदिर के गर्भगृह में पंचमुखी महादेव का अलौकिक दर्शन, अखंड ज्योति से दीप्त कुंड और लघु त्रिकोण परिक्रमाकृसब कुछ मानो साधक को सिद्धि का निमंत्रण देता है।
मंदिर के आंगन में विशाल नीम का वृक्ष विशेष श्रद्धा का विषय है। जनमान्यता है कि मां यहीं चूड़ा छोड़ती हैं। श्रद्धालु इसी नीम के तले चंदन घिसकर मां के श्रृंगार के लिए अर्पित करते हैं। मां के द्वार पर स्थापित गणेशजी की आराधना के बाद ही मुख्य श्रृंगार और आरती का विधान है। परिक्रमा पथ पर भक्त धागा बांधकर अपनी मनोकामना व्यक्त करते हैं। पुराणों में विन्ध्याचल को शक्तिपीठ, सिद्धपीठ और मणिपीठ कहा गया है। चूणामणि पुराण में 51 शक्तिपीठ और श्रीमद्भागवत में 108 पीठों का उल्लेख है, जिनमें विन्ध्याचल का महत्व सर्वोपरि है। शास्त्र कहते हैं,
“विन्ध्य क्षेत्रे समं क्षेत्रं, नास्ति ब्रह्मांड गोलके।
विन्ध्य क्षेत्रं परम् दिव्यं, पावनं मंगलं प्रदत।।”
अर्थात् ब्रह्मांड में विन्ध्याचल जैसा पावन क्षेत्र और कोई नहीं। भक्तों का विश्वास है कि मां के द्वार पर एक बार जो आ जाता है, उसका पुनः कहीं और मन नहीं लगता। दरबार में नित्य होने वाली मां के चारों रूपों की आरती का दर्शन मात्र से हजार अश्वमेघ यज्ञ के बराबर फल की प्राप्ति होती है। साधक यहां हलवे का प्रसाद बनाकर लाते हैं और मंदिर परिसर में वितरित करते हैं। काशी के भोलेनाथ और प्रयागराज के विष्णुधाम के मध्य स्थित यह क्षेत्र पतित पावनी गंगा और शक्तिरूपी मां विन्ध्यवासिनी के कारण स्वतः पवित्र हो उठता है। घंट-घड़ियालों के संगीतमय स्वर से गूंजता यह धाम मन को एक अद्भुत शांति प्रदान करता है। चारों पहर की आरती में चार पुरुषार्थों का सार छुपा है। ब्रह्ममुहूर्त की मंगला आरती में बाल्यावस्था की कोमल आभा धर्म का वर देती है। दोपहर की राजश्री आरती में युवा राजेश्वरी का तेज अर्थ और वैभव का आशीष लुटाता है। सांझ की छोटी आरती संतान और वंशवृद्धि का वर देती है, और रात की शयन आरती मोक्ष का मार्ग खोलती है। आरती की लौ में ऐसा प्रकाश है जो जीवन के अंधेरे को हर लेता है। यहां का हर शिला, हर जलधारा, हर पगडंडी पुराणों की स्मृति से भरी है। कहा जाता है कि जब सती का शरीर सुदर्शन चक्र से विखंडित हुआ, तब मां का पृष्ठभाग यहीं आ गिरा और यह स्थल शक्तिपीठ बना। इसलिए यह धाम न केवल सिद्धपीठ, बल्कि अनादिकाल से साधना की अखंड भूमि है।

देवासुर संग्राम का साक्षी
कहते है जब देवासुर संग्राम में देवगण असुरों के सामने पराजित होने लगे, तब ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने विन्ध्याचल आकर मां की उपासना की। मां के आशीर्वाद से ही उन्हें विजय प्राप्त हुई। इसी कारण यहां साधना करने वाले साधक के लिए सिद्धि की अनिवार्य प्राप्ति कही जाती है। महानिशा पूजन, विशेषकर नवरात्र की अष्टमी तिथि पर, तांत्रिक साधना का अनोखा दृश्य प्रस्तुत करता है। आधी रात के बाद होने वाला यह पूजन रोंगटे खड़े कर देता है, मां के अद्भुत, अलौकिक तेज का साक्षात् अनुभव कराता है।
नंदगोप गृहे जाता यशोदागर्भसम्भवा,
तत्स्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलवासिनी।।
अर्थात भगवती जी ने स्वयं बोली है मैं द्वापर युग में नंद के यहां यशोदा के गर्भ से पैदा होंगी और कंस के हाथों से मुक्त होकर विन्ध्य क्षेत्र में निवास करेगी। कहा जाता है कि जो मनुष्य इस स्थान पर तप करता है, उसे अवश्य सिद्वि प्राप्त होती है। विविध संप्रदाय के उपासकों को मनवांछित फल देने वाली मां विंध्यवासिनी देवी अपने अलौकिक प्रकाश के साथ यहां नित्य विराजमान रहती हैं।
नवरात्र का विराट उत्सव
चैत्र और शारदीय नवरात्र में विन्ध्याचल धाम पर आस्था का महासमुद्र उमड़ पड़ता है। मंदिर की ऊंची ध्वजा पर मां का सूक्ष्म रूप विराजता है, जिससे वे भक्त भी दर्शन लाभ पाते हैं जो भीड़ के कारण गर्भगृह तक नहीं पहुंच पाते। इन नौ दिनों में लगभग पच्चीस लाख से अधिक श्रद्धालु इस धाम में जुटते हैं। अनगिनत लोग तो केवल मां की पताका के दर्शन से ही स्वयं को धन्य मानते हैं।
त्रिकोण यंत्र पर अद्भुत विग्रह
मां का विग्रह त्रिकोण पर स्थापित है। त्रिकोण के तीन बिंदुओं पर क्रमशः महालक्ष्मी, महाकाली और मां सरस्वती के रूप में देवी का प्राकट्य है। अष्टभुजा देवी के नाम से प्रसिद्ध यह स्वरूप भक्तों को अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति कराता है। मंदिर से लगभग छह किमी की दूरी पर पहाड़ी पर महाकाली, महालक्ष्मी और अष्टभुजा के स्वरूप विराजमान हैं, जबकि कालीखोह में स्थित मां काली का मंदिर तांत्रिक साधना का महत्वपूर्ण केंद्र है।

ऋषिदृमुनियों की तपोभूमि
ऋषि-मुनियों ने इस धरा पर अनगिनत तप साधनाएं कीं। मान्यता है कि यहां तप करने से साधक को अवश्य सिद्धि प्राप्त होती है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश तक ने मातृभाव से उपासना की। यही शक्ति उन्हें सृष्टि की रचना और संचालन में समर्थ बनाती है। मार्कंडेय पुराण के दुर्गा सप्तशती में भी इस महिमा की स्पष्ट पुष्टि मिलती है।
जब वैकुण्ठ भी झुक गया मां के चरणों में
धरती का यह अंश केवल पर्वत नहीं, शक्ति का सनातन प्रतीक है। कहा जाता है कि जब स्वयं नारायण ने महादेव से विन्ध्य क्षेत्र की महिमा पूछी, तो महादेव ने मौन का आवरण ओढ़ लिया। शब्दों से परे उस तेज को कैसे बयान करें, जिसका गुणगान सहस्र शेष भी न कर सके, जिसे लिखने के लिए सहस्त्र भुजाएं भी कम पड़ जाएं?
विन्ध्य क्षेत्रस्य महात्मयम वक्तु शिशु परमेश्वरम्
लिखतुम हहया क्षचु दृष्टतः सुरेश्यम्
अर्थात विन्ध्य क्षेत्र की महिमा हजार मुख वाले सिस, लिखने को हजार भुजा वाले अर्जुन व सहस्त्र शस्त्रों से युक्त इंद्र भी बताने में असमर्थ है। यही वह धरा है जहां कभी ब्रह्मा ने तराजू पर वैकुण्ठ और विन्ध्य को तोला था, और जब वैकुण्ठ का पलड़ा हल्का हुआ तो स्वर्ग लौट गया, जबकि विन्ध्य पर्वत अपने स्थान पर अडिग रहा। मान्यता है कि इसीलिए विन्ध्याचल स्वर्ग से भी उत्तम है। सूर्य का मार्ग रोक देने वाला यह अकेला पर्वत अपने गुरु अगस्त्य की आज्ञा पाकर आज भी विनम्रता से सिर झुकाए खड़ा है। जब सूर्यदेव उसकी ऊंचाई से व्याकुल हुए, तब अगस्त्य मुनि ने कहा, “मैं वृद्ध हो चला हूं, अब इतनी ऊंचाई चढ़ नहीं सकता।” गुरु की वाणी सुनकर पर्वत ने अपना विस्तार थाम लिया। तब से विन्ध्य का मस्तक वहीं ठहरा है, गुरु के प्रति शाश्वत श्रद्धा का सजीव प्रतीक। इसी पर्वतराज की गोद में विराजती हैं मां विन्ध्यवासिनी। मान्यता है कि सृष्टि का पहला उजाला इन्हीं शिखरों को छूता है।
शक्ति का ही नहीं, अद्भुत कथाओं का भी धाम
कालीखोह की गुफा में मां काली आज भी उसी मुद्रा में विराजमान हैं, जब रक्तबीज का रक्त पीकर उन्होंने उसका अंत किया था। अष्टभुजा देवी का मंदिर गंगा की निर्मल धार के संग अतुल्य सौंदर्य रचता है। देवी पुराण के मुताबिक जन्मते ही कंस के हाथों से फिसलकर आकाश में विलीन हुई श्रीकृष्ण की बहन यही अष्टभुजा हैं। पास ही सीता कुंड है, जहां वनवास के दिनों में मां सीता ने रसोई रची और राम ने बाण से जलधारा प्रवाहित की। नवरात्र के दिनों में यहां का वातावरण देवभूमि-सा जागृत हो उठता है। कजरी महोत्सव में जब लोकगायन की लहरियां गूंजती हैं, तो लगता है स्वयं मां के आशीष से पर्वत झंकृत हो उठा हो। चारों दिशाओं में बसे लाट भैरव नगर की रक्षा करते हैं। बटुक भैरव, जिन्हें विन्ध्याचल का कोतवाल कहा जाता है, बिना जिनके दर्शन के मां का पूजन अधूरा माना जाता है, भक्तों को दिव्य सुरक्षा का आश्वासन देते हैं।